आने वाले कुछ समय में हम त्रिदेवियों एवं अन्य देवताओं के अवतारों के विषय में कुछ लेख प्रकाशित करने वाले हैं। किन्तु उससे पहले हमने सोचा कि हमें ईश्वर के "अवतार" एवं "विस्तार" में अंतर पता होना अत्यंत आवश्यक है। विस्तार को ही "रूप" भी कहते हैं। आम तौर पर हम ईश्वर के रूप और अवतार को एक ही समझते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। इन दोनों में अंतर है और इसे पूरी तरह समझे बिना हम इनके बीच उलझ सकते हैं। तो आइये इसे समझते हैं।
हिन्दू धर्म में अधिकतर देवताओं के अपने रूप और अवतार होते हैं। कुछ देवी-देवताओं के सन्दर्भ में अवतार का वर्णन ही प्रमुखता से आता है। जैसे भगवान विष्णु के दशावतार, भगवान शंकर के १९ अवतार इत्यादि। किन्तु कुछ ऐसे हैं जिनके अवतारों से अधिक उनके रूप ही प्रसिद्ध हैं, जैसे माता आदिशक्ति या माता पार्वती।
तो इन दोनों में अंतर क्या है? ईश्वर द्वारा अपनी पूर्ण शक्तियों सहित कोई अन्य शरीर धारण करना ही "रूप" कहलता है। आप इसे एक प्रकार से ईश्वर का पर्याय अथवा विस्तार कह सकते हैं। ये उनके सर्वाधिक समकक्ष होते हैं एवं उनकी शक्तियां और सामर्थ्य भी उनके सबसे निकट होते है।
ईश्वर के रूप अथवा विस्तार की एक विशेषता ये है कि ईश्वर की भांति ये भी अनश्वर होते हैं। अर्थात इनकी मृत्यु नहीं होती। उदाहरण के लिए भगवान सदाशिव या शिव के ही एक रूप भगवान शंकर हैं। उसी प्रकार महाविष्णु के एक रूप नारायण अथवा विष्णु हैं। परमपिता ब्रह्मा का सर्वोच्च रूप महाब्रह्मा है जो गर्भोदक्षायी विष्णु की नाभि से प्रकट होते हैं।
ईश्वर के रूप को समझने का सबसे अच्छा उदाहरण माता आदिशक्ति के रूपों को समझना है, क्यूंकि उनके सन्दर्भ में विशेष तौर पर रूपों का वर्णन होता है, ना कि अवतार का। माता आदिशक्ति का सबसे प्रमुख रूप है माता सती/पार्वती का। इसके अतिरिक्त माता पार्वती के नौ मुख्य रूप, जिन्हे नवदुर्गा कहा जाता है, माता सती के १० मुख्य रूप जिन्हे महाविद्या कहा जाता है, अष्ट मातृकाएं, माँ दुर्गा, महाकाली, ५१ शक्तिपीठ इत्यादि उनके रूप हैं।
माता पार्वती की ही भांति माता लक्ष्मी का भी सर्वोच्च रूप महालक्ष्मी है। उनके भी भी ८ प्रमुख रूप हैं जिन्हे अष्टलक्ष्मी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त भी उनके और रूप हैं किन्तु अष्टलक्ष्मी की महत्ता सर्वाधिक है। माता पार्वती एवं माता लक्ष्मी की भांति ही माता सरस्वती का सर्वोच्च रूप महासरस्वती है जिनके अपने कई रूप हैं, जिनमें से ६ सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
अब आते हैं है अवतार पर। अवतार का अर्थ है अवतरित होना, अर्थात नीचे उतरना। यहाँ नीचे का अर्थ है मृत्युलोक अथवा पृथ्वी पर। अर्थात अवतार ईश्वर का वो रूप है जो किसी विशेष कार्य और सीमित समय के लिए पृथ्वी कर अवतरित होते हैं। यहाँ चार चीजें विशेष रूप से ध्यान देने वाली है:
- वे मृत्युलोक अथवा पृथ्वी पर जन्म लेते हैं: जैसे श्रीहरि के सभी १० अवतार पृथ्वी पर अवतरित हुए। उसी प्रकार महादेव के सभी अवतार भी पृथ्वी पर ही जन्में।
- वे अपने अंश अर्थात सीमित कलाओं अथवा शक्तियों के साथ अवतरित होते हैं: जैसे भगवान श्रीराम श्रीहरि की १२ एवं भगवान श्रीकृष्ण सभी १६ कलाओं के साथ अवतरित हुए थे। भगवान कल्कि श्रीहरि की ४ कलाओं के साथ अवतरित होंगे।
- वे किसी विशेष उद्देश्य से पृथ्वी पर जन्म लेते हैं: जैसे श्रीराम का उद्देश्य रावण का अंत एवं संसार में मर्यादा की प्रतिष्ठा करना और श्रीकृष्ण का उदेश्य दुष्टों का नाश एवं संसार में धर्म की स्थापना करना था।
- वे अनश्वर नहीं होते हैं: वे केवल एक सीमित समय के लिए ही पृथ्वी पर रहते हैं और अपने अवतरण का उद्देश्य पूर्ण होने के बाद अपनी लीला समाप्त कर पुनः अपने मूल स्वरुप में लौट जाते हैं।
संक्षेप में ये समझ सकते हैं कि "अवतार ईश्वर का वो रूप है जो किसी विशेष उद्देश्य से, सीमित समय के लिए पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।"
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है -
अजोSपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोSपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।
अर्थात: मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ।।
पृथ्वी को मृत्यु लोक इसलिए कहते हैं क्यूंकि जो कोई भी यहाँ जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। कोई भी पृथ्वी पर सदा के लिए नहीं रह सकता। उनका जीवन काल असामान्य रूप से अधिक अवश्य हो सकता है किन्तु वो चिरकाल तक नहीं हो सकता। कुछ अवतार हैं जो चिरंजीवी कहलाते हैं, जैसे कि भगवान परशुराम एवं पवनपुत्र हनुमान, किन्तु वे भी सदा के लिए पृथ्वी पर नहीं रहेंगे। कल्प के अंत के बाद वे भी अपनी लीला समाप्त करेंगे।
अवतार भी कई प्रकार के होते हैं जिसके बारे में हम विस्तार से किसी और लेख में चर्चा करेंगे। हालाँकि ईश्वर के रूप एवं अवतार का महत्त्व समान ही है किन्तु पृथ्वी पर अवतरित होने के कारण अवतार ईश्वर के रूपों से अधिक प्रचलित हैं। रूप हों अथवा अवतार, हमारे लिए तो वे समान रूप से पूजनीय हैं।
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