भगवान विष्णु के पार्षद जय-विजय किस प्रकार श्राप के कारण रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्मे ये हम सभी जानते हैं। इस विषय में हमने एक विस्तृत लेख पहले ही प्रकाशित किया है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। आज हम रावण के उस पूर्वजन्म की कथा जानेंगे जिसे बहुत ही कम लोग जानते हैं। ये कथा श्री रामचरितमानस में दी गयी है। ये कथा मानस के बालकाण्ड में १५२वें दोहे से आरम्भ होकर १७५वें दोहे पर समाप्त होती है।
इस कथा के अनुसार कैकेय देश में सत्यकेतु नामक एक राजा था जो सदैव धर्मपूर्वक राज्य करता था और प्रजा का हर प्रकार से ध्यान रखता था। उसके दो पुत्र थे - प्रतापभानु एवं अरिमर्दन। प्रतापभानु ज्येष्ठ और अत्यंत न्यायप्रिय था जिसे देख कर सत्यकेतु ने उसे राजा बना दिया और स्वयं वानप्रस्थ ले लिया। अरिमर्दन संसार का सबसे बलिष्ठ योद्धा था जिसने अपने बल से अपने भाई के राज्य को निष्कंटक बना दिया। उनका धर्मरुचि नाम का एक अति बुद्धिमान मंत्री था जो उन्हें सदैव सही सलाह देता था।
प्रतापभानु स्वयं महावीर था और अपने छोटे भाई के बल और अपने मंत्री की नीतियों के कारण उसने आक्रमण कर समस्त पृथ्वी को जीत लिया। जिसने उसका अधिपत्य स्वीकार नहीं किया वो मृत्यु को प्राप्त हुआ। अंततः उसने सातों द्वीपों को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बना। सम्पूर्ण पृथ्वी उसके अधीन थी और वो न्याय पूर्वक इंद्र की भांति इस धरा पर शासन करने लगा। कहा जाता है कि शास्त्रों में जितने प्रकार के यज्ञ बताये गए हैं उन सभी को उसने १०००-१००० बार किया। उसके रक्षण में सम्पूर्ण प्रजा प्रसन्न और सुरक्षित थी।
एक बार वो आखेट के लिए वन गया जहाँ उसने एक अद्भुत शूकर को देखा जो वास्तव में कालकेतु नामक राक्षस था। राजा उसके शिकार के लिए उसके पीछे भागा किन्तु शूकर रूपी वो राक्षस चपलतापूर्वक वहां से भागा। प्रतापभानु ने कई बाण चलाये किन्तु वो शूकर सबको छकाता हुआ भागता रहा और अंत में एक गुफा में जा छिपा। राजा को शिकार तो नहीं मिला पर वो उस घने वन में भटक गया। बहुत समय तक वो भूख-प्यास से त्रस्त उस वन में भटकता रहा।
अचानक उस बियावान वन में उसे एक आश्रम दिखा। जब वो वहां पहुंचा तो उसे एक बड़े तेजस्वी महात्मा दिखे। वास्तव में वो एक राजा था जिसका राज्य प्रतापभानु ने छीन लिया था और उसे युद्धक्षेत्र से भागना पड़ा था। अब वो इस जंगल में एक तपस्वी की भांति रहता था। उसके वेश के कारण प्रतापभानु तो उसे नहीं पहचान सका किन्तु उस राजा ने प्रतापभानु को पहचान लिया। उसने प्रतापभानु से अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का ये उचित अवसर समझा।
उसने राजा को निकट के सरोवर में स्नान करने भेजा। जब राजा स्नान कर अपनी थकान मिटा चुका तब उस तपस्वी ने उसे भोजन और जल दिया। भोजन समाप्त होने के बाद उस तपस्वी से राजा ने वापस जाने की आज्ञा मांगी तो उसने कहा कि रात हो गयी है और नगर यहाँ से ७० योजन दूर है। अतः आज तुम यही विश्राम करो। राजा ने उसकी बात मान ली। तब तपस्वी ने राजा से उसका परिचय पूछा। राजा ने एक अनजाने व्यक्ति को अपना वास्तविक परिचय देना उचित नहीं समझा और उसने कहा कि "हे महात्मा! प्रापभानु नामक एक राजा है, मैं उसी का मंत्री धर्मरुचि हूँ।"
वो तपस्वी तो जनता था कि राजा झूठ बोल रहा है इसीलिए उसने कहा - "पता नहीं तुम मंत्री कैसे बन गए जबकि तुम्हारी मस्तक की रेखा देख कर मैं बता सकता हूँ कि तुम्हे एक चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए।" इस सत्य को सुनने के बाद प्रतापभानु उस तपस्वी को त्रिकालदर्शी समझने लगा। उस तपस्वी ने भी जान-बूझ कर उसके बारे में सभी कुछ बता दिया जो उसे ज्ञात था। परिणामस्वरूप थोड़ी ही देर की बात चीत के प्रतापभानु उस तपस्वी का भक्त हो गया।
राजा ने उस तपस्वी से उसका परिचय पूछा तो उसने कहा कि "हम तो साधु हैं और सदा से इसी वन में रहते हैं। आज तक तुम्हारे सिवाय किसी को दर्शन नहीं दिए किन्तु तुम्हे देख कर हमारा मन प्रसन्न हो गया। हमारा नाम एकतनु है।" तब राजा ने उससे उसके नाम का अर्थ पूछा तो उसने कपटपूर्वक कहा - "जब सृष्टि का आरम्भ हुआ तो स्वयं ब्रह्माजी ने मुझे जन्म दिया। तब से आजतक मैंने दूसरा देह नहीं धरा इसी कारण मेरा ये नाम है।"
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था राजा की उस तपस्वी के प्रति भक्ति और विश्वास बढ़ता जा रहा था। तब उस तपस्वी ने कहा कि "मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ इसीलिए तुम मुझसे कुछ मांग लो। संदेह मत करो। वो सारी इच्छाएं जो त्रिदेव पूरी कर सकते हैं, मैं भी पूरी कर सकता हूँ। इसीलिए निःसंकोच मुझसे जो भी चाहो वो मांग लो।"
ये सुन कर प्रतापभानु बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उस तपस्वी से कहा - "प्रभु! ये मेरा सौभाग्य है कि आपने मुझे वरदान के योग्य समझा। यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे ये वर दीजिये कि मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाये। मुझे युद्ध में कोई जीत ना सके और पृथ्वी पर अगले १०० कल्पों तक मेरा शासन रहे।"
वो कपटी तपस्वी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने पुनः कपटपूर्वक कहा - "तथास्तु! आज से तुम त्रिदेवों के लिए भी अवध्य हो।" ये सुनकर राजा भक्तिपूर्वक उस तपस्वी के चरणों में गिर गया। तब उस तपस्वी ने कहा - "किन्तु एक बात सदैव स्मरण रखना कि केवल ब्राह्मणों के हाथों ही तुम्हारा अहित हो सकता है। यदि तुमने सभी ब्राह्मणों को अपने वश में कर लिया तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी तुम्हारे आधीन हो जायेंगे।"
इस पर राजा ने कहा - "हे प्रभु! मेरे गुरु तो आप ही हैं। अब आप ही बताइये कि मैं किस प्रकार ब्राह्मणों को अपने वश में करूँ?" तब उस कपटी तपस्वी ने कहा - "मैं ऐसी रसोई बना सकता हूँ जिसे बिना जाने कोई भी खायेगा तो वो तुम्हारा दास हो जायेगा। मैं कभी इस वन से बाहर नहीं गया किन्तु तुम्हारे प्रति जो मेरा प्रेम है उसके कारण मैं तुम्हारे राज्य में आऊंगा। अब तुम सो जाओ, मैं अपने तप से तुम्हे तुम्हारे अश्व सहित तुम्हारे राज्य पहुंचा दूंगा। तीन दिन बात मैं रूप बदल कर तुम्हारे राज्य आऊंगा और इस कथा को बताऊंगा, जिससे तुम मुझे पहचान लेना।" राजा ने उसके चरणों में सर नवाया और सो गया।
उसी समय कालकेतु, वो शूकर जिसने राजा को भटकाया था, वो वहां आया। वो उस कपटी तपस्वी का मित्र था। उस तपस्वी ने उसे सारी बात बताई तो वो भी बड़ा प्रसन्न हो गया। उसने कहा - "आज इस दुष्ट ने मेरे प्राण लेने का प्रयास किया। अब मैं तुम्हारी योजना से ही इसका नाश करूँगा।" ये कह कर उसने अपनी माया से प्रतापभानु को उसके अश्व सहित उसके राज्य पहुंचा दिया। जब राजा अगले दिन उठा तो स्वयं को अपने राज्य में पा कर उस तपस्वी पर उसका विश्वास और अडिग हो गया।
तीन दिन प्रतापभानु के लिए तीन युग के समान बीते। तीसरे दिन कालकेतु राक्षस ने राजा के पुरोहित का हरण कर लिया और उसका वेश धर कर उसके पास पहुंचा। उसने सब घटना राजा को बताई तो उसे ये विश्वास हुआ कि ये वही महात्मा हैं जो उसका उद्धार करने आये हैं। उसके कहने पर राजा ने १००००० ब्राह्मणों को भोज का आमंत्रण दिया और उसके आमंत्रण पर सभी ब्राह्मण भोजन करने आये।
उधर पुरोहित रुपी वो राक्षस भोजन बनाने बैठा और भोजन में अनेक पशुओं के साथ ब्राह्मणों का मांस भी मिला दिया। इससे अनजान उस भोजन को राजा स्वयं अपने हाथ से परोसने लगा। जैसे ब्राह्मणों ने उसे खाना चाहा, उस कालकेतु राक्षस ने स्वयं आकाशवाणी कर दी कि "हे ब्राह्मणों! इस भोजन को मत खाओ। इसमें पशुओं के साथ-साथ देवतुल्य ब्राह्मणों का मांस भी मिला हुआ है।"
ये सुनकर सभी ब्राह्मण भोजन छोड़ कर उठ गए। राजा ने स्वयं जब निरिक्षीण किया तो पाया कि आकाशवाणी सत्य थी। उस भोजन में मांस मिला हुआ था। ये देख कर ब्राह्मणों ने क्रोधित होकर उस राजा को श्राप दे दिया - "हे राजन! तुमने आज मनुष्यता छोड़ कर राक्षसों का कृत्य किया है। इसीलिए जाओ और अगले जन्म में अपने कुटुंब सहित राक्षस कुल में जन्म लो। अब से १ वर्ष के भीतर तुम्हारे समस्त कुल का नाश हो जायेगा।" राजा ने ऐसा श्राप सुना तो भय से मूर्छित हो गया।
उधर वो राक्षस ने जाकर ये समाचार उस तपस्वी को दिया। उसने सभी पराजित राजाओं को इकठ्ठा किया और एक साथ प्रतापभानु पर आक्रमण किया। राजा का बल कुछ काम नहीं आया और वो अपने कुटुंब सहित मृत्यु को प्राप्त हुआ। सभी राजा पुनः अपने-अपने राज्य पर आसीन हुए और वो तपस्वी राजा अपने राज्य के साथ प्रतापभानु के राज्य का भी स्वामी हुआ।
ऋषियों के श्राप के कारण ही प्रतापभानु अगले जन्म में राक्षसराज रावण के रूप में जन्मा। उसका छोटा भाई अरिमर्दन महारथी कुम्भकर्ण के रूप में जन्मा। उसके मंत्री धर्मरुचि ने भी राजा के पाप का फल भोगा किन्तु निरपराध होने के कारण वो श्रीहरि के भक्त विभीषण के रूप में जन्मा।
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