जाम्बवन्त कौन थे और वो कितने शक्तिशाली थे?

जाम्बवन्त
जामवंत रामायण के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक हैं। हालाँकि उनकी गिनती सप्त-चिरंजीवियों में नहीं की जाती, किन्तु वे भी एक चिरंजीवी हीं थे जिन्होंने द्वापरयुग में निर्वाण लिया। उनकी आयु अन्य सातों चिरंजीवियों से भी अधिक मानी जाती है। उनके जन्म के विषय में भी अलग-अलग कथाएं प्रचलित हैं।

एक कथा के अनुसार एक बार जब ब्रह्मा जी तप में लीन थे, उन्हें जम्हाई आ गयी और उससे ही प्रथम ऋक्ष (रीछ) का जन्म हुआ। उनकी जम्हाई से जन्म लेने के कारण उनका नाम जामवंत पड़ा। विष्णु पुराण के अनुसार जब ब्रह्मा जी से मधु और कैटभ नामक दैत्यों ने जन्म लिया तो उस समय ब्रह्मा जी के पसीने से जामवंत का जन्म हुआ। ऐसा भी वर्णित है कि जब श्रीहरि का युद्ध मधु और कैटभ से हो रहा था तो जामवंत प्रसन्नतापूर्वक ताली बजा रहे थे। अंत में जब श्रीहरि ने दोनों राक्षसों का वध किया तो जामवंत अत्यंत प्रसन्न हुए।

अग्नि पुराण के अनुसार जामवंत का जन्म अग्नि से हुआ और उनकी माता एक गन्धर्व स्त्री थी। उनकी पत्नी का नाम जयवंती बताया गया है। रामायण में कई स्थानों पर इन्हे वानर ही कहा गया है। जामवंत की आयु बहुत लम्बी थी। ऐसा माना जाता है कि श्रीराम अवतार के समय जामवंत की आयु छह मन्वन्तर से भी अधिक थी। उन्होंने मत्स्य अवतार को छोड़ कर कूर्म अवतार से लेकर श्रीकृष्ण अवतार तक सभी के दर्शन किये। अर्थात श्रीहरि के सात अवतारों के समय वे उपस्थित थे। उन्होंने प्रथम देवासुर संग्राम में भी भाग लिया था।

उन्हें अत्यंत विद्वान, बुद्धिमान, वेदपाठी और सदा अध्ययन करने वाला बताया गया है। उन्हें सभी वेद, पुराण, शास्त्र कंठस्थ थे। श्रीराम की सेना में वे सबसे वयोवृद्ध और बुद्धिमान थे और इसी कारण श्रीराम भी उनका बड़ा सम्मान करते थे और उनसे सलाह लिया करते थे। उनका आकार बहुत विशाल बताया गया है। आकार में वे कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। जब लक्ष्मण को शक्ति लगी तो उन्होंने ही हनुमान को चार दुर्लभ बूटियों के बारे में बताया था जिनमे से एक संजीवनी थी।

जब सुग्रीव ने वानर सेना को माता सीता की खोज में चारों दिशाओं में भेजा तो अंगद के नेतृत्व में जामवंत, हनुमान इत्यादि दक्षिण दिशा में गए। सुग्रीव ने विशेष रूप से जामवंत को अंगद के साथ भेजा ताकि वे अपने अनुभव से दल का सुरक्षित नेतृत्व कर सकें। जब सागर तट पर पहुंच कर सभी उस विशाल समुद्र को देख कर हताश हो जाते हैं तो जामवंत ही हनुमान को उनकी शक्तियों का भान करवाते हैं जिसके बाद हनुमान समुद्र को लांघते हैं।

लंका कांड में जामवंत के विषय में अधिक वर्णन दिया गया है। उन्होंने बड़ी चतुराई से सेना का सञ्चालन किया और एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। रामचरितमानस के अनुसार उन्होंने युद्ध में यञकूप नामक राक्षस का वध किया था। उन्होंने रावण से भी युद्ध किया और उसपर पाद-प्रहार किया जिससे रावण मूर्छित हो गया। मेघनाद से भी उनके युद्ध का वर्णन है जब मेघनाद की फेंकी शक्ति को उन्होंने हवा में ही पकड़ कर उसपर ही छोड़ दिया। उसी युद्ध में जामवंत के प्रहारों से मेघनाद भी मूर्छित हो गया था।

भागवत पुराण और विष्णु पुराण में जामवंत की शक्ति के विषय में बताया गया है। उनकी शक्ति १००००००० (एक करोड़) सिंहों की शक्ति के बराबर कही गयी है। रामचरितमानस के अनुसार जब वानर दल समुद्र पार करने परामर्श कर रहा था तब सभी अपनी-अपनी क्षमता द्वारा उस समुद्र को पार करने की बात कर रहे थे। उस समय सबने जामवंत से ये प्रार्थना की कि सबसे बड़े होने के कारण वही उस समुद्र को पार करने का कोई उपाय बताएं। तब जामवंत ने सबको अपने बल के बारे में बताया।

जामवंत ने कहा कि इस समय मैं अत्यंत बूढ़ा हो गया हूँ फिर भी मैं एक बार में ९० योजन तक जा सकता हूँ। जब मैं युवा था तो मैंने समुद्र मंथन देखा था। उस समय मुझमें इतना बल था कि देवों और दैत्यों के थक जाने पर मैंने अकेले ही पूरे मंदराचल पर्वत को घुमा दिया था। उसे देख कर स्वयं मेरे पिता ब्रह्मा ने मेरी प्रशंसा की थी।

जब श्रीहरि ने वामन अवतार लिया और दैत्यराज बलि के पास आये तब मैं वहीँ था। जब उन्होंने बलि द्वारा दी गयी तीन पग भूमि को नापने के लिए अपना विराट स्वरुप लिया तब उस समय मैंने केवल सात क्षणों में भगवान वामन सहित पृथ्वी की सात परिक्रमा कर डाली। जब मैं परिक्रमा कर वापस लौटा तब तक भगवान वामन दैत्यराज बलि को पूरी तरह बांध भी नहीं पाए थे। कहीं कहीं उनके द्वारा पृथ्वी की २१ परिक्रमा करने के बारे में लिखा गया है।

ये सुनकर सबने पूछा कि आप इतने शक्तिशाली थे तो आपका बल क्षीण कैसे हो गया? इस पर जामवंत बताते हैं कि भगवान वामन के पृथ्वी को नापते समय जब मैं अत्यंत तीव्र वेग से उनकी परिक्रमा कर रहा था तो अंतिम परिक्रमा के समय मेरे पैर के अंगूठे का नाख़ून महामेरु पर्वत से छू गया जिससे उसका शिखर खंडित हो गया। इसे मेरु ने अपना अपमान माना और मुझे मेरे बल के क्षीण हो जाने का श्राप दे दिया। 

जब लंका युद्ध समाप्त हुआ तो श्रीराम सबके बल की प्रशंसा कर रहे थे। उस समय जामवंत बड़े निराश होकर श्रीराम के पास आये और उनसे कहा कि प्रभु! मैंने तो सोचा था कि युगों बाद मुझे इस युद्ध में आनंद आएगा किन्तु पूरा युद्ध समाप्त हो गया और मेरे शरीर से पसीने की एक बून्द भी नहीं गिरी। लगता है मुझे वास्तविक युद्ध के लिए अभी और प्रतीक्षा करनी होगी। 

उन्हें ऐसा कहते देख श्रीराम समझ गए कि जामवंत के मन में अहंकार आ गया है। तब उन्होंने जामवंत से कहा कि प्रतीक्षा करो, द्वापर में स्वयं तुम्हारी युद्धाभिलाषा पूर्ण करूँगा। जब द्वापर में श्रीकृष्ण ने अवतार लिया तो सत्राजित ने उनपर समयान्तक मणि के चोरी का आरोप लगा दिया। वास्तव में वो मणि सत्राजित का ही भाई ले गया था जिसे एक शेर ने मार दिया। फिर जामवंत ने उस सिंह को मार कर वो मणि अपनी बेटी को दे दी।

जब श्रीकृष्ण उस मणि को ढूढ़ने निकले तो वे जामवंत की गुफा में पहुंचे। वहाँ जब उन्होंने मणि देखी तो उसे लेना चाहा। इसपर श्रीकृष्ण और जामवंत में घोर युद्ध हुआ। भागवत पुराण के अनुसार वो युद्ध २८ दिनों तक लगातार चलता रहा। वही विष्णु पुराण के अनुसार ये युद्ध २१ दिनों तक चला था। अंत में जामवंत पसीने से लथपथ हो गए और थक गए।

जब वे परास्त होने लगे तब उन्होंने श्रीराम का स्मरण किया। ऐसा करते हीं श्रीकृष्ण ने ही उन्हें श्रीराम के रूप में दर्शन दिए। जामवंत समझ गए कि अपने दिए वचन के कारण स्वयं श्रीराम श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुए हैं। उनका अभिमान भंग हो गया और उन्होंने श्रीकृष्ण के स्वरुप को पहचान कर उनसे क्षमा याचना की। बाद में उन्होंने अपनी पुत्री जाम्बवंती का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया और स्वयं निर्वाण ले लिया। 

ऐसा माना जाता है कि जामवंत ने ही जामथुन नगर बसाया था जो आज मध्यप्रदेश के रतलाम जिले में है। यहाँ पर एक गुफा है जिसे जामवंत गुफा के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के बरेली में भी जामवंत तपोगुफा नामक एक गुफा है। माना जाता है कि जामवंत यही त्रेता से द्वापर तक प्रतीक्षा की थी। गुजरात के राणावाव में भी एक प्राचीन गुफा है जिसे जामवंत की गुफा ही माना जाता है।

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