पिछले लेख में आपने गृद्धराज सम्पाती के विषय में पढ़ा था। जटायु इन्ही सम्पाती के छोटे भाई थे। महर्षि कश्यप और विनता के ज्येष्ठ पुत्र अरुण इनके पिता थे। इनकी माता का नाम श्येनी था। पिछले लेख में आपने पढ़ा कि किस प्रकार विनता अपने बड़े पुत्र अरुण को समय से पहले ही अंडे से निकाल देती है जिससे वो बड़े रुष्ट होते हैं और सूर्यदेव के सारथि बन जाते हैं। इनके छोटे भाई समय पूरा होने पर अंडे से निकलते हैं जिनका नाम गरुड़ रखा जाता है। ये भगवान श्रीहरि के वाहन बन जाते हैं। अरुण के ही श्येनी से दो पुत्र होते हैं - सम्पाती और जटायु।
सम्पाती और जटायु के बीच की प्रतियोगिता के बारे में भी आपने पिछले लेख में पढ़ा जिसमें सम्पाती के दोनों पंख जल जाते हैं जिससे वो समुद्र तट पर आ गिरते हैं और जटायु पंचवटी में जाकर रहने लगते हैं। कुछ वर्ष पश्चात अयोध्यापति दशरथ आखेट हेतु पंचवटी आये जहाँ पर उनकी भेंट जटायु से हुई। उस समय जटायु ने दशरथ की बड़ी सहायता की जिस कारण दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गयी। कुछ काल पंचवटी में रहने के बाद दशरथ वापस अयोध्या लौट गए। जटायु वहीं पंचवटी में अपना जीवन बिताने लगे।
आगे चल कर जब श्रीराम को वनवास हुआ तो वे माता सीता और लक्ष्मण सहित पंचवटी रहने के लिए पहुंचे। वहीं उनकी भेंट जटायु से हुई। जब जटायु ने उन्हें बताया कि वे उनके पिता दशरथ के मित्र हैं तो श्रीराम को अत्यंत प्रसन्नता हुई। उन्होंने जटायु को पितृतुल्य ही माना और वे उनका आदर अपने पिता के सामान ही करते थे। जब तक श्रीराम पंचवटी में रहे, तब तक जटायु ने उनकी बड़ी सेवा और सहायता की।
वन में १३ वर्ष बिताने के बाद एक दिन जब श्रीराम और लक्ष्मण मारीच द्वारा छले गए, तब रावण ने माता सीता का हरण कर लिया। ऐसा वर्णन है कि रावण उनका हरण कर अपने पुष्पक विमान में आकाश मार्ग से लंका ले जा रहा था। तब उस समय जटायु ने ये दृश्य देखा और तत्काल माता सीता की रक्षा करने के लिए रावण का मार्ग रोक लिया। उन्होंने विभिन्न प्रकार से रावण को धिक्कारा और कहा कि वो सीता को छोड़ दे। किन्तु रावण किसी भी प्रकार माता सीता को छोड़ने को तैयार ना हुआ।
तब उनकी रक्षा हेतु जटायु ने रावण पर आक्रमण किया। उस समय जटायु अत्यंत वृद्ध और निर्बल थे, वहीं रावण अपनी शक्ति के चरम पर था। इस पर भी जटायु ने रावण का सामना अत्यंत वीरता से किया। उन दोनों का युद्ध बहुत समय तक चलता रहा और जटायु ने रावण को रोके रखा किन्तु अंततः वे उसके बल से पार ना पा सके। समय व्यर्थ होता देख कर रावण ने अपने चन्द्रहास खड्ग से जटायु के पंख काट डाले जिससे वो भूमि पर आ गिरे। आज ऐसी मान्यता है कि वो वर्तमान केरल प्रदेश के सदियामंगलम स्थान पर गिरे थे।
जब श्रीराम और लक्ष्मण पंचवटी वापस लौटे तो माता सीता को वहाँ ना पाकर दोनों उन्हें वन-वन ढूंढने लगे। उसी समय उन्होंने मार्ग में जटायु को मरणासन्न अवस्था में देखा। रामायण में वर्णित है कि श्रीराम जटायु की वो दशा देख कर अत्यंत दुखी हो गए और तत्काल उनका सर अपनी गोद में रख लिया। अपने अंतिम समय में जटायु ने श्रीराम को सारी बातें बताई कि रावण माता सीता का हरण कर उन्हें दक्षिण दिशा में ले गया है। उन्होंने श्रीराम से क्षमा मांगी कि वे सीता की रक्षा ना कर सके और उनकी गोद में ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे। जटायु की मृत्यु के बाद श्रीराम ने एक पुत्र की भांति ही उनका अंतिम संस्कार किया।
ऐसी मान्यता है कि जटायु कुल ६०००० वर्षों तक जीवित रहे। वालमीकि रामायण और रामचरितमानस में जटायु और सम्पाती के विषय में बहुत अलग बातें लिखी है। महर्षि वाल्मीकि ने जटायु को वन में रहने वाले मनुष्य के रूप में चित्रित किया है किन्तु गोस्वामी तुलसीदास ने जटायु का वर्णन एक पक्षी (गिद्ध) की भांति किया है। हालाँकि आज जनमानस में जटायु की चित्रण एक पक्षी की ही भांति किया जाता है।
आज भारत में ऐसे कई स्थान हैं जहाँ जटायु का मंदिर है। इसमें से सबसे प्रसिद्ध स्थान केरल के कोल्लम जिले के सदियामंगलम है जहाँ उनका बहुत प्राचीन मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि पंख कटने के बाद जटायु इसी स्थान पर गिरे थे। इसके अतिरिक्त आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में लेपाक्षी नामक एक स्थान है। ऐसी मान्यता है कि श्रीराम ने इस स्थान पर "ले पक्षी" कह कर जटायु का उत्साह वर्धन किया था जिस कारण इस स्थान का ये नाम पड़ा। तमिलनाडु का विजयराघव मंदिर भी जटायु को समर्पित है। तमिलनाडु के ही तिरुपुल्लभूतांगुड़ी मंदिर के बारे में भी मान्यता है कि श्रीराम ने जटायु का अंतिम संस्कार वही किया था।
इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश के देवास जिले में जटाशंकर नामक एक स्थान है। ऐसी मान्यता है कि जटायु ने इसी स्थान पर भगवान शंकर की घोर तपस्या की थी। कुछ दशकों पूर्व तक इस स्थान पर सैकड़ों की संख्या में गिद्ध रहा करते थे किन्तु अब वन के कटने से उनकी संख्या बहुत ही सीमित हो गयी है। इस स्थान पर जो शिवलिंग है उस पर अनवरत जल की धारा गिरती रहती है जिस कारण से इसका ये नाम पड़ा है। ये स्थान भी भोलेनाथ और जटायु को समर्पित है।
जय श्रीराम।
उत्तम लेख
जवाब देंहटाएंबहुत आभार सर।
हटाएंआरंभ में आपने लिखा की भगवान श्री राम जी ने जटायु को पितातुल्य माना लेकिन उनकी मृत्यु उपरांत उनका अंतिम संस्कार पुत्र की भांति किया ।
जवाब देंहटाएंपुत्र अर्थात उनके पुत्र की भांति।
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