महाराज ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु से यदुकुल चला। इसी से आगे चलकर हैहय वंश पृथक हुआ जिसमें महान सम्राट कर्त्यवीर्य अर्जुन ने जन्म लिया। दूसरी शाखा में दो प्रमुख वंश चले - वृष्णि एवं अंधक। इन्ही में से वृष्णि वंश में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया और इसी वंश में उनसे एक पीढ़ी पहले यादव वीर अक्रूर का जन्म हुआ। वे श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव के चचेरे भाई थे। यदुवंश के विषय में आप विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं।
अक्रूर के पिता का नाम श्वफल्लक था। उन्हें ये वरदान प्राप्त था कि वे जहाँ भी रहते थे वहां कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ता था। इससे श्वफल्लक की प्रसिद्धि बहुत थी। एक बार काशी में ३ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई जिससे वहां भयानक अकाल पड़ गया और प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी। काशिराज श्वफल्लक की प्रसिद्धि से अवगत थे इसीलिए उन्होंने उन्हें सम्मानपूर्वक अपने राज्य में बुलाया। श्वफल्लक के काशी पहुँचते ही वहां वर्षा होने लगी और दुर्भिक्ष समाप्त हो गया।
काशिराज की गांदिनी नामक एक कन्या थी। श्वफल्लक का आभार मानते हुए उन्होंने अपनी कन्या का विवाह उनसे कर दिया। दोनों प्रसन्नतापूर्वक मथुरा लौट आये। गांदिनी से श्वफल्लक को १३ पुत्र एवं एक कन्या प्राप्त हुई। उनमें से अक्रूर सबसे ज्येष्ठ थे। अन्य पुत्रों के नाम थे - आसंग, सारमेय, मृदुर, म्रिदुविद, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गंधमादन और प्रतिवाहु तथा कन्या का नाम था सुचीरा।
अक्रूर का विवाह यादवकुल की ही एक कन्या उग्रसेना से हुआ। उग्रसेना से अक्रूर जी को देवयान और उपदेव नामक दो पुत्र प्राप्त हुए। कहते हैं कि अपने पिता का गुण अक्रूर में भी आया और वे जहाँ भी रहते थे वहां शांति और समृद्धि फ़ैल जाती थी। उनके पिता श्वफल्लक महाराज उग्रसेन की सभा में मंत्री थे और उनके बाद अक्रूर ने भी उन्ही की सभा में मंत्री और सेना नायक का पद संभाला।
आगे चल कर महाराज उग्रसेन के पालित पुत्र कंस ने अपने पालक पिता को बंदी बना कर कारावास में डाल दिया और मथुरा के सिंहासन पर अपना अधिकार जमा लिया। वो अपनी बहन देवकी से अत्यंत प्रेम करता था इसीलिए उसने उसका विवाह यादवश्रेष्ठ वसुदेव के साथ करवाया किन्तु भविष्यवाणी द्वारा ये घोषित किये जाने के बाद, कि देवकी का आठवां पुत्र ही उसका काल बनेगा, उसने देवकी और वासुदेव को कारागार में डाल दिया और एक एक कर उनके ६ पुत्रों की हत्या कर दी।
७वें पुत्र को योगमाया ने वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में हस्तानांतरित कर दिया और आठवें पुत्र श्रीकृष्ण को वसुदेव ने बृज में यशोदा को सौंप दिया और उसकी पुत्री, जो वास्तव में योगमाया ही थी, उसे लेकर कारागार वापस आ गए। कंस ने समझा कि यही बालिका जो देवकी आठवीं संतान है, उसका वध करेगी। उसने उनका वध करने का प्रयत्न किया किन्तु योगमाया ने ये घोषणा कर दी कि उसे मारने वाला जन्म ले चुका है।
अब तो कंस ने हर संभव प्रयास कर लिया किन्तु श्रीकृष्ण का क्या बिगड़ता। उसका अंत निकट देख स्वयं देवर्षि ने उसे सुझाव दिया कि वो कृष्ण-बलराम को मथुरा आमंत्रित करे और उनका नाश कर दे। कंस को ये सुझाव बड़ा पसंद आया किन्तु उन्हें लेने कौन जाये? बहुत सोच विचार कर उसने निश्चय किया कि इस कार्य के लिए अक्रूर जी को बृज भेजा जाये।
अक्रूर जी समस्त यादव वंश में सम्माननीय थे। कंस जानता था कि उनका कहा नन्द कभी नहीं टाल सकते। उन्होंने अक्रूर से कहा कि शीघ्र जाकर उनका निमंत्रण कृष्ण-बलराम को दें और उन्हें लेकर तत्काल मथुरा लौटें। अक्रूर ये जानते थे कि वास्तव में कंस की योजना क्या है किन्तु वे श्रीहरि और श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। कृष्ण-बलराम के दर्शनों की लालसा में उन्होंने कंस की बात मान ली और बृज पहुंचे।
वहां नन्द और कृष्ण-बलराम ने उनका बड़ा स्वागत किया। अक्रूर ने उन्हें ये बता दिया कि वे कंस का निमंत्रण लेकर आये हैं किन्तु कंस उन्हें छल से मार डालना चाहता है। श्रीकृष्ण और बलराम ने सहर्ष चलना स्वीकार किया ताकि पृथ्वी से एक पापी का नाश हो। अक्रूर जी जब उन्हें लेकर चले तो सारा बृज उनके पीछे चला। वहां की सभी गोपियों ने श्रीकृष्ण के चरण पकड़ लिये और उन्हें जाने से रोकने लगी। ये दृश्य देख कर श्रीकृष्ण बड़े भावुक हो गए।
तब अक्रूर जी ने ही सभी गोपियों को समझाया और बड़ी कठिनाई से वे वहां से निकले। अक्रूर जी के मन में ये संदेह था कि कंस मार्ग पर भी उनपर आक्रमण कर सकता है इसीलिए उन्होंने अपने सैनिकों को छिप कर रहने को कहा था। उन्होंने कहा था कि वे यमुना में डुबकी लगाएंगे और चौथी डुबकी लगाते ही सभी सैनिक कृष्ण-बलराम को सुरक्षा प्रदान करने के लिए बाहर आ जाएँ।
जब वे यमुना तट पर पहुंचे तो अक्रूर योजना अनुसार यमुना में स्नान करने पहुंचे। उधर श्रीकृष्ण ने उनकी शंका का निवारण करने का निश्चय किया। जैसे ही अक्रूर जी ने पहली डुबकी लगाई तो उन्हें कृष्ण-बलराम जल के अंदर दिखाई दिए। वे तुरंत बाहर निकले तो उन्होंने उन दोनों को रथ पर ही बैठे देखा। अब तो वे बड़े आश्चर्य में पड़ गए। जब उन्होंने दूसरी डुबकी लगाई तो उन्होंने श्रीकृष्ण-बलराम को क्षीरसागर में बैठे देखा। वे पुनः बाहर आये और देखा कि कृष्ण-बलराम तो रथ पर बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे हैं।
अब अक्रूर जी ने तीसरी डुबकी लगाई तो उन्होंने श्रीकृष्ण और बलराम को साक्षात् श्रीहरि विष्णु और शेषनाग के अवतार में देखा। समस्त देवता, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर परमपिता ब्रह्मा सहित उन्हें घेरे थे और उनकी स्तुति कर रहे थे। अब तो अक्रूर जी समझ गए कि श्रीकृष्ण स्वयं नारायण के अवतार हैं। वे तक्षण अपनी समस्त चिंताओं से मुक्त हो गए और अपने भाग्य पर गर्व करने लगे कि उन्हें स्वयं नारायण के दर्शन हुए। भला श्रीहरि के अवतार का कोई क्या बिगाड़ सकता है, यही सोच कर उन्होंने चौथी डुबकी लगाई ही नहीं और कृष्ण-बलराम को लेकर मथुरा पहुंचे।
वहां कंस ने उन दोनों की मृत्यु का बहुत प्रयोजन कर रखा था किन्तु सब विफल हुआ। श्रीकृष्ण ने अंततः कंस का वध कर दिया और अपने माता पिता और नाना उग्रसेन को स्वतंत्र करवाया। महाराज उग्रसेन पुनः मथुरा की गद्दी पर बैठे। उन्होंने अक्रुर जी को राज्य में बहुत सम्मानित पद दिया और फिर जब कृष्ण-बलराम की शिक्षा पूर्ण हुई तो श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि हस्तिनापुर में महाराज पाण्डु की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र सम्राट बनें हैं। अतः वे जाकर हस्तिनापुर का समाचार ले कर आएं।
तब अक्रूर हस्तिनापुर जाकर वहां की का सारा समाचार श्रीकृष्ण को बताया कि किस प्रकार धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन के वश में हो कर पाण्डु पुत्रों के साथ अन्याय कर रहे हैं। तब श्रीकृष्ण ने ये निश्चय किया कि आगे चल कर वे उन्हें न्याय अवश्य दिलवाएंगे। तत्पश्चात श्रीकृष्ण ने अक्रूर जी का सम्मान कर उन्हें उच्च पद प्रदान किया और उनके सुझाव और महाराज उग्रसेन के मार्गदर्शन से न्यायपूर्वक मथुरा का राज्य संभाला। बाद में जरासंध के आक्रमणों से तंग आकर उन्होंने मथुरा का त्याग किया और द्वारिका नामक नगरी बसाई।
अक्रूर जी वहां भी बड़े मान्य पद पर आसीन हुए। श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने नगर का कोषाध्यक्ष बनाया। उसी नगर में सत्राजित नामक एक सम्माननीय यादव रहते थे। उन्होंने सूर्यदेव से समयान्तक नामक एक मणि प्राप्त की थी जिससे जितना चाहो उतना स्वर्ण प्राप्त होता था। श्रीकृष्ण ने ये सोच कर कि उस मणि का दुरूपयोग ना हो, सत्राजित से उसे महाराज उग्रसेन को भेंट करने को कहा किन्तु सत्राजित ने उनकी बात नहीं मानी।
एक दिन सत्राजित का छोटा भाई प्रसेनजित वो मणि पहन कर आखेट को गया जहाँ एक सिंह ने उसे मार डाला। उस सिंह के पास एक बहुमूल्य मणि देख कर ऋक्षराज जांबवंत ने उसे मार कर मणि अपनी पुत्री जनमवंती को दे दी। उधर सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर ये आरोप लगाया कि उन्होंने उसके भाई का वध कर उस मणि को चुरा लिया है। श्रीकृष्ण उस लांछन को मिटाने के लिए उस मणि की खोज में निकले और जांबवान को परास्त कर उस मणि और उनकी पुत्री जांबवंती को प्राप्त किया।
जब सत्राजित ने ये सुना तो उसे बड़ी ग्लानि हुई। उसने अपनी पुत्री सत्यभामा और वो मणि श्रीकृष्ण को प्रदान की किन्तु श्रीकृष्ण ने उस मणि को सत्राजित को ही लौटा दिया। एक बार जब श्रीकृष्ण और बलराम हस्तिनापुर गए हुए थे, उस समय दैवयोग से अक्रूर का मन धर्म से भटक गया। उन्होंने शतधन्वा को ये सुझाव दिया कि वो सत्राजित का वध कर उस मणि पर अधिकार जमा ले। शतधन्वा ने ऐसा ही किया। अपने पिता को मृत देख कर सत्यभामा रोते हुए हस्तिनापुर पहुंची और श्रीकृष्ण को सब बताया। जब श्रीकृष्ण ने ये सुना तो वे तत्काल बलराम के साथ द्वारिका लौटे और शतधन्वा के वध का निश्चय कर लिया।
जब शतधन्वा ने ये सुना तो उसने वो मणि अक्रूर जी को दे दी और भय से स्वयं भाग निकला। जब श्रीकृष्ण ने अक्रूर से उस मणि के बारे में पूछा तो उन्होंने असत्य कह दिया कि शतधन्वा उसे लेकर भाग गया है। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा किया और मिथिला के निकट उससे युद्ध कर उसका वध कर दिया किन्तु उन्हें मणि नहीं मिली। जब बलराम वहां पहुंचे तो मणि को वहां ना पाकर विदर्भ चले गए। जब श्रीकृष्ण वापस द्वारिका पहुंचे तो प्रजा ने पुनः उनपर आरोप लगाया कि उन्होंने समयान्तक मणि के कारण शतधन्वा का वध कर दिया और स्वयं बलराम को अप्रसन्न कर दिया।
उधर अक्रूर को जब ये पता चला कि श्रीकृष्ण वापस आ गए हैं तो उन्हें लगा कि उनका भेद खुल जायेगा। इसी कारण वे उस मणि को लेकर काशी चले गए। अक्रूर और समयान्तक के द्वारिका से दूर होने पर वहां वर्षा होनी बंद हो गयी। ये देख कर श्रीकृष्ण ने स्थिति को सँभालने के लिए काशी की यात्रा की जहाँ पर अक्रूर ने अपना अपराध स्वीकार किया और उन्हें समयान्तक मणि वापस कर दी।
श्रीकृष्ण ने उन्हें क्षमा कर दिया और वो मणि भी उन्हें ही दे दी। किन्तु उन्होंने अक्रूर से ये वचन लिया कि वे और मणि कभी द्वारिका से दूर नहीं जायेंगे ताकि कभी वहां दुर्भिक्ष ना पड़े। उसके बाद अपने मृत्युपर्यन्त अक्रूर सदैव द्वारिका में ही रहे। श्रीकृष्ण के निर्वाण लेने के बाद जब उन्होंने भी अपने देह का त्याग किया तो उनकी पत्नी ने वनवास लेने का निश्चय किया। उस समय श्रीकृष्ण के पौत्र वज्र ने उन्हें रोकने का बड़ा प्रयत्न किया किन्तु वे सफल नहीं हुए।
स्कन्द पुराण के अनुसार अक्रूर पूर्वजन्म में चंद्र नाम के एक ब्राह्मण थे जो हरिद्वार निवासी देवशर्मा नामक एक अत्रि गोत्र के ब्राह्मण के शिष्य थे। बाद में चंद्र ने देवशर्मा की पुत्री गुणवती से विवाह किया था। यादव समाज में अक्रूर जी का एक विशेष सम्मान है जो उनके गुण अनुरूप ही है। जय श्रीकृष्ण।
अतिसुन्दर
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