जो सृष्टि के आरम्भ से पूर्व भी था और सृष्टि के विनाश के बाद भी रहेगा वही काशी है। कहते हैं कि काशी का लोप कभी नहीं होता क्यूंकि ये नगरी स्वयं महादेव के त्रिशूल पर स्थित है। स्कन्द पुराण में शिव यमराज से कहते हैं - "हे धर्मराज! तुम प्राणियों के कर्मों के अनुसार उसकी मृत्यु का प्रावधान करो किन्तु ५ कोस में फैली इस काशी नगरी से दूर ही रहना क्यूंकि ये मुझे अत्यंत प्रिय है।" इस नगरी को स्वयं देवी गंगा का वरदान है कि जो कोई भी इस नगरी में आकर गंगास्नान कर काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है वो निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति केवल काशी में अपने प्राण भी त्यागता है तो वो सीधे स्वर्गलोक को जाता है।
वाराणसी, जिसे आजकल बनारस भी कहते हैं और जिसे पहले काशी के नाम से जाना जाता था ये नगरी और वहाँ उपस्थित महादेव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ कितना पुराना है इसका कोई आधिकारिक विवरण नहीं है। हालाँकि काशी का पिछले ३५०० वर्षों का तो लिखित इतिहास उपलब्ध है इसी से आप इस नगरी की प्राचीनता का अंदाजा लगा सकते हैं।
इसी नगर के बीच में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ का मंदिर है। कहा जाता है कि ये कोई स्वयंभू शिवलिंग नहीं है बल्कि साक्षात् भगवान शिव ही विश्वनाथ के रूप में यहाँ विराजमान हैं। इसकी महत्ता का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि प्राचीन समय से आज तक के शायद ही कोई ऐसे महान संत हो जो इसके दर्शनों को नहीं आये हो। भारत सरकार ने बहुत पहले ही इसे राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया है। इसके विषय में कई पौराणिक कथा प्रचलित है:
- जब सृष्टि में केवल शून्य था तो भगवान विष्णु का प्रादुर्भाव हुआ और उन्ही के नाभि कमल से पाँच मुख वाले ब्रह्मा जन्मे। तब उन दोनों में ये विवाद हो गया कि उनमे से श्रेष्ठ कौन है। तब उनके बीच एक अनंत अग्निलिंग प्रकट हुआ जिसका छोर ढूंढने के लिए विष्णु नीचे एवं ब्रह्मा ऊपर गए। १००० वर्षों तक निरंतर चलने के बाद भी दोनों को उस महान शिवलिंग का छोर नहीं मिला। तब वापस आकर ब्रह्मा ने असत्य कहा कि मैंने छोर ढूंढ लिया। इसपर अग्निलिंग रूप महादेव ने ब्रह्मदेव की भर्तस्ना की और विष्णु को श्रेष्ठ बताया। कहते हैं वो पहला ज्योतिर्लिंग ही काशी विश्वनाथ का ज्योतिर्लिंग हैं।
- तब भगवान शिव ने उन दोनों को तपस्या करने को कहा और स्वयं ५ कोस में फैली इस काशी नगरी का निर्माण किया। भगवान विष्णु के कठिन तप से उनके शरीर से जल बहने लगा जिससे वे नारायण कहलाये। उनके द्वारा उत्पन्न इस जल प्रलय से काशी नगरी डूबने लगी। तब भगवान शिव ने काशी को बचाने के लिए उसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया।
- उसके बाद परमपिता ब्रह्मा ने इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की एवं उसे १४ भुवनों में बॉंटा। तब जगत की उत्पत्ति देख कर महादेव ने काशी को अपने त्रिशूल से उतारकर पृथ्वी पर स्थापित कर दिया।
- ब्रह्माजी का एक दिन समाप्त होने पर प्रलय होता है और नारायण क्षीरसागर में निद्रामग्न हो जाते हैं और समस्त सृष्टि जलमग्न हो जाती है। उस समय भगवान शिव काशी को पुनः अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं जिससे इसका लोप नहीं होता।
- काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग किसी के द्वारा स्थापित या बनवाया हुआ नहीं है बल्कि ये मान्यता है कि यहाँ साक्षात् भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हैं।
- एक कथा के अनुसार देवी सती की मृत्यु के पश्चात शिवजी ने वैराग्य धारण कर लिया और जगत से लुप्त हो गए। बहुत काल के बाद जब वे पृथ्वी पर आये तो काशी उन्हें सर्वाधिक प्रिय हुई और वे यहीँ बस गए। उनके पीछे-पीछे उनके गण वहाँ आकर उत्पात मचाने लगे। तब वहाँ के राजा दिवोदास ने भगवान विष्णु से इस आपत्ति से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की जिसे सुनकर महादेव वापस कैलाश लौट गए। तब भगवान विष्णु ने दिवोदास को वनवास लेने की आज्ञा दी ताकि महादेव फिर वहाँ आ सकें।
- जब महादेव ने देवी पार्वती से विवाह किया तब देवी पार्वती ने कहा कि हमें कैलाश से कही और जाना चाहिए। तब महादेव देवी पार्वती के साथ काशी में विश्वनाथ के रूप में आकर विद्यमान हो गए। तो वास्तव में देखा जाये तो ये ज्योतिर्लिंग दो भागों में बँटा है - एक महादेव और दूसरा महादेवी।
- इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने दैत्यों के संहार के लिए भगवान शिव की १००० वर्षों तक तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें अपने तीसरे नेत्र से उत्पन्न १००० आरों वाला महान सुदर्शन चक्र प्रदान किया था जिससे नारायण ने समस्त असुरों का नाश किया।
- कहते हैं कि पतित पाविनी गंगा काशी में कुछ समय के लिए रुक जाती है ताकि वे काशी विश्वनाथ के दर्शन कर सकें। वैसे तो गंगास्नान सदैव फलदायी होता है किन्तु काशी में गंगास्नान कर बाबा काशी विश्वनाथ के दर्शन करने पर सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है। और तो और जो भी काशी में मृत्यु को प्राप्त होता है वो भी सीधा स्वर्ग जाता है।
- मृत्यु के देवता यम का अधिकार पूरी पृथ्वी पर है किन्तु काशी पर उनका वश नहीं चलता। यहाँ केवल और केवल महारुद्र का अधिकार माना जाता है। इसी कारण यमदूत काशी में प्रवेश नहीं करते और यहाँ लोगों की मृत्यु भगवान रूद्र की इच्छा पर होती है। साथ ही साथ यहाँ मरने वालों पर नर्क का भी कोई अधिकार नहीं होता।
- महर्षि अगस्त्य, महर्षि वशिष्ठ एवं राजर्षि विश्वामित्र ने काशी विश्वनाथ में ही घोर तपस्या कर सिद्धि प्राप्त की थी। इनके अतिरिक्त भी अनेकानेक ऋषिओं ने यहीं तपस्या कर महर्षि पद प्राप्त किया। आधुनिक काल में इस मंदिर का दर्शन करने वालों में आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वांमी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, गोस्वारमी तुलसीदास जैसे बड़े महापुरुष रहे।
- श्रीकृष्ण ने काशी के ब्राह्मणों के विरुद्ध अभियान चलाया और ये निर्णय लिया कि वे काशी का सम्पूर्ण विनाश कर देंगे। इसके लिए उन्होंने अपने सुदर्शन अस्त्र का प्रयोग किया किन्तु भगवान विश्वनाथ के कारण वे काशी का विनाश नहीं कर सके। बाद में उन्होंने पांडवों सहित काशी विश्वनाथ का विधिवत पूजन किया।
- पौराणिक मान्यता है कि काशी में लगभग ५११ शिवालय प्रतिष्ठित थे। इनमें से १२ स्वयंभू शिवलिंग, ४६ देवताओं द्वारा, ४७ ऋषियों द्वारा, ७ ग्रहों द्वारा, ४० गणों द्वारा तथा २९४ अन्य श्रेष्ठ शिवभक्तों द्वारा स्थापित किए गए हैं।
- भारत के अन्य मंदिरों की तरह मुगलों ने इसे भी तोड़ने की पूरी कोशिश की किन्तु इसे विनष्ट नहीं कर पाए। मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने तो प्राचीन मंदिर को तोड़ कर वहाँ एक मस्जिद भी बना दिया जो आज भी वहाँ स्थित है। किन्तु वो मूल शिवलिंग को कोई नुकसान नहीं पहुँचा सका और शवलिंग वही एक पास के कुँए से पुनः प्राप्त हुआ।
- फिर महान शिव भक्तिनी अहल्याबाई होल्कर ने सन १७७६ में नवीन मंदिर का कार्य आरम्भ किया जो १७८० में जाकर पूर्ण हुआ। इस निर्माण कार्य में उस समय ३ लाख रूपये की लगत आयी। इसकी वास्तुकला इतनी अद्भुत है कि वैज्ञानिक भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं।
- इसके बाद सन १८५३ में पंजाब के महाराजा श्री रणजीतसिंह ने इस मंदिर के शिखर को स्वर्ण से मढ़ने के लिए १००० किलो स्वर्ण का दान दिया जिस कारण इसे स्वर्ण मंदिर भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त नेपाल के राजा ने इस मंदिर के लिए एक घंटा दान में दिया जो आज भी आकर्षण का केंद्र है।
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