"समाज से जाति भेद को मिटाना आवश्यक है" या "हिन्दू समाज कई जातियों में बटा है" - इस प्रकार की बातें हमें प्रतिदिन सुनने को मिल ही जाती है। आपमें से यदि कोई सोच रहा हो कि आज अचानक धर्म संसार पर राजनितिक बातें कैसे होने लगी, तो आप गलत समझ रहे हैं। आज हम कुछ ऐसा समझने का प्रयास करने वाले हैं जो शुद्ध रूप से सनातन हिन्दू धर्म का आधार है, किन्तु दुर्भाग्यवश उसे तोड़-मरोड़ कर ऐसा रूप दे दिया गया है जिससे समाज में मतभेद उत्पन्न हो गए हैं।
आज हम "जाति" एवं "वर्ण" के भेद को समझने वाले हैं। किन्तु उससे पहले मैं आपको दो चीजों का विश्वास दिलाना चाहता हूँ। पहली ये कि ये जानकारी पूर्ण रूप से धार्मिक ज्ञान पर आधारित है, और दूसरी ये कि हममें से कोई भी व्यक्ति जो इसे सही ढंग से समझ ले उसके लिए सामाजिक भेद-भाव का कोई महत्त्व नहीं रह जाएगा। तो आइये इसे समझते हैं।
सबसे पहले तो यदि आप ये ना जानते हों तो कृपया समझ लें कि सनातन हिन्दू धर्म में हम मनुष्यों के सन्दर्भ में "जाति" नाम की कोई चीज ही नहीं है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में जाति, इस शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक रूप में किया गया है। "जाति" शब्द दो समूहों के मध्य अलगत्व का परिचायक है जो उन्हें एक दूसरे से पूर्णतः अलग करता है। जैसे देव जाति, राक्षस जाति, दैत्य जाति, यक्ष जाति, गन्धर्व जाति, नाग जाति इत्यादि। उसी प्रकार "मनुष्य जाति" भी एक पृथक समूह है जिसमें हम सभी समाहित होते हैं। किन्तु मनुष्य जाति के अंतर्गत किसी अन्य जाति का वर्णन हमारे किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं किया गया है।
वास्तव में हम मनुष्यों की जाति जिन ४ भागों में बटी है वो "वर्ण व्यवस्था" है ना कि जाति व्यवस्था। वर्ण और जाति में उतना ही अंतर है जितना पृथ्वी और आकाश में है। ये तो हम सभी को पता है कि समस्त सृष्टि की उत्पत्ति परमपिता ब्रह्मा से हुई है। उनके १६ मानस पुत्रों में से एक महाराज मनु से ही हमारा जन्म हुआ है इसी कारण हम मानव अथवा मनुष्य कहलाते हैं। हमारा यही विशाल समूह ४ भागों में बटा है जिन्हे वर्ण कहा जाता है।
वर्ण-व्यवस्था चिरकाल से हमारे सनातन धर्म में है। ये अति प्राचीन है किन्तु आधुनिक काल में कुछ अल्पबुद्धि व्यक्तियों ने वर्ण का अपभ्रंश कर उसे जाति के रूप में परिभाषित कर लिया जिससे ऊंच-नीच की समस्या उत्पन्न हुई, अन्यथा हिन्दू धर्म में ऊँचा-नीचा, इस प्रकार का कोई स्तर है ही नहीं। जो चार वर्ण हमारे समाज में सदा से हैं वे है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। और ये सदैव स्मरण रखें कि ये चारो वर्ण बिलकुल समान हैं। मैं एक बार फिर से दोहराता हूँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बिलकुल समान हैं और इसमें किसी प्रकार का अंतर नहीं है।
अब यहाँ एक प्रश्न आता है कि यदि इन चारो वर्णों में कोई अंतर नहीं है तो फिर समाज को इन वर्णों में बाँटने की आवश्यकता ही क्यों थी? तो ये जान लें कि वर्ण व्यवस्था उचित सामाजिक संतुलन के लिए अति आवश्यक है। एक छोटे से उदाहरण के साथ इसे समझते हैं। हम सभी चाहे किसी भी स्थान पर कार्य करते हों वहाँ अलग-अलग विभाग होते हैं। उदाहरण के लिए एक कंपनी में चार विभाग हैं - आई.टी, सेल्स, एच.आर एवं सिक्योरिटी। चारो विभाग को चलाने हेतु अलग-अलग प्रबंधक नियुक्त किये गए हैं। अब चारो पद बिलकुल समान हैं, बस उनके दायित्व अलग-अलग हैं। और ये इस कारण से है ताकि वो संगठन सुचारु रूप से चल सके। सोचिये कि यदि आई.टी मैनेजर सेल्स के काम में अथवा सिक्योरिटी मैनेजर एच.आर केकाम में हस्तक्षेप करने लगे तो क्या वो कंपनी एक दिन भी चल पायेगी?
इस व्यवस्था को हम सभी ने अपने जीवन में देखा है। क्या हम ये कल्पना भी कर सकते हैं कि एक बड़े संगठन को बिना इस प्रकार विभागों में व्यवस्थित किये उसे सही ढंग से चलाया जा सकता है? और उससे भी बड़ा प्रश्न ये कि क्या हम इन सभी विभागों में से किसी को ऊँचा या नीचा कह सकते हैं? ये सभी अलग हैं किन्तु समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। और अलग इसी कारण हैं ताकि उस संगठन को सुचारु रूप से चलाया जा सके। ये कोई पद नहीं है, केवल व्यवस्था है।
ठीक इसी प्रकार वर्ण कोई पद नहीं है, केवल व्यवस्था है। और ये व्यवस्था इस कारण से बनाई गयी ताकि समाज सुचारु ढंग से चल सके। ये चारो वर्ण ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं। कहा गया है -
ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः।।
अर्थात: ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों से शुद्र उत्पन्न हुए।
इसके अतिरिक्त श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है -
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
अर्थात: गुण (सत, रज एवं तम) और कर्मों के विभागपूर्वक चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मैंने रचे हैं । इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी तू मुझे अकर्ता-अविकारी ही जान।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं -
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।
अर्थात: हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभावसे उत्पन्न हुए तीनों गुणों (सत, रज एवं तम) के द्वारा विभक्त किये गये हैं। इसका भाव ये भी है कि राजा का पुत्र राजा तभी बनेगा जब उसमें राजा बनने के गुण एवं लक्षण होंगे। श्रीराम केवल इस कारण राजा नहीं बनें कि वे दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे। वे इस कारण राजा बनें क्यूंकि उनमें राजा बनने के समस्त गुण एवं लक्षण थे।
आइये अब चारो वर्णों को संक्षेप में जान लेते हैं:
- ब्राह्मण: ये ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए (ब्रह्म + मन)। इन्हें परमपिता ने ज्ञान एवं शिक्षा का दायित्व दिया। इनका कार्य था कि समाज मे सभी व्यक्तियों को शिक्षित करना और ब्रह्मा से उत्पन्न मूल ज्ञान को समस्त जन (अन्य वर्णों) तक पहुंचना ताकि वे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म में भेद कर सकें। चूँकि उन्हें ज्ञान बांटना था इसीलिए उन्होंने सर्वप्रथम ज्ञान अर्जित किया। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं - शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिराजर्वमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वाभावजम।। अर्थात, शम (मन को वश में करना), दम (इन्द्रियों का दमन), तप (तपस्या), शौच (शुद्धि), क्षान्ति (क्षमा), आर्जव (निष्कपट), ज्ञान (वेद), विज्ञान (आत्मज्ञान) एवं आस्तिक्य (ईश्वर में श्रद्धा) ये सब (९) ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण हैं।
- क्षत्रिय: ये ब्रह्मा के बाहु से उत्पन्न हुए जिन्हें ब्रह्मा ने समाज की रक्षा का दायित्व दिया। जिस प्रकार श्रीहरि विष्णु ब्रह्मा द्वारा रचित इस सृष्टि की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार क्षत्रियों का दायित्व है कि वे समाज के प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा करे। चूँकि इन्हें सबकी रक्षा करनी थी इसी कारण इन्होंने शास्त्र के साथ शस्त्र शिक्षा लेनी भी आरम्भ की ताकि ये दुष्टों का प्रतिकार कर सकें। भगवद्गीता में कहा है - शौर्यं तेजो घृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजं।। अर्थात, शौर्य (शूरवीरता), तेज (तेजस्वी), धृति (धैर्य), दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन ना करना, दान एवं ईश्वर भाव (करुणा) ये सब (७) क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण हैं।
- वैश्य: ये ब्रह्मा की जंघा से उत्पन्न हुए जिन्हें ब्रह्मा ने व्यापार, वित्त, वाणिज्य और उद्योग के प्रसार का दायित्व प्रदान किया। बिना अर्थ (धन) के कोई समाज उन्नति नही कर सकता इसी कारण इनका दायित्व व्यापार और धन का सृजन कर उसे समाज के कल्याण के लिए खर्च करना था। इसके अतिरिक्त समाज के अन्य वर्णों के व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करने का दायित्व भी इनका था। भगवद्गीता में कहा है - कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजं। अर्थात, कृषि, गोपालन एवं वाणिज्य (व्यापार) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं।
- शूद्र: इसे थोड़ा ध्यान से पढियेगा क्योंकि आपत्ति इसी पर होती है। ये ब्रह्मा केचरण कमल से उत्पन्न हुए और ब्रह्मा ने इन्हें भूमि, अन्न एवं सेवा करने का दायित्व प्रदान किया। अन्न एवं भोजन के बिना कोई प्राणी जीवित नही रह सकता। सभी मनुष्यों को अन्न मिले इसका दायित्व शूद्रों पर था। बिना भूमि अन्न नहीं उपज सकता और भूमि पर अधिकार भी शूद्रों का ही होता था। भगवद्गीता में कहा है - परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजं। अर्थात, परिचर्या (सेवा एवं व्यवस्था/कार्य) करना शूद्रों का स्वाभाविक कर्म है। इसके अनुसार हम सभी जो नौकरी करते हैं वो शूद्र वर्ण के हैं, अतः इसकी महत्ता समझिये। शूद्र का अर्थ होता है - शुच + द्र अर्थात वो जिनके अंदर शुचि (पवित्रता) द्रवित अर्थात प्रवाहित होती हो। सोचिये इतने सुंदर भावार्थ को अज्ञानियों ने कितना कलुषित बना दिया।
कुछ लोगों को इस बात पर भी आपत्ति होती है कि पहले ब्राह्मण और अंत में शूद्र क्योंजन्में? कुछ इसपर भी आपत्ति करते हैं कि ब्राह्मण मस्तक से और शूद्र पैर से क्यों जन्में? वे जान लें कि ये वरीयता नहीं बल्कि केवल क्रम है। इसे ऐसे समझें:
- पहले क्रम पर शून्य से सर्वप्रथम ज्ञान की उत्पत्ति हुई। शरीर में भी सर्वप्रथम मन ही है जिससे ब्राह्मण का जन्म हुआ जिन्होंने ज्ञान का दायित्व संभाला।
- दूसरे क्रम पर उस ज्ञान की रक्षा हेतु शरीर के दूसरे क्रम, अर्थात भुजा से क्षत्रियों का जन्म हुआ। भुजाएं वीरता एवं शक्ति का प्रतीक भी मानी जाती है। किन्तु यदि ज्ञान ही उत्पन्न ना हुआ होता तो रक्षा किसकी करते? अतः ज्ञान के बाद ही बल का क्रम आया।
- तीसरे क्रम पर अर्थ आया। जब ज्ञान का प्रकाश हुआ और उनकी रक्षा का दायित्व उठाया गया तब संसार को सुचारु रूप से चलाने हेतु शरीर के तीसरे क्रम ऊरु (जंघा) से अर्थ की प्राप्ति करने वाला वैश्य उत्पन्न हुआ। यदि रक्षा का प्रबंध ना हो तो अर्थ का लोप हो जाता है। इसी लिए इनका क्रम क्षत्रिय के बाद आया।
- चौथे और अंतिम क्रम पर अर्थ की उत्पत्ति के बाद शरीर के अंतिम क्रम पैर से भूमि के मापन एवं सञ्चालन के लिए शूद्र की उत्पत्ति हुई। यदि अर्थ ही ना हो तो भूमि और परिचर्या का क्या उपयोग?
अतः सदैव स्मरण रखें कि चारो वर्णों की उत्पत्ति का क्रम एवं अंग पूर्ण रूपेण विज्ञान पर आधारित है और हर कोई स्वयं के पिछले क्रम पर आधारित है। और अंततः चारों वर्ण आश्चर्यजनक रूप से एक दूसरे के पूरक हैं। अर्थात किसी भी एक वर्ण की अनुपस्थिति में अन्य तीन उपयोगहीन हो जाते हैं।
अब अंत में ये जान लेना आवश्यक है कि क्या कोई व्यक्ति जिस वर्ण में जन्में, सदैव वही रहता है? अर्थात क्या ब्राह्मण सदैव ब्राह्मण और शूद्र सदैव शूद्र ही रहता है? नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है। हिन्दू धर्म में जो वर्ण व्यवस्था है वो जन्म नहीं अपितु कर्म प्रधान है। जिस मनुस्मृति की कुछ अज्ञानी बुराई करते नहीं थकते, उसमें वर्ण व्यवस्था के विषय में क्या लिखा है वो भी देख लीजिये:
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषूर्मृदुवागनहंकृत:।
ब्राह्मणद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।।
अर्थात: शुद्ध-पवित्र, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, सदा ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों की सेवा में संलग्न शूद्र भी उत्तम ब्रह्मजन्म के अतंर्गत दूसरे वर्ण को प्राप्त कर लेता है। यहाँ ब्रह्मजन्म कर अर्थ शिक्षित होने को कहा गया है। शिक्षित होने को दूसरा जन्म ही माना जाता है इसी कारण शिक्षित व्यक्ति को "द्विज" भी कहते हैं।
मनुस्मृति में आगे कहा गया है -
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।।
अर्थात: शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है। अर्थात गुण कर्मों के अनुकूल ब्राह्मण हो तो ब्राह्मण रहता है तथा जो ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के गुण वाला हो तो वह उसी वर्ण (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) हो जाता है। वैसे ही शूद्र भी मूर्ख हो तो वह शूद्र रहता है और उत्तम गुणयुक्त हो तो यथायोग्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य हो जाता है। उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य के विषय में भी समझना चाहिए।
संसार में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाने के कई उल्लेखनीय उदाहरण हैं, कुछ पर दृष्टि डालें:
- रामायण के अनुसार महर्षि वाल्मीकि प्रचेता के पुत्र थे किन्तु रामचरितमानस के अनुसार वे जन्म से रत्नाकर नामक शूद्र थे जो अपने कर्मों से ब्राह्मणत्व को प्राप्त करते हैं। रामायण एवं रामचरितमानस के अंतर को विस्तार से यहाँ पढ़ें।
- परशुराम एवं द्रोणाचार्य जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु कर्म से उन्होंने क्षत्रिय वर्ण को प्राप्त किया।
- वेदव्यास जन्म से एक शूद्र माता की संतान थे किन्तु कर्म से उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। वे महर्षि केवल पराशर के पुत्र होने कारण नहीं अपितु अपने कर्म के कारण कहलाये।
- श्रीकृष्ण के स्वसुर सत्राजित जन्म से क्षत्रिय थे किन्तु कर्म से वैश्य बने और कालांतर में शूद्र बनकर असीम भूमि प्राप्त की।
- विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे किन्तु कर्म से उन्होंने ना केवल ब्राह्मणत्व को बल्कि उससे भी ऊपर ब्रह्मर्षि के पद को प्राप्त किया।
- कर्ण जन्म से शूद्र थे (अपनी माता का परिचय ना जानने के कारण) किन्तु कर्म से क्षत्रिय बनें। वे जन्म से भी क्षत्रिय थे ये उन्हें अंत समय में ज्ञात हुआ।
- कीचक जन्म से सूत (शूद्र) था किन्तु कर्म से क्षत्रिय वर्ण को प्राप्त हुआ।
- राजा जनक जन्म से क्षत्रिय थे किन्तु कर्म से वे ब्राह्मण से भी ऊपर विदेह कहलाये।
- शबरी जन्म से शूद्र थी किन्तु कर्म से ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।
- एकलव्य जन्म से शूद्र था किन्तु कर्म से उसने क्षत्रिय वर्ण को प्राप्त किया।
अर्थात अपने कर्मों द्वारा व्यक्ति एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जा सकता था, इसपर कोई रोक टोक नही थी। जो वर्ण व्यवस्था इतनी सुचारु रूप से चलने वाली थी, कालांतर में कुछ लोगों ने अपने निहित स्वार्थ हेतु उसे जाति प्रथा में बदल दिया। ये भी बहुत अधिक पुरानी बात नहीं है। और तो और लोगों ने श्रीराम के चरित्र हनन के लिए शम्बूक वध जैसे प्रसंग जोड़े और गोस्वामी तुलसीदास के ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी दोहे के अर्थ का अनर्थ कर दिया। कुछ तथाकथित विद्वानों और समाज सुधारकों ने भी इस खाई को गहरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस पर अधिक नहीं लिख सकता क्यूंकि फिर ये विषय राजनितिक हो जाएगा। बस स्वयं थोड़ा शोध कर लें कि २५ दिसंबर १९२७ को क्या अनर्थ हुआ था।
तो अंत में यही कहना चाहूँगा कि जिन्हें ये मिथ्या धारणा है कि ब्राह्मण ऊँचे और शूद्र नीचे होते थे उन्हें ये जानना चाहिए कि ब्राह्मण वर्ण में जन्में मातंग ऋषि ने एक शूद्र शबरी को अपनी शिष्य बनाया और उनके सत्संग से शबरी ने भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया। उन्ही के जूठे बेर स्वयं श्रीराम ने खाये। शूद्र वर्ण में जन्मे निषादराज गुह क्षत्रिय वर्ण में जन्मे श्रीराम के अभिन्न मित्र थे। जब ईश्वर ने प्राणीमात्र में अंतर नहीं माना तो हम अल्पबुद्धि मनुष्य कौन होते हैं उनमें अंतर करने वाले? यदि ये लेख आपको पसंद आया हो और वर्ण व्यवस्था का वास्तविक अर्थ समझ में आ गया हो तो कृपया औरों को भी बताएं।
जय श्रीराम।
बहुत सुंदर, सटीक ,प्रामाणिक, सारगर्भित जानकारी प्रदान की है आपने। नीलाभ जी आपका शोध ,आपकी निष्ठा, आपकी कर्मठता सादर प्रणम्य है।
जवाब देंहटाएंआप सत्य सनातन धर्म को आधार प्रदान कर रहे हैं।
एक बार पुनः आभार।
बहुत आभार विदुषी जी।
हटाएंआपके शोध और सनातन धर्म सेवा हेतु आपका कोटि कोटि आभार। ईश्वर आपको और भी सामर्थ्य तथा ज्ञान प्रदान करें।
हटाएंजय सियाराम
उत्कृष्ट और तथ्यपरक शोध के लिये आभार
हटाएंधन्यवाद सर।
हटाएंअद्भुत एवं सराहनीय कार्य हेतु आपको बहुत बहुत साधुवाद। आपके लेख निश्चित ही सनातन धर्मावलम्बियों के मार्ग दर्शक है।
जवाब देंहटाएंजाति अर्थात ज+आति का संधि है।
जवाब देंहटाएंज अर्थात जन्म एवं आति अर्थात
आता है।
अर्थात जन्म के साथ जो गुण धर्म
स्वभाव आते हैं उसे जाति कहते हैं।
घोड़ा एक जाति है,शेर एक जाति है,
मनुष्य एक जाति है।
सभी जाति के जीवों में वर्ण होते हैं,
मनुष्य बुद्धिशील प्राणी है अतः उसके
गुण धर्म बुद्धि के अनुसार होता है
तदनुरूप उसके वर्ण एवं कर्म भी होते हैं।
धन्यवाद बिजय जी।
हटाएंबहुत सुन्दर और अति महत्वपूर्ण ज्ञानवर्धक लेख।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार शंकर जी।
हटाएंजितनी समझदारी भरी आपने बातें कीं , सुनकर हृदय गदगद हो गया। लेकिन बहुत चतुराई दिखाई आपने , लेख में आपने माना तो कि ऊंच-नीच की समस्या आयी , लेकिन जो उस ऊंच नीच के ख़िलाफ़ खड़े हुए उन्हें आपने अज्ञानी घोषित कर दिया।
जवाब देंहटाएंजितनी समझदारी से ये सब बातें कहीं गयीं हैं, काश उतनी समझदारी से इनका पालन भी हुआ होता। इसमें आपका भी दोष नही है, धर्म को आपने तो समझ लिया लेकिन पूर्वज थोड़ा पीछे रह गये। शोध जारी रखिये, क्यूंकि शोध तो एक निरंतर प्रक्रिया है। आशा है बुरा नहीं मानेंगे क्यूंकि शोध तर्क को बढ़ावा देता है, भावुकता को नहीं। घटनाओं के पीछे का कारण भी निष्पक्षता से देखा करिये।
सत प्रतिशत निष्पक्ष है लेखक | लेकिन ये आक्षेप लगाने वाले वही गलती दोहरा रहे है जिसमे अनर्थ की और इशारा किया गया है | अगर अनर्थ करने वालो ने ये तथ्य पहले जुटा लिए होते, समझ लिए होते तो देश आज इतना पिछड़ा नहीं होता और एक दूसरे से बेर नहीं पालते सनातनी भाई बंधू
हटाएंबहुत आभार अभिषेक जी।
हटाएंक्या एक वर्ण से दूसरे वर्ण में विवाह संभव है?
जवाब देंहटाएंहाँ, क्यों नहीं हो सकती? ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जब प्राचीन काल में भी अलग वर्ण में विवाह होते थे, फिर आज तो आधुनिक युग है।
हटाएंकोई उदाहरण ?
हटाएंBahut accha likha h lekin ek baat smjh me nhi aayi ki
जवाब देंहटाएंAgar bramha ji ke putra manu ji se maanav jaati ki utpatti hui
To fir
Bramha ji ne kaise chaaro varnon ki utpatti ki
ब्रह्मा जी से ही ४ वर्ण उत्पन्न हुए। किन्तु उनके प्रथम पुत्रों की संख्या १६ थी जिन्हे मानस पुत्र कहते हैं। महाराज मनु भी उनमें से एक थे। ब्रह्मा जी के मानसपुत्रों के बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं: https://www.dharmsansar.com/2021/03/manas-putra.html
हटाएंउत्तम शोध के लिये आभार नीलाभ जी!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार सर।
हटाएंबहुत भड़िया।
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