परमपिता ब्रह्मा से सर्वप्रथम सात महान ऋषियों ने जन्म लिया जिन्होंने सप्तर्षि और प्रजापति का पद ग्रहण किया। इन्ही में से एक थे महर्षि मरीचि। उनकी पत्नी कला से उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुए महर्षि कश्यप। महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया और उन्ही की संतानों से समस्त जातियों की उत्पत्ति हुई। इनकी ज्येष्ठ पत्नी अदिति से आदित्य और दूसरी पत्नी दिति से दैत्यों का जन्म हुआ।
दैत्य कई थे जिनकी देवों से शत्रुता चलती रहती थी। किन्तु समुद्र मंथन के पश्चात हुए प्रथम देवासुर संग्राम देवों के हाथों से सभी दैत्य मृत्यु को प्राप्त हुए। दिति इससे अत्यंत क्षुब्द हुई। पहले उसे देवों से कोई बैर नहीं था किन्तु इस घटना के बाद उनके विनाश को सोच कर उसने और पुत्र उत्पन्न करने का निश्चय किया। वो ऋतुस्नान कर अपने पति महर्षि कश्यप के पास गयी और उनसे अपनी इच्छा कही।
महर्षि कश्यप अपनी पत्नी दिति का दुःख समझते थे किन्तु जिस समय दिति उनके पास गयी वो समय शुभ नहीं था। उन्होंने ये बात दिति को बताई और कहा कि यदि इस समय तुमने गर्भ धारण किया तो तुम्हारे होने वाले पुत्र अधर्मी निकलेंगे। दिति यही तो चाहती थी इसी कारण वे अपनी जिद पर अड़ी रही।
विवश होकर महर्षि कश्यप ने उस अशुभ काल में ही दिति के साथ समागम किया जिससे उसके ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हिरण्यकशिपु का जन्म हुआ। तत्पश्चात दिति को एक और पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम उन्होंने हिरण्याक्ष रखा। उनकी एक पुत्री भी हुई जो होलिका के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार दैत्य जाति के पहले वंश का आरम्भ हुआ।
जन्म से ही दिति नेउनके मन में देवों के विरुद्ध द्वेष भर दिया और इसी कारण बाल्यकाल से ही हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष देवताओं के घोर विरोधी बन गए। हिरण्याक्ष में असाधारण बल था, और उसपर उसने परमपिता ब्रह्मा की तपस्या कर अनेकों वरदान प्राप्त किये। इस प्रकार सबके द्वारा अवध्य बन उसने पृथ्वी से स्वर्ग तक अपने भाई का राज्य फैला दिया। अपने छोटे भाई के बाहुबल को पाकर हिरण्यकशिपु उस विशाल राज्य पर शासन करने लगा।
समय आने पर उसका विवाह जम्भ नामक दानव की कन्या कयाधु से हुआ। वो महान विष्णु भक्त थी। एक कथा के अनुसार एक बार हिरण्यकशिपु वन में तपस्या करने को गया। वहां उसकी तपस्या भंग करने के लिए देवगुरु बृहस्पति ने तोते का रूप लेकर नारायण-नारायण का उच्चारण किया। इससे हिरण्यकशिपु की तपस्या भंग हो गयी और वो वापस अपने महल आ गया।
जब कयाधु ने उससे पूछा कि वो इतनी जल्दी कैसे आ गए तब उसने बताया कि किसी ने नारायण-नारायण कह कर मेरा तप निष्फल कर दिया। कयाधु ये सुन कर आश्चर्य में पड़ गयी कि भगवान विष्णु के घोर विरोधी उसके पति के मुख से अनजाने में ही दो बार "नारायण" शब्द निकल गए। उसने सोचा कि यदि मैं इनसे १०८ बार श्रीहरि का नाम बुलवा लूँ तो इनका उद्धार हो जाएगा।
ये सोचकर वो बार बार उससे पूछने लगी कि उनका तप क्या सुन कर टुटा और हिरण्यकशिपु बार बार नारायण-नारायण बोलने लगा। इस प्रकार उसने उस रात्रि १०८ बार नारायण शब्द का उच्चारण किया। उसी रात्रि को कयाधु ने गर्भ धारण किया और श्रीहरि की कृपा से प्रह्लाद उनके गर्भ में आये। थोड़े दिनों के बाद हिरण्यकशिपु पुनः तप करने वन को चला गया।
उसकी अनुपस्थिति में इंद्र के नेतृत्व में देवताओं ने उसके राज्य पर आक्रमण किया और ये जान कर कि हिरण्यकशिपु का तेज कयाधु के गर्भ में है, इंद्र उसका अपहरण कर उसे अपने साथ ले जाने लगे। किन्तु मार्ग में देवर्षि नारद ने उसे इंद्र से मुक्त करवाया और इंद्र को बताया कि इसके गर्भ में श्रीहरि का बहुत बड़ा भक्त है।
इंद्र कयाधु को छोड़ कर चले गए और प्रसव तक कयाधु देवर्षि के पास ही रही। देवर्षि रोज उन्हें श्रीहरि की कथाएं सुनाते थे जिसे प्रह्लाद ने गर्भ में ही ग्रहण कर लिया और समय आने पर उसी उत्तम संस्कार के साथ उसका जन्म हुआ। इसके विषय में विस्तृत लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
प्रह्लाद के बाद हिरण्यकशिपु के कयाधु से चार पुत्र और एक पुत्री और हुए। चार पुत्रों के नाम थे - संह्लाद, अनुह्लाद, शिवि और वाष्कल और पुत्री का नाम था सिंहिका। ये पांचों में सभी संस्कार अपने पिता की ही भांति आये और ये लोग भी देवताओं से द्वेष करने लगे किन्तु प्रह्लाद संसार का सबसे बड़ा विष्णुभक्त बन गया।
उधर नारायण ने वाराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध कर दिया। ये देख कर हिरण्यकशिपु ने ब्रह्माजी की तपस्या कर उनसे ये वर माँगा कि उसकी मृत्यु देव, दानव, नाग, राक्षस, गन्धर्व, किन्नर, मनुष्य, पशु किसी के द्वारा ना हो सके। उसे ना दिन में मारा जा सके ना रात में, ना अस्त्र से ना शस्त्र से, ना घर के अंदर ना बाहर, ना पृथ्वी पर ना जल में और ना ही आकाश में। ब्रह्मा जी ने उसे ये वरदान दे दिया।
महाभारत के अनुशासन पर्व के १४वें खंड के अनुसार महर्षि उपमन्यु ने श्रीकृष्ण को भी हिरण्यकशिपु की कथा सुनाई थी। उनके अनुसार हिरण्यकशिपु ने ब्रह्माजी के अतिरिक्त महादेव को भी तप कर प्रसन्न किया और महादेव ने उसे असीमित शक्ति के साथ सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के सञ्चालन में अद्वितीय बना दिया। उसे महादेव ने इंद्र, यम, कुबेर, सूर्य, अग्नि, वायु, सोम और वरुण की सम्मलित शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली बना दिया।
ब्रह्मा के वरदान के कारण वो लगभग अवध्य हो गया और शंकर के वरदान के कारण हिरण्यकशिपु इतना अधिक शक्तिशाली हो गया कि वो सम्पूर्ण हिमालय को जड़ सहित उखाड़ सकता था। उसकी शक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक बार रावण जैसे महापराक्रमी ने हिरण्यकशिपु के कुण्डलों को उठाने का प्रयास किया था किन्तु वो इतने भारी थे कि वो उन्हें हिला भी नहीं पाया था।
उसका जीवनकाल भी बहुत अधिक था। ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार हिरण्यकशिपु ने १०७२८०००० (दस करोड़ बहत्तर लाख अस्सी हजार) वर्षों तक शासन किया था। ये कालखंड २४ महायुगों से भी अधिक है। पौराणिक काल गणना के बारे में विस्तार से जानने के लिए आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
अब स्वयं को अवध्य मान कर उसने त्रिलोक में हाहाकार मचा दिया। उसने सभी स्थानों पर विष्णु पूजा बंद करवा दी और स्वयं को ईश्वर घोषित कर दिया। जिसने भी उसका आदेश नहीं माना उसने उसका वध कर दिया। किन्तु जब उसे पता चला कि स्वयं उसका पुत्र प्रह्लाद महान विष्णुभक्त है तो उसके क्रोध का कुछ ठिकाना ना रहा। अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिए उसने स्वयं अपने पुत्र के वध का निश्चय कर लिया।
उसने प्रह्लाद को मारने के लिए सारे उपाय कर के देख लिए किन्तु विफल रहा। उसकी बहन होलिका को ये वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। अपने इस वरदान के अभिमान में होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गयी किन्तु श्रीहरि की कृपा से प्रह्लाद का तो कुछ नहीं बदला पर होलिका जल मरी। तब से ही हम होलिका दहन मनाते हैं।
अब हिरण्यकशिपु ने स्वयं प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया किन्तु तब अपने भक्त की रक्षा के लिए भगवान विष्णु एक स्तम्भ से नरसिंह अवतार में प्रकट हुए। उनमें वो सभी लक्षण थे जो हिरण्यकशिपु के वध के प्रतिबंधों को संतुष्ट करते थे। हिरण्यकशिपु प्रचंड शक्तिशाली था किन्तु प्रभु की शक्ति से कैसे पार पाता? अंततः भगवान नरसिंह उसे घसीटते हुए उसके द्वार की चौखट पर ले आये और उसे अपनी जंघा पर रख कर अपने वज्रतुल्य नख उसके वक्ष पर रख दिए।
तभी आकाशवाणी हुई कि हे हिरण्यकशिपु देख प्रभु का ये अवतार ना मनुष्य है ना पशु, इस समय ना दिन है ना रात, ये गोधूलि वेला है। तू ना घर के अंदर है ना बाहर, तू घर की चौखट पर है। तू ना पृथ्वी पर है, ना जल में और ना ही आकाश में, तू प्रभु की जंघाओं पर है। भगवान नृसिंह तेरा वध ना अस्त्र से कर रहे हैं ना शस्त्र से, वो अपने नखों से तुझे मुक्ति दे रहे हैं। स्वयं को अमर मान कर तूने जो अत्याचार किये हैं, उसके अंत का समय अब आ गया है।
आकाशवाणी होते ही भगवान नृसिंह ने अपने नखों से हिरण्यकशिपु का ह्रदय विदीर्ण कर दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार संसार से एक पापी का नाश हुआ। भगवान विष्णु के पार्षद जय और विजय में जय ने अपने तीन जन्मों में प्रथम जन्म हिरण्यकशिपु के रूप में लिया था। इस विषय में विस्तार से आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
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