उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे। एक बार महाराज उत्तानपाद अपनी पत्नी सुरुचि के साथ वार्तालाप कर रहे थे। उनका छोटा बालक उत्तम वहीँ खेल रहा था। उसी समय ५ वर्ष का ध्रुव दौड़ते हुए आया और अपने पिता की गोद में बैठ गया। महाराज उत्तानपाद भी उसे प्रेम से अपनी गोद में बिठा कर हर्षित हुए। किन्तु ये सुरुचि को नहीं सुहाया। उसने ध्रुव को खींचकर अपने पिता की गोद से उतार दिया और उत्तम को उनकी गोद में डाल दिया।
ध्रुव तो बालक था, ईर्ष्या भाव क्या समझता। वो अपने पिता और विमाता की ओर देखने लगा। तब सुरुचि ने उससे कहा - "पुत्र! महाराज की गोद और इस सिंहासन पर उसी का अधिकार है जो मेरे गर्भ से जन्मा है। यदि तुझे गोद में ही बैठना है तो जा ईश्वर के गोद में बैठ।" ये सुनकर बालक ध्रुव रोता हुआ वहाँ से चला गया। महाराज उत्तानपाद इससे बहुत दुखी हुए किन्तु अपनी पत्नी के प्रेम के कारण उन्होंने उस समय कुछ नहीं कहा।
उधर ध्रुव रोता हुआ अपनी माँ सुनीति के पास पहुँचा और उनसे सब बात कही। सुनीति पहले ही उत्तानपाद द्वारा उपेक्षित होने के कारण दुखी थी, जब ये सुना तो अत्यंत क्लांत हो गयी। किन्तु वो एक धैर्यवान स्त्री थी। उन्होंने ध्रुव से कहा - "हे पुत्र! तेरे पिता हम लोगों से दूर हो गए हैं। किन्तु तुम्हारी माता ने तुम्हे सही उपदेश दिया है। अब हमें ईश्वर का ही सहारा है इसीलिए पुत्र, तू भगवान की तपस्या कर और स्वयं उनकी गोद में स्थान प्राप्त कर।"
अपनी माता की आज्ञा प्राप्त कर ध्रुव केवल ५ वर्ष की आयु में घर छोड़ वन की ओर निकल पड़ा। जब उत्तानपाद ने ये सुना तो अपने पुत्र की याद में विह्वल हो गए और पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे। सुरुचि को भी अपनी भूल का भान हुआ। उसने ऐसा नहीं सोचा था कि उनके कटु शब्द सुनकर ध्रुव वास्तव में घर छोड़ देगा। किन्तु अब पछताने से क्या होता। उत्तानपाद ने ध्रुव की खोज के लिए अपने सैनिकों को चारों दिशाओं में भेज दिया।
उसी समय देवर्षि नारद उत्तानपाद के पास पहुँचे। महाराज ने अपने तात देवर्षि नारद का स्वागत किया और फिर उनसे सब बातें कही। देवर्षि ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि वो चिंता ना करें। ध्रुव श्रीहरि का अनन्य भक्त बनेंगे और स्वयं वे उसे ऐसी प्रेरणा देंगे। देवर्षि के वचन सुनकर उत्तानपाद को कुछ संतोष हुआ।
उधर ध्रुव वन तो पहुँच गया किन्तु उसे समझ में नहीं आया कि भगवान को प्राप्त करने का मार्ग क्या है। इसी चिंता में वो एक पाषाण पर बैठ कर रोने लगा। तभी देवर्षि नारद वहाँ पहुँचे और ध्रुव से उसके रोने का कारण पूछा। तब ध्रुव ने कहा - "पितामह! मुझे ईश्वर की गोद में बैठना है किन्तु मुझे उसका मार्ग नहीं पता।" देवर्षि तो सब जानते ही थे, ये सुनकर उन्होंने ध्रुव को "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" ये अमोघ मन्त्र दिया और कहा इसी के सहारे तुम अवश्य ईश्वर को प्राप्त करोगे।
अब तो ध्रुव को किसी और चीज का ध्यान नहीं रहा। उसने निरंतर "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" इस मन्त्र का जाप करना आरम्भ कर दिया। श्रीहरि के दर्शनों की इच्छा में वो खाना-पीना सब भूल गया। उसने केवल वायु पर रह कर एक पैर पर खड़े रह कर तपस्या आरम्भ की और फिर वायु का भी त्याग कर दिया। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि जैसी कठोर तपस्या ना कर सकते थे, उससे भी घोर तपस्या एक ५ वर्ष के बालक को करते देख स्वयं देवता तक द्रवित हो गए। उन्होंने स्वयं श्रीहरि से प्रार्थना की कि वे ध्रुव को दर्शन दें।
भगवान श्रीहरि केवल भावना के भूखे हैं। उनका जो भक्त सच्चे ह्रदय से उन्हें पुकारता है तो वे चले आते हैं। फिर तो उस नन्हे ध्रुव ने ६ मास तक ऐसी कठोर साधना की जिसका कोई अन्य उदाहरण नहीं दिया जा सकता। जब श्रीहरि ने देखा कि ध्रुव के मन में उनके अतिरिक्त और कोई भावना बची ही नहीं है, तब अंततः उन्होंने ध्रुव को दर्शन दिए। तपस्या करते हुए अचानक ध्रुव के ह्रदय से श्रीहरि का लोप हो गया। ये जानकर जब ध्रुव ने घबरा कर अपने नेत्र खोले तो उसे सामने स्वयं श्रीहरि दिखे।
उनका दिव्य रूप देख कर ध्रुव सुध-बुध खो बैठा और निरंतर उनकी ओर देखने लगा। उसकी वाणी अवरुद्ध हो गयी और नेत्रों से निरंतर अश्रुधारा बहने लगी। तब श्रीहरि ने स्वयं आगे बढ़ कर ध्रुव को अपने गोद में उठा लिया। ध्रुव की कामना पूर्ण हुई। बड़े-बड़े सिद्ध मुनि भी जिन श्रीहरि के दर्शन अनंत जन्मों में भी प्राप्त नहीं कर सकते, ध्रुव उनकी गोद में बैठा था। तब श्रीहरि ने अपने शंख से ध्रुव को कंठ को छुआ जिससे उसकी अवरुद्ध वाणी ठीक हो गयी और उसने १२ पवित्र श्लोकों से श्रीहरि की स्तुति की। उस स्तुति को "ध्रुव-स्तुति" के नाम से जाना गया।
श्रीहरि ने उससे वरदान मांगने को कहा तो ध्रुव ने कहा कि अब उसकी कोई और इच्छा नहीं है। तब श्रीहरि ने कहा कि जिस मन्त्र का ध्रुव ने जाप किया है आज से वही मन्त्र उनके सानिध्य का सबसे सरल मार्ग होगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने ध्रुव को अपने समीप एक लोक भी प्रदान किया जिसका प्रलय में भी नाश नहीं होता। ध्रुव के नाम पर ही उस लोक का नाम "ध्रुवलोक" पड़ा।
जब ध्रुव वापस लौटा तो उत्तानपाद और दोनों रानियों की प्रसन्नता का कोई ठिकाना ना रहा। उन्होंने ध्रुव को राजा बनाया और स्वयं सुनीति और सुरुचि के साथ वानप्रस्थ को चले गए। ध्रुव केवल ६ वर्ष की आयु में ही सम्राट बना और सहस्त्रों वर्षों तक धर्म पूर्वक राज्य किया। जब ध्रुव ने निर्वाण लेना का निर्णय किया तो स्वयं विष्णुलोक से एक विमान उन्हें लेने आया। इसके बाद वो इस लोक को त्याग कर वैकुण्ठ के निकट अटल ध्रुवलोक में चले गए। वही लोक आज भी "ध्रुव तारे" के रूप में स्थित है।
ध्रुव के बाद उनके पुत्र उत्कल राजा बनें किन्तु वे भी अपने पिता की भांति वैरागी पुरुष थे। इसी कारण उन्होंने राज्य का त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया। तब उनके छोटे भाई और ध्रुव के छोटे पुत्र वत्सर सम्राट बनें। उनके वंश का अनंत विस्तार हुआ। उन्ही के वंश में आगे चलकर "वेन" नामक अत्यंत अधर्मी राजा भी जन्में जो ऋषि श्राप के कारण मारे गए। उनकी कोई संतान ना थी इसीलिए उनके दाहिनी भुजा को मथ कर "पृथु" नामक एक पुत्र प्राप्त किया गया जो भगवान श्रीहरि के अनन्य भक्त बनें। पृथु ने १०० अश्वमेघ यज्ञ किये और श्रीहरि की कृपा से उन्हें १००० कर्णों की प्राप्ति हुई ताकि वे उनका भजन सुन सकें। जय श्रीहरि।
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