बहुत काल पहले विद्वानों की एक सभा में शास्त्रार्थ चल रहा था। उसी समय एक प्रश्न उठा कि सृष्टि में वो कौन है जिसकी सहनशीलता अपार है? तब कई विद्वानों ने अलग-अलग तर्क रखे। एक ने कहा कि जल सबसे सहनशील है क्यूंकि उसपर चाहे कितने प्रहार करो वो अंततः शांत हो जाता है। तब दूसरे ने वायु को सहनशील बताया जो जीव मात्र को जीने की शक्ति प्रदान करता है। तीसरे की दृष्टि में अग्नि सर्वाधिक सहनशील थी क्यूंकि वो संसार की समस्त अशुद्धिओं को नष्ट कर देती है। किसी ने आकाश को सहनशील बताया कि कितने आपदाओं से वो हमारी रक्षा करती है और जीवन के लिए जल भी प्रदान करती है।
तब अंततः ऋषि होत्र ने कहा - "हे महानुभावों! आपने जिन तत्वों के बारे में कहा है वो निश्चय ही सहनशील है किन्तु मेरे विचार से पृथ्वी इन सब से अधिक सहनशील है।" सभी के पूछने पर उन्होंने इस प्रकार इसकी व्याख्या की:
"आप सभी विद्वान इसी लिए जानते है। जल में उफान आ सकता है, वायु में तूफ़ान, अग्नि दावानल का रूप ले सकती है और आकाश चक्रवातों को जन्म दे सकता है। किन्तु धरती, एक माता की भांति सभी कष्टों को सहते हुए समस्त प्राणियों की रक्षा करती है। मेघ से बरसने वाले जल को भी वो सोखती है ताकि जल मनुष्य के काम आ सके। हल के कष्ट को सहती है ताकि मनुष्यों को भोजन प्राप्त हो सके। स्वयं शेषनाग के फण पर स्थित होने के कारण अपने भीतर इतने हलचलों के पश्चात भी स्थिर रहती है ताकि सभी को आधार प्राप्त हो सके। सम्पूर्ण वनस्पतियों को धारण करती है ताकि सृष्टि का क्रम चलता रहे। मनुष्यों की क्या बात है, वो तो सभी पशु-पक्षियों और यहाँ तक कि कीटों को भी स्वयं पर आश्रय देती है। इसी लिए पृथ्वी ही सर्वाधिक सहनशील है।" इस पर वहाँ उपस्थित सभी विद्वानों ने ऋषि होत्र की भूरि-भूरि प्रसंशा की।
वेदों में निम्न मन्त्र को प्रतिदिन प्रातःकाल धरती पर चरण रखने से पहले कहने को कहा गया है:
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डिते।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व में।।
अर्थात: हे धरती माता, आप समुद्र और पर्वतों को अपने ह्रदय में धारण करती हैं। आप स्वयं नारायण की अर्धांगिनी हैं। मैं आपके ऊपर चरण रखने जा रहा हूँ, कृपया मुझे क्षमा करें।
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