जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हिन्दू धर्म में कुल चौरासी लाख योनियों का वर्णन है। अर्थात किसी प्राणी की आत्मा इन में से किसी भी योनि में जन्म ले सकती है। वो किस योनि में जन्म लेगी और किसमें नहीं, ये उस प्राणी के पूर्व जन्में में किये गए कर्मों के आधार पर निश्चित होता है। इन सभी योनियों में मनुष्य योनि सर्वोत्तम मानी गयी है। तो आइये जानते हैं कि हम मनुष्य योनि में कब और क्यों जन्म लेते हैं।
किन्तु इससे पहले हम मनुष्य योनि पर आएं, ये जान लेना आवश्यक है कि मनुष्य योनि ना पहली है और ना ही अंतिम। किन्तु ये अवश्य है कि मनुष्य की योनि हमें कई जन्मों के पुण्य कर्मों के संचित प्रभाव से ही मिलती है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद भी हमारे पाप कर्म हमें पुनः अधम योनि में धकेल सकते हैं।
महाभारत अनुशासन पर्व में विस्तार पूर्वक मनुष्य के कर्मों के आधार पर नियत की गयी योनियों के बारे में बताया गया है। उस संवाद में महर्षि व्यास ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मनुष्य की योनि सर्वोत्तम है और ये हमें बहुत कठिनाइयों से मिलती है। इसलिए हमें सदैव ये ध्यान रखना चाहिए कि हम पहले ही सर्वोत्तम योनि में है और हमें उससे भी उत्तम कर्म करने चाहिए।
वास्तव में प्राणी मनुष्य योनि में जन्म क्यों लेता है?
इसके मुख्यतः दो कारण हैं:
- प्रारब्ध का भोग: प्रारब्ध का अर्थ होता है देव अथवा भाग्य। जैसा कि पहले बताया गया है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के संचित कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न योनियों में जाता है। मनुष्य योनि में वो अपने पुण्य कर्मों के कारण आता है। वास्तव में जब प्राणी अपने प्रारब्ध के फल को भोगते हुए उस सीमा पर पहुँच जाता है जब वो एक जीवन में मोक्ष को प्राप्त कर सकता हो, तब वो अंततः मनुष्य योनि पाता है। मनुष्य योनि और अन्य योनियों में जो मुख्य अंतर है वो है चेतना का। हममे प्रबल चेतना होती है जो पशु या अन्य योनि में नहीं होती। मनुष्य अपनी चेतना का उपयोग कर अपने प्रारब्ध को बदल भी सकता है। हालाँकि हमें ये भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण जो हमारा प्रारब्ध है वो तो है हीं, किन्तु हमारे इस जन्म के कर्म भी ये निर्धारित करते हैं कि हम शरीर का त्याग कर मुक्त होंगे अथवा पुनः अधम योनि में गिरेंगे।
- मोक्ष प्राप्ति का प्रयास: मनुष्य योनि में जन्म लेने का मुख्य उद्देश्य है अपनी चेतना का पूर्ण उपयोग कर मोक्ष को पाना। ऐसा नहीं है कि मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही रह कर पाया जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब पशु योनि से भी सीधे प्राणियों ने मोक्ष को प्राप्त किया है। किन्तु मनुष्य बनकर मोक्ष पाना जितना सरल है उतना किसी और योनि के प्राणी के रूप में नहीं है। इसका सबसे सरल उपाय है भौतिक सुविधाओं का त्याग कर भगवत भक्ति द्वारा मोक्ष को प्राप्त करना। हालाँकि मनुष्य योनि में जन्म लेने का अर्थ निश्चित मोक्ष प्राप्त करना नहीं है। वास्तव में जितने लोग भी मनुष्य योनि में जन्म लेते हाँ उनमें से विरले ही मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु फिर भी मनुष्य योनि से मोक्ष की ओर जाना अन्य योनियों से सहज है।
मनुष्य योनि में रहते हुए यदि हमने वास्तव में ईश्वर को प्राप्त कर लिया तब तो मोक्ष मिल सकता है किन्तु यदि ऐसा नहीं हुआ तो हमें उसके लिए फिर से प्रयास करने हेतु पुनः जन्म लेना पड़ता है। अब यदि इस जन्म में हमने अच्छे कर्म किये हैं तो अगला जन्म भी हमें मनुष्य योनि में ही मिलेगा। किन्तु यदि हमने पाप कर्म अधिक किये हैं तो हम पुनः अधम योनि में गिर जायेंगे जहाँ से हमें पहले पुनः मनुष्य योनि तक पहुँचने का प्रयास करने पड़ेगा। जीवन मरण का ये चक्र निरंतर चलता रहता है। जब हम उतना पुण्य कर्म संचित कर लेते हैं कि हमें मोक्ष प्राप्त हो जाये, तब ही हम उस जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो पाते हैं।
हम अच्छे कर्म कर रहे हैं या बुरे, इसका पता कैसे चलता है?
वास्तव में हमारे सभी कर्मों के कुल चौदह साक्षी होते हैं। ये हैं - सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म। इनमें से सूर्य रात्रि में और चन्द्रमा दिन में नहीं रहते। अग्नि भी सदैव नहीं रहती। उसी प्रकार रात, दिन एवं संध्या भी हर समय नहीं रहती। तो इन १४ साक्षियों में ६ हर समय उपस्थित नहीं रहते तो उनसे हमारे कुछ कर्म छूट सकते हैं।
किन्तु बांकी ८ - आकाश, वायु, इन्द्रियां, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म, ये हर समय उपस्थित रहते हैं जिनसे कुछ भी छूटना। इसीलिए प्राणियों को कभी भी पाप कर्म करते समय ये नहीं समझना चाहिए कि उस समय उन्हें कोई भी नहीं देख रहा। वास्तव में इन ८ साक्षियों से हमारे कोई कर्म बच ही नहीं सकते।
मृत्यु के पश्चात आत्मा की गति किस प्रकार निर्धारित होती है?
मृत्यु के पश्चात प्राणी की मुख्यतः दो गतियां बताई गयी हैं:
- अगति: इस गति में मनुष्य को मोक्ष नहीं मिलता और उसे पुनः जन्म लेना पड़ता है। अगति मुख्यतः चार प्रकार की होती है:
- क्षिणोदर्क: इसमें जीव पुण्यात्मा बनकर पुनः मृत्युलोक में आता है और भगवत्भजन में अपना जीवन बिताता है।
- भूमोदर्क: इसमें जीव सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन प्राप्त करता है।
- अगति: इसमें जीव मनुष्य योनि से नीचे, अर्थात अधम योनि (पशु इत्यादि) में चला जाता है।
- दुर्गति: इसमें प्राणी सबसे निष्कृष्ट योनि (कीड़े-मकौड़े) प्राप्त करता है।
- गति: इसमें जीव को अपने कर्मों के अनुसार किसी एक लोक में जाना होता है। ये लोक भी चार हैं:
- ब्रह्मलोक: ये सर्वोत्तम लोक है जहाँ केवल सिद्ध व्यक्ति, जिन्होंने सच्चे मन से भगवान का ध्यान किया हो, वही जा सकते हैं। ये सर्वोच्च लोक है जो मोक्ष के सबसे निकट है।
- देवलोक: यहाँ सच्चरित्र एवं पुण्य कर्म करने वाले व्यक्ति जाते हैं। उन्हें देवताओं का सानिध्य प्राप्त होता है। इसे ही स्वर्ग लोग भी कहा जाता है।
- पितृलोक: सामान्य व्यक्ति, जिनका पुण्य कर्म उनके पाप कर्म से अधिक है, अपने पित्तरों के पास इस लोक में जाते हैं।
- नर्कलोक: पाप कर्म करने वाले व्यक्ति को सबसे निष्कृष्ट नर्क लोक प्राप्त होता है जहाँ उन्हें अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं।
- इन चार लोकों में जाने के लिए तीन मार्ग होते हैं:
- अर्चि मार्ग: ब्रह्मलोक एवं देवलोक जाने के लिए।
- धूम मार्ग: पितृलोक जाने के लिए। ऐसी मान्यता है कि सूर्य की असंख्य किरणों में "अमा" नाम की एक किरण होती है जिसके माध्यम से प्राणी पितृलोक जाते हैं और पित्तर पृथ्वीलोक आते हैं।
- उत्पत्ति विनाश मार्ग: नर्कलोक जाने के लिए।
तो हम सभी को ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए कि हमनें मनुष्य योनि में जन्म लिया है। इस सर्वश्रेष्ठ योनि का लाभ उठाते हुए हमें भी मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। जय ब्रह्मदेव।
चित्रों के लिए आभार: Spiritual Science Research Foundation
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।