"चिताभूमि पर स्थापित बैद्यनाथ ही वास्तविक ज्योतिर्लिंग है।" ये कथन शिवपुराण में लिखा है और इसका वर्णन मैं इसी कारण कर रहा हूँ कि महाराष्ट्र में स्थित परली बैद्यनाथ और हिमाचल में स्थित बैद्यनाथ को वहाँ के स्थानीय लोग असली ज्योतिर्लिंग मानते हैं किन्तु चिताभूमि (देवघर) में स्थिति बाबा बैद्यनाथ को ही वास्तविक ज्योतिर्लिंग के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस स्थान को चिताभूमि इसी कारण कहा जाता है क्यूंकि ये एक शक्तिपीठ भी माना जाता है जहाँ माता सती का ह्रदय गिरा था। इसी कारण इसे हृदयपीठ भी कहा जाता है।
कहते हैं कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन से सभी कामनाएं पूर्ण होती है इसी कारण इसका एक नाम "कामना लिंग" भी है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के बाद महादेव का सानिध्य पाने सभी देवता इस स्थान में आकर रहने लगे इसी कारण इस स्थान का नाम देवघर पड़ा। ज्योतिर्लिंग होने के कारण छोटा होने पर भी ये स्थान झारखण्ड के सर्वाधिक प्रसिद्ध है। बैद्यनाथ जो पहले बिहार में था, सन २००० में झारखण्ड के अलग होने पर वहाँ चला गया। बिहार के राजकीय दस्तावेजों में भी इसे बिहार के लिए अपूर्तीय क्षति बताया गया। इस मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है।
आधुनिक काल में भी अकबर के दरबारी मानसिंह को इस स्थान से अत्यधिक लगाव था। उन्होंने यहाँ पानी का एक कुंड बनवाया जिसे आज मानसरोवर के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा देवघर गुप्त साम्राज्य की आखिरी राजधानी भी रह चुका है। वैसे तो भगवान शिव के सभी ज्योतिर्लिंगों में श्रावण के समय अत्यधिक भीड़ रहती है किन्तु देवघर के बाबा बैद्यनाथ का कोई मुकाबला नहीं।
२०१७ के आंकड़ों के अनुसार पिछले श्रावण में यहाँ प्रतिदिन तकरीबन १५०००० लोग बाबा के दर्शनों को आये और सोमवार को तो ये आँकड़ा कई गुणा बढ़ जाता है। वैसे तो देवघर मंदिर परिसर में कई छोटे बड़े मंदिर हैं लेकिन मुख्य रूप से दो मंदिर प्रसिद्ध है। एक भोलेनाथ का मंदिर जो परिसर के मध्य में है और दूसरा माता पार्वती (कई लोग इसे देवी सती का भी मंदिर मानते हैं) का मंदिर जो मुख्य मंदिर से थोड़ी ही दूर है। इन दोनों मंदिरों के शिखरों को एक कपडे से जोड़ा गया है जो शिव-पार्वती के गठबंधन को दर्शाता है।
इस शिवलिंग के बारे में एक पौराणिक कथा है जो लंकापति रावण से सम्बंधित है। सभी जानते हैं कि रावण ने कैलाश पर आक्रमण किया और भगवान शिव द्वारा परास्त होने के बाद उनका महान भक्त बना। उसके पश्चात एक दिन रावण के पिता विश्रवा ने उससे कहा कि अगर वो अजेय होना चाहता है तो महादेव को प्रसन्न कर उन्हें लंका में स्थित होने को कहे। ऐसा होने पर उसे पराजित करना असंभव हो जाएगा।
तब रावण ने कैलाश पर घोर तपस्या करनी आरम्भ कर दी। जब वर्षों तक तपस्या करने पर महादेव प्रसन्न नहीं हुए तब उसने अपना एक-एक सर काटकर आहुति देना आरम्भ कर दिया। ऐसा करते हुए उसने अपने ९ शीश काट दिया और जैसे ही वो अपना १०वां सर काटने को उद्धत हुआ, भगवान शिव ने प्रकट होकर उसे ऐसा करने से रोक दिया। भगवान ने उसे उसके कटे शीश फिर से प्रदान किये और उसे वरदान माँगने के को कहा तो रावण ने उनसे लंका चलने की प्रार्थना की।
इसपर महादेव ने कहा कि वे कैलाश छोड़ कर लंका नहीं जा सकते किन्तु फिर उन्होंने अपनी काया से एक शिवलिंग की उत्पत्ति की और रावण से कहा - "हे दशानन! ये शिवलिंग स्वयँ मेरा ही रूप है अतः तुम इसे ही लंका ले जाओ। इसके वहाँ रहते कोई भी तुम्हे परास्त नहीं कर सकेगा। लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि लंका ले जाते समय इसे कहीं बीच में ना रखना। यदि ऐसा हुआ तो ये वही स्थापित हो जाएगा।" तब रावण ने महादेव का धन्यवाद अदा किया और उस दिव्य शिवलिंग को लेकर लंका की ओर चला।
इसपर महादेव ने कहा कि वे कैलाश छोड़ कर लंका नहीं जा सकते किन्तु फिर उन्होंने अपनी काया से एक शिवलिंग की उत्पत्ति की और रावण से कहा - "हे दशानन! ये शिवलिंग स्वयँ मेरा ही रूप है अतः तुम इसे ही लंका ले जाओ। इसके वहाँ रहते कोई भी तुम्हे परास्त नहीं कर सकेगा। लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि लंका ले जाते समय इसे कहीं बीच में ना रखना। यदि ऐसा हुआ तो ये वही स्थापित हो जाएगा।" तब रावण ने महादेव का धन्यवाद अदा किया और उस दिव्य शिवलिंग को लेकर लंका की ओर चला।
जब देवताओं ने ये देखा तो वे भगवान विष्णु के पास गए और उनसे प्रार्थना करते हुए कहा - "हे नारायण! ये भगवान रूद्र ने क्या कर दिया? इसी रावण के नाश के लिए तो आप श्रीराम के रूप में पृथ्वी पर अवतार लेने वाले हैं। अगर रावण इस शिवलिंग को लंका ले जाने में सफल हो गया तो ये अवध्य हो जाएगा और आपका अवतार लेना भी विफल हो जाएगा। अतः किसी भी प्रकार इसे इस शिवलिंग को लंका ले जाने से रोकिये।"
तब नारायण ने देवी गंगा का आह्वान किया और उनसे कहा कि वो रावण के उदर में समा जाएँ। रावण उस शिवलिंग को लेकर चिताभूमि पहुँचा ही था कि भगवान विष्णु की आज्ञानुसार देवी गंगा रावण के उदर में समा गयी। उनके प्रभाव से रावण को तीव्र लघुशंका लगी किन्तु शिवलिंग हाथ में लिए वो लघुशंका कैसे करे? तब लघुशंका के वेग से व्याकुल रावण इधर-उधर किसी को खोजने लगा जिसे वो शिवलिंग थमा सके।
उसी समय भगवान विष्णु एक चरवाहे के वेश में वहाँ पहुँचे। रावण ने जैसे उन्हें देखा उनके पास आकर बोला - "सुन चरवाहे! मैं इस समय लघुशंका के वेग से व्याकुल हूँ इसीलिए थोड़ी देर के लिए इस शिवलिंग को पकड़ कर रख। किन्तु ध्यान रखना कि इसे नीचे ना रखना। मैं तुरंत आता हूँ और इस कार्य के लिए मैं तुझे तेरे वजन के बराबर स्वर्ण पारितोषिक के रूप में दूंगा।" तब चरवाहे रुपी नारायण ने मुस्कुराते हुए कहा - "हे राजन! ठीक है मैं इसे पकड़ कर खड़ा रहता हूँ। किन्तु मैं केवल २ घडी तक इसे पकड़ सकता हूँ। अगर आप दो घडी में वापस नहीं आये तो मैं इसे नीचे रख दूंगा।"
रावण ने सोचा कि लघुशंका के लिए कितनी देर लगती है? इसी कारण उसने उनकी ये शर्त मान ली और शिवलिंग उस चरवाहे के हाथ में थमा दिया। जब रावण लघुशंका करने लगा तो उसका वेग इतना अधिक था कि उसमे बहुत समय लग गया और उससे एक पूरा कुंड भर गया। जैसे तैसे रावण जब वापस लौटा तो दो घडी बस बीतने ही वाली थी। तब नारायण ने उससे शिवलिंग वापस लेने को कहा किन्तु लघुशंका के बाद बिना आचमन के वो शिवलिंग को कैसे स्पर्श करता। उसने आस-पास देखा किन्तु उसे कही जल नहीं मिला। तब रावण ने बड़ी शक्ति से भूमि पर मुष्टिप्रहार किया जिससे वहाँ से जल निकल पड़ा और उसी जल से रावण ने आचमन और स्नान किया। यही जल शिवगंगा के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो आज भी मंदिर के निकट बहती है।
रावण ने सोचा कि लघुशंका के लिए कितनी देर लगती है? इसी कारण उसने उनकी ये शर्त मान ली और शिवलिंग उस चरवाहे के हाथ में थमा दिया। जब रावण लघुशंका करने लगा तो उसका वेग इतना अधिक था कि उसमे बहुत समय लग गया और उससे एक पूरा कुंड भर गया। जैसे तैसे रावण जब वापस लौटा तो दो घडी बस बीतने ही वाली थी। तब नारायण ने उससे शिवलिंग वापस लेने को कहा किन्तु लघुशंका के बाद बिना आचमन के वो शिवलिंग को कैसे स्पर्श करता। उसने आस-पास देखा किन्तु उसे कही जल नहीं मिला। तब रावण ने बड़ी शक्ति से भूमि पर मुष्टिप्रहार किया जिससे वहाँ से जल निकल पड़ा और उसी जल से रावण ने आचमन और स्नान किया। यही जल शिवगंगा के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो आज भी मंदिर के निकट बहती है।
जब तक रावण स्नान करता दो घडी पूर्ण हो गयी और चरवाहा रुपी भगवान विष्णु उस शिवलिंग को पृथ्वी पर रख कर अंतर्धान हो गए। जब रावण वापस आया तो उसे शिवलिंग जमीन पर पड़ा दिखा। उसने अपनी पूरी शक्ति लगायी किन्तु वो उसे हिला भी नहीं पाया। क्रोध में आकर उसने अपने अंगूठे से उस शिवलिंग को धरती में धँसा दिया और पश्चाताप करता हुआ वापस लंका लौट गया। बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग आज भी टेढ़ा होकर धरती में धँसा हुआ है और उसके ऊपर आपको अंगूठे के दवाब का निशान भी दिखता है।
रावण के जाते ही परमपिता ब्रह्मा और नारायण के नेतृत्व में समस्त देवता वहाँ पहुँचे और उस शिवलिंग की पूजा की। सभी देवताओं के वहाँ आने से उस स्थान का नाम देवघर पड़ा। स्वयं भगवान विष्णु ने उस ज्योतिर्लिंग की प्राण-प्रतिष्ठा की। रावण इस शिवलिंग को लंका नहीं ले जा पाया किन्तु वो प्रतिवर्ष लंका से वहाँ आकर उसकी पूजा करता था। भगवान विष्णु के अवतार परशुराम, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण द्वारा भी इस शिवलिंग की पूजा का वर्णन मिलता है। वानरराज बाली ने भी इस शिवलिंग का समुद्र के जल से अभिषेक किया था। हनुमान भी प्रतिवर्ष यहाँ पूजा करने के लिए आते थे। आज भी ये मान्यता है कि जब देवघर में रामकथा होती है तो हनुमान वहाँ इस शिवलिंग के दर्शनों को आते हैं। इस प्रकार देव-दानव-मानव द्वारा पूजित इस शिवलिंग की महिमा अपार है।
बाद में बैजनाथ नामक एक गरेड़िये ने इस शिवलिंग को देखा और उसकी पूजा करनी आरम्भ की। तभी से इस स्थान को बैद्यनाथ भी कहा जाने लगा और फिर इस शिवलिंग के लिए मंदिर की स्थापना हुई। ये मंदिर भी वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। जिस गर्भगृह में महारुद्र का मूल शिवलिंग स्थापित है वो बहुत छोटा है और इतने सारे लोगों के वहाँ रहने के कारण हवा का स्तर कम हो जाता है।
इसी कारण कुछ वर्ष पहले बिहार सरकार ने ये कोशिश की कि वहाँ एक छोटी सी खिड़की बना दी जाये ताकि वायु का आवागमन हो सके किन्तु इस मंदिर की शिल्पकारी इस प्रकार की गयी है कि अगर उस गर्भगृह से एक ईंट भी निकाली गयी तो पूरा मंदिर गिर सकता है। ये अपने आप में बहुत बड़ा आश्चर्य है। यही कारण है कि आज एक इतने बड़े-बड़े इंजीनियर भी उस गर्भगृह में एक छोटी से खिड़की भी नहीं बनवा सके हैं।
यहाँ पर जल चढाने के लिए बिहार के सुल्तानगंज से जल उठाने का प्रावधान है लेकिन आजकल लोग भागलपुर और आस-पास के इलाके से भी जल उठाने लगे हैं। फिर वहाँ से ११५ किलोमीटर पैदल चलकर देवघर पहुँचते हैं जो सामान्यतः ४-५ दिनों में पूरी होती है। यहाँ जल चढाने के लिए एक विशेष कावड़ियों का दस्ता भी होता है जिसे डाकबम कहते हैं।
डाकबम बनना बहुत ही कठिन है क्यूंकि एक बार चलने के बाद ये कहीं बीच में नहीं रुकते और २४ घंटों के अंदर जल चढ़ाते हैं। डाकबम के लोगों के लिए अलग से व्यवस्था की जाती है और उन्हें सामान्य कतारों में नहीं खड़ा होना पड़ता। बिहार की एक बुजुर्ग महिला बहुत प्रसिद्ध थी जो इतने बुढ़ापे में भी डाकबम बनकर जाती थी और २४ घंटे के अंदर शिवलिंग का अभिषेक करती थी। इन्हे लोग कृष्णा-बम के रूप में जानते थे।
देवघर से ६० किलोमीटर दूर दुमका जिले में बाबा बासुकीनाथ का मंदिर है और ऐसी मान्यता है कि बैद्यनाथ के बाद जब तक बासुकीनाथ शिवलिंग को जल नहीं चढ़ाया जाता तब तक बैद्यनाथ का पुण्य प्राप्त नहीं होता। इसी कारण देवघर में जल चढाने के बाद लोग दुमका बाबा बासुकीनाथ में जल चढाने जाते हैं। हालाँकि ये मान्यता आधिनुक काल में शुरू हुई है और पुराणों में इसका कोई वर्णन नहीं है।
देवघर से ६० किलोमीटर दूर दुमका जिले में बाबा बासुकीनाथ का मंदिर है और ऐसी मान्यता है कि बैद्यनाथ के बाद जब तक बासुकीनाथ शिवलिंग को जल नहीं चढ़ाया जाता तब तक बैद्यनाथ का पुण्य प्राप्त नहीं होता। इसी कारण देवघर में जल चढाने के बाद लोग दुमका बाबा बासुकीनाथ में जल चढाने जाते हैं। हालाँकि ये मान्यता आधिनुक काल में शुरू हुई है और पुराणों में इसका कोई वर्णन नहीं है।
इसके अतिरिक्त बैद्यनाथ के बाद सुल्तानगंज के अजगैबीधाम मंदिर में भी जल चढाने की प्रथा है। जब आप जल उठाने सुल्तानगंज पहुँचते हैं तो वहाँ के पंडित आपके पूरे वंश का वर्णन बता देंगे जो आपको आश्चर्य में डाल सकता है। साथ ही साथ ये भी कि किस वर्ष आपके परिवार से कौन-कौन बाबा के दर्शनों को आया था। उससे भी आश्चर्य ये है कि इस जानकारी को सहेजने के लिए उनके पास कोई कंप्यूटर नहीं होता है। वे पुराने ज़माने के बही-खाते में सभी कुछ सहेज कर रखते हैं। हालाँकि जब आप ये जानकर आश्चर्य में होते हैं तो वे आपसे अधिक पैसे ऐंठने का भी प्रयास करते हैं इसलिए अधिक पैसे देने से बचें। जय बाबा बैद्यनाथ।
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