कहा जाता है कि ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ वैसे ही सुशोभित होते हैं जैसे ग्रहों के बीच में सूर्यनारायण। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में हिमालय के "केदार" नामक चोटी पर बसे ये स्थान इतना मनोरम है कि यही बस जाने को जी चाहता है। किन्तु ये स्थान मनोरम होने के साथ-साथ दुर्गम भी है। इस ज्योतिर्लिंग का महत्त्व इसी लिए भी अधिक है क्यूंकि ये ज्योतिर्लिंग होने के साथ-साथ चार धामों में से भी एक है। साथ ही साथ ये पञ्च-केदार में से भी एक है। बद्रीनाथ धाम के निकट इस धाम पर आपको हरि (बद्री) और हर (केदार) का अनोखा सानिध्य देखने को मिलता है। कहा गया है:
अकृत्वा दर्शनं वैश्वय केदारस्याघनाशिन:।
यो गच्छेद् बदरीं तस्य यात्रा निष्फलतां व्रजेत्।।
अर्थात जो भी व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन के बिना बदीनाथ के दर्शन को आता है उसे उस दर्शन का फल प्राप्त नहीं होता, अर्थात उसकी बद्रीनाथ यात्रा व्यर्थ हो जाती है।
ये मंदिर समुद्र तल से करीब ११७५० फ़ीट ऊपर स्थित है। ये मंदिर वास्तव में कितना पुराना है इसका कोई आधिकारिक प्रमाण तो नहीं है किन्तु भारत की प्रसिद्ध केदारनाथ यात्रा पिछले १००० से भी अधिक वर्षों से निरंतर चल रही है। २०१३ में उत्तराखंड में आये विनाशकारी बाढ़ और भूस्खलन से केदारनाथ मंदिर सबसे अधिक प्रभावित हुआ जिसमे इसके मुख्य द्वार को बड़ी क्षति पहुँची किन्तु मूल शिवलिंग को कोई नुकसान नहीं हुआ। केदारनाथ के मूल मंदिर का निर्माण अर्जुन के पड़पोते, अभिमन्यु के पौत्र एवं परीक्षित और माद्रवती के पुत्र जन्मेजय ने करवाया था। उसके बाद इसका जीर्णोद्धार आठवीं शताब्दी में आदि-शंकराचार्य द्वारा करवाया गया।
ग्वालियर के भोज राजा के स्तुति पत्र से ये पता चलता है कि आधुनिक मंदिर उनके द्वारा १०८० से १०९० ईस्वी के बीच बनवाया गया था। इस मंदिर के मुख्य द्वार पर नंदी की एक विशाल प्रतिमा है। इस मंदिर के पुजारी केवल मैसूर के जँगम ब्राह्मण ही होते हैं। प्राकृतिक प्रतिकूलताओं के कारण इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन अप्रैल से नवम्बर के बीच होते हैं। मंदिर प्रतिदिन प्रातः ०६:०० बजे खुलता है। दोपहर तीन बजे इसमें एक विशेष पूजा होती है जिसके बाद इसे विश्राम के लिए बंद कर दिया जाता है। शाम के ०५:०० बजे इसे फिर से खोला जाता है और ०७:३० बजे पञ्चमुख शिव की आरती के बाद ०८:३० बजे इसे बंद कर दिया जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु को महादेव की तपस्या करने की इच्छा हुई इसी कारण उन्होंने नर एवं नारायण अवतार लेकर इसी जगह भगवान शिव की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें दर्शन दिए और उनसे वरदान मांगने को कहा। तब उन्होंने कहा कि द्वापर युग में वे दोनों कृष्ण-अर्जुन केरूप में अवतार लेंगे। उस समय वे अपनी कृपा उनपर बनाये रखें। साथ ही साथ उन्होंने भगवान शिव से उसी जगह पर स्थित रहने की प्रार्थना की जिसे स्वीकार कर महदेव उस स्थान पर केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।
जब देवी पार्वती महादेव की तपस्या कर रही थी तो वे अत्यंत थक गयी और जीर्ण अवस्था में स्नान के लिए वहाँ एक कुंड में पहुँची। किन्तु उस कुण्ड का पानी अत्यंत ठंडा था, तब भगवान शिव की कृपा से उस कुंड का पानी गर्म हो गया और देवी पार्वती ने उस कुंड में स्नान किया। वो कुंड आज गौरी कुंड के नाम से जाना जाता है और इतने ठन्डे मौसम में भी उस कुंड का पानी आश्चर्यजनक रूप से हल्का गर्म रहता है।
स्कंदपुराण की एक कथा के अनुसार एक बड़ा क्रूर एवं हिंसक बहेलिया था जो घुमते हुए केदार क्षेत्र में आ गया। यहाँ उसे देवर्षि नारद दिखे जिन्हे वो बहेलिया मारने को उद्धत हुआ। तब देवर्षि ने उसे उस क्षेत्र एवं भगवान शिव की महिमा बताई और कहा कि इस क्षेत्र में जिसकी भी मृत्यु होती है वो अवश्य ही शिवलोक में जाता है। देवर्षि नारद के सत्संग से वो बहेलिया उनके चरणों में गिर पड़ा और फिर सदा के लिए केदार क्षेत्र में ही बस गया। भगवान शिव की कृपा से वो एक महान भक्त बना और अंततः शिवलोक को प्राप्त हुआ।
ये स्थान पञ्च केदार में से एक है। स्कंदपुराण में ही वर्णित एक अन्य कथा के अनुसार एक बार दैत्य हिरण्याक्ष (ये हिरण्यकशिपु का भाई हिरण्याक्ष नहीं है) ने इंद्र को उसके पद से च्युत कर दिया और उसके अत्याचार से पृथ्वी त्राहि-त्राहि कर उठी। तब इंद्र ने महादेव से अनुरोध किया कि वे सृष्टि को हिरण्याक्ष के आतंक से मुक्त करवाएं।
तब इंद्र के अनुरोध पर भगवान शिव ने उनसे पूछा कि "के दरियामिः" अर्थात वो किस किस का नाश करें? तब इंद्र ने उन्हें हिरण्याक्ष सहित पाँच दैत्यों के नाम बताये। फिर महारुद्र एक महिष के रूप में उन पाँच स्थानों पर गए और हिरण्याक्ष सहित अन्य चार दैत्यों को जल में डुबा कर उनका नाश कर दिया। तब इंद्र ने उनकी स्तुति की और उनसे प्रार्थना की कि वे उसी स्थान पर स्थापित हो जाएँ। तब महादेव पञ्च केदार के रूप में उन पाँच जगह स्थित हो गए जो महादेव द्वारा "के दरियामिः" वाक्य के उच्चारण के कारण वे सभी स्थान "के-दार" कहलाये।
महाभारत की कथा के अनुसार युद्ध के पश्चात पांडवों का मन व्याकुल हो गया और उनपर स्वजनों की हत्या का पाप भी चढ़ गया। तब श्रीकृष्ण एवं महर्षि वेदव्यास ने उन्हें बताया कि इस पाप से तो उन्हें केवल महादेव ही मुक्त कर सकते हैं। तब पांडव महादेव की खोज में काशी विश्वनाथ के दर्शनों को पहुँचे किन्तु भगवान शिव स्वजनों की हत्या के पाप से घिरे पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे इसी कारण वे हिमालय चले गए। तब पांडव उन्हें खोजते हुए हिमालय पर पहुँचे।
उन्हें वहाँ आता देख महादेव केदार पर्वत पर चले गए। धुन के पक्के पांडव उन्हें ढूंढते हुए केदार पहुंचे। तब महादेव ने एक महिष का रूप धरा और वहाँ उपस्थित भैसों के झुण्ड में छिप गए। तब भीम ने विशाल रूप धरा और दो चोटियों पर अपने पैर धर दिए और शेष पांडवों ने भैसों के झुण्ड को हाँकना शुरू कर दिया। शेष सभी तो भीम के पैरों के बीच से निकल गए किन्तु पैरों के बीच से निकलना महादेव का अपमान था, इसी कारण वे वही रुक गए।
तब पांडव महिषरूपी महादेव को पहचान गए। उनसे बचने के लिए महादेव वही भूमि में धंसने लगे और चार अन्य जगह से निकले। ये देख कर भीम ने महिषरूपी शिव का पिछला हिस्सा जो अभी भूमि में पूरी तरह से धँसा नहीं था उसे पकड़ लिया। लेकिन वो हिस्सा जमीन में धँसता रहा। तब भीम ने अपने बड़े भाई हनुमान से प्रार्थना की जिससे महाबली हनुमान का बल भी भीम में आ गया।
लेकिन भला महारुद्र की शक्ति से आगे कौन टिक सकता है? भगवान शिव के महिषरूपी स्वरुप का पिछला हिस्सा जमीन में धँसता रहा किन्तु धुन के पक्के भीम ने उसे छोड़ा नहीं और उसके साथ-साथ जमीन में धंसने लगे। तब भीम सहित सभी पांडवों ने क्रंदन कर महादेव की प्रार्थना शुरू कर दी। उनकी ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति देख कर अंततः महादेव ने उन्हें दर्शन दिया और उन्हें स्वजनों की हत्या के पाप से मुक्त कर दिया और महिष के पिछले भाग के रूप में केदारनाथ में ही रुक गए। जिन पाँच स्थानों पर महिष के भाग निकले वे पञ्चकेदार कहलाये। वे हैं:
- केदारनाथ प्रमुख तीर्थ में महिष की पीठ के रूप में।
- मध्य महेश्वर में उसकी नाभि के यप में।
- तुंगनाथ में उसकी भुजाएँ और हृदय के रूप में।
- रुद्रनाथ में मुख के रूप में (नेपाल का पशुपतिनाथ)।
- कल्पेश्वर में जटाओं के रूप में।
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