संवरण एक चंद्रवंशी सम्राट थे जो महाराज हस्ती (जिनके नाम पर हस्तिनापुर है) के पड़पोते और महाराज अजमीढ़ के पुत्र थे। अपने पूर्वजों की भांति ही संवरण एक महान राजा साबित हुए जो अपनी प्रजा के सुख के लिए कुछ भी कर सकते थे। उनके राज्य में प्रजा सुखपूर्वक और निर्भय होकर निवास कर रही थी।
संवरण भगवान सूर्यनारायण के अनन्य भक्त थे। प्रतिदिन जब तक वे सूर्योपासना नहीं कर लेते थे, अपने कंठ से जल की एक बून्द भी नहीं उतारते थे। एक बार वे अकेले ही आखेट के लिए निकल गए और वन में भटक गए। उसी दौरान उन्होंने सरोवर के पास एक स्त्री को देखा। उस स्त्री का सौंदर्य ऐसा था कि सहस्त्रों अप्सराएं भी उसके समक्ष फीकी लगे।
उस अद्भुत सुंदरी को देख कर संवरण उसके पास पहुंचे और उससे कहा कि "हे सुंदरी! तुम कौन हो? मैंने आज तक तुम्हारे जैसी रूपवान स्त्री नहीं देखी। तुम्हे देख कर मैं और कुछ नहीं सोच पा रहा। क्या तुम मुझसे विवाह करोगी? मैं हस्तिनापुर नरेश संवरण हूँ। ये सारा संसार मेरे अधिकार में है और मैं तुम्हे वचन देता हूँ कि मैं तुम्हे सदा प्रसन्न रखूँगा। अतः मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार करो और इस पृथ्वी की महारानी बन सुख भोगो।"
उस स्त्री ने एक क्षण संवरण को देखा और फिर अचानक अदृश्य हो गयी। अब तो संवरण उसकी याद में जल बिन मछली की भांति तड़पने लगे। वे पागलों की तरह वन-वन भटकने लगे और उस स्त्री को पुकारने लगे। उनकी ऐसी दशा देख कर वो स्त्री पुनः उनके पास आयी और कहा - "हे महाराज! मेरा नाम ताप्ती है और मैं सूर्यदेव की कन्या हूँ। आपको देख कर मेरे मन में भी आपको अपने पति के रूप में पाने की इच्छा है किन्तु मैं अपने पिता के अधीन हूँ। अतः यदि आप मुझे प्राप्त करना चाहते हैं तो मुझे मरे पिता से मांगिये।" ये कह कर वो पुनः अदृश्य हो गयी।
अब तो संवरण पुनः विक्षिप्त हो यहाँ-वहाँ भटकने लगे। अंत में वे अपनी चेतना खो कर गिर पड़े। बहुत काल के बाद जब वे चेत हुए तो उन्हें पुनः ताप्ती की याद आयी। उन्होंने निश्चय किया कि वे तप कर सूर्यदेव को प्रसन्न करेंगे और ताप्ती को प्राप्त करेंगे। सूर्यभक्त तो वे थे ही, उन्होंने भगवान सूर्यनारायण की घोर तपस्या की। उनका तप इतना भीषण था कि उसका ताप स्वयं सूर्यदेव तक पहुँच गया।
संवरण की परीक्षा लेने के लिए सूर्यदेव ने उसकी तपस्या को तोड़ने के लिए उसके कान में कहा - "हे प्रतापी राजा, तुम यहाँ तप कर रहे हो और वहां तुम्हारी प्रजा धीरे-धीरे काल के गाल में समा रही है।" ये सुनने के बाद भी संवरण का तप जब नहीं टूटा तो उन्होंने फिर कहा "तुम्हारा परिवार और बन्धु-बांधव भी काल कलवित हो रहे हैं।" फिर भी संवरण तप में लीन रहे तो सूर्यदेव ने अंतिम बार कहा - "तुम्हारे राज्य में अकाल पड़ा है और मनुष्य क्या, पशु, पक्षी और वृक्ष भी सूख गए हैं।" इतना सुनने के बाद भी संवरण तप में लीन रहे।
उसका ऐसा हठ देख कर सूर्यदेव प्रसन्न हुए और उसे अपने दर्शन दिए। उन्होंने संवरण से पूछा कि उसे क्या चाहिए। तब संवरण ने कहा - "हे भगवन! मुझे केवल आपकी पुत्री ताप्ती अपनी पत्नी के रूप में चाहिए।" ये सुनकर सूर्यदेव ने कहा कि "हे राजन! यदि तुम ताप्ती को पत्नी के रूप में प्राप्त कर लोगे तो वो सभी बातें सत्य हो जाएंगी जो मैंने तुमसे तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए कहा था। अब बताओ क्या तुम अब भी ताप्ती को पाना चाहते हो?"
संवरण ने कहा - "हे प्रभु! मुझे आपकी पुत्री ताप्ती के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए।" ये सुनकर सूर्यदेव ने ताप्ती का विवाह संवरण से कर दिया और दोनों सब कुछ भूल कर उसी वन में सुखपूर्वक रहने लगे। उधर सूर्यदेव के कथनानुसार संवरण के राज्य में भीषण अकाल पड़ा। प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी। संवरण के वृद्ध मंत्री ये जानते थे कि राज्य के राजा का इतने दिनों तक अनुपस्थित रहना ही इस अकाल का कारण है, इसीलिए वे उन्हें खोजने को निकल पड़े।
कुछ समय बाद अंततः उन्हें राजा संवरण के दर्शन हुए। उन्होंने संवरण को बहुत बार समझाया कि उनके राज्य की स्थिति अत्यंत विकट है उन्हें तत्काल वापस चलना चाहिए, किन्तु ताप्ती के प्रेम में अंधे बने संवरण किसी भी स्थिति में वापस नहीं लौटना चाहते थे। उनके मंत्री समझ गए कि वे एक स्त्री के मोहजाल में फंसे हुए हैं इसीलिए उन्होंने एक चित्रकार से बहुत सारे चित्र बनवाये और उसे एक पुस्तक का रूप देकर संवरण की भेंट किया।
जब संवरण ने उस पुस्तक को खोला तो उन चित्रों को देख कर दहल गए। किसी चित्र में मनुष्यों को मरते हुए दिखाया गया था, किसी में पशु एक दूसरे को नोच रहे थे। एक चित्र में माता अपने पुत्र को स्वयं कुएं में फेंक रही थी ताकि वो भूख से तड़प-तड़प कर मरने के बजाय सरलता से मृत्यु को प्राप्त हो। संवरण ने उन वीभत्स दृश्यों को देख कर भय से अपने नेत्र बंद कर लिए।
उन्होंने अपने मंत्री से पूछा - "ये किस राज्य का दृश्य है? उसका राजा कौन है? धिक्कार है ऐसे राजा पर जो अपनी प्रजा को इस हाल में छोड़ गया है।" तब उनके मंत्री ने कहा - "हे महाराज! इस राज्य का नाम हस्तिनापुर है और उसके सम्राट का नाम संवरण है।" जब संवरण ने ये सुना तो अवाक् रह गया।
वो बार बार स्वयं को धिक्कारने लगे कि उनके कारण प्रजा की ये दशा हो गयी है। वे तत्काल ताप्ती को लेकर हस्तिनापुर पहुंचे। जब देवराज इंद्र ने देखा कि वे पुनः हस्तिनापुर लौट आये हैं तो उन्होंने तत्काल वहां वर्षा की जिससे दुर्भिक्ष समाप्त हो गया और प्रजा पुनः वैभवशाली हो गयी। उसके बाद संवरण और ताप्ती ने बहुत काल तक हस्तिनापुर पर शासन किया।
बाद में जब महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र की प्रतिद्वंदिता के कारण प्रसिद्ध "दशराज युद्ध" हुआ तो दशराज की सेना महाराज संवरण के नेतृत्व में ही महाराज सुदास से लड़ी। किन्तु अंततः दशराज के युद्ध में सुदास विजित हुए और संवरण और अन्य नौ राजाओं की पराजय हुई। हस्तिनापुर साम्राज्य बिखर गया।
उसे पुनः प्राप्त करने के लिए देवताओं के आशीर्वाद से संवरण और ताप्ती के पुत्र के रूप में कुरु का जन्म हुआ। वे आगे चलकर हस्तिनापुर के सम्राट बने और उन्होंने अपने प्रताप से सभी राजाओं को परास्त कर अपना राज्य पुनः प्राप्त किया। कुरु ने अपने राज्य की सीमा अनंत तक बढ़ाई और उनके प्रताप के कारण ही उनका कुल कुरुकुल कहलाया। उन्ही के नाम पर सम्यक पंचक नाम का स्थान कुरुक्षेत्र कहलाया जहाँ महाभारत का युद्ध हुआ।
कुरुवंश के विषय में आप विस्तार ये यहाँ पढ़ सकते हैं।
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