जब भी ईश्वर के अवतार की बात आती है तो भगवान विष्णु के अवतार सबसे प्रसिद्ध हैं। श्रीहरि के दशावतार तो खैर जगत विख्यात हैं किन्तु उनके कुल २४ अवतार माने जाते हैं। इन २४ अवतारों में से जो दशावतार हैं वे भगवान विष्णु के साक्षात् रूप ही हैं और अन्य १४ अवतार उनके लीलावतार माने जाते हैं। श्रीहरि के दशावतार का वर्णन विष्णु पुराण में विशेष रूप से दिया गया है। उनके २४ अवतारों का वर्णन श्रीमदभागवत और सुख सागर में दिया है। इस सूची में सभी दशावतार को रेखांकित किया गया है।
सनकादिक: ये चार बाल ब्रह्मचारी परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक हैं जो सदा बालक स्वरुप में ही रहते हैं। ये हैं - सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार। इनकी गणना प्रजापतियों में भी की जाती है। कथा के अनुसार जब ब्रह्मा जी अपने कमल की डाल पकड़ कर १००० वर्षों तक चले तब उन्हें नारायण के दर्शन हुए जिनकी नाभि से जुड़े कमल पर उनका प्राकट्य हुआ था। तब नारायण की प्रेरणा से ही ब्रह्मा ने उन्ही के अंश से इन सनकादिक ऋषियों को प्रकट किया और सृष्टि की उत्पत्ति का आदेश दिया। किन्तु देवर्षि नारद ने उन्हें प्रवचन दे कर ब्रह्मचारी बना दिया। इन्ही सनकादिक ऋषियों ने भगवान विष्णु के पार्षदों जय और विजय को श्राप दिया था जिससे ये तीन जन्मों तक पृथ्वी पर भटकते रहे।
वाराह: ये दशावतार में से एक हैं और दशावतार में इनका क्रम चौथा है। हिरण्यकशिपु के छोटे भाई हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को रसातल में छिपा दिया तब पृथ्वी का उद्धार करने और हिरण्याक्ष का वध करने श्रीहरि वाराह रूप में अवतरित हुए। उन्होंने पृथ्वी को अपनी दाढ़ पर रख कर पुनः स्थापित किया और फिर युद्ध कर हिरण्याक्ष का वध किया। बहुत लोग समझते हैं कि हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को सागर में छिपा दिया था किन्तु ऐसा नहीं है। इसके बारे में एक विस्तृत लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
नारद: नारद मुनि परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं जिनकी उत्पत्ति उनके कंठ से हुई थी। ये देवताओं के ऋषि हैं इसीलिए इन्हे देवर्षि कहा जाता है। भगवान ब्रह्मा ने इनकी उत्पत्ति संसार के विस्तार के लिए की थी किन्तु इन्होने संन्यास को महत्त्व दिया और संतोनोत्पत्ति के कार्य से मना कर दिया। यही नहीं, इन्होने सनत्कुमारों को भी समझा बुझा कर संन्यासी बना दिया। इससे ब्रह्म्देव अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने नारद को कही एक जगह ना टिकने का श्राप दे दिया। तब से देवर्षि सदैव भ्रमण करते रहते हैं। ये श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं और सदैव "नारायण-नारायण" का जाप करते रहते हैं। भगवान विष्णु को जो भी लीला करनी होती है वे इन्ही के माध्यम से करवाते हैं, इसी कारण इन्हे श्रीहरि का मन कहा जाता है। ये सभी शास्त्रों के ज्ञाता और त्रिकालदर्शी हैं। इन्होने ही ध्रुव, प्रह्लाद आदि को विष्णु भक्ति का ज्ञान दिया। माता पार्वती को महादेव की तपस्या करने के लिए भी इन्होने ही प्रेरित किया था।
नर-नारायण: विश्व में तप का प्रभाव बढ़ाने के लिए भगवान विष्णु ने ब्रह्मा पुत्र धर्म और उनकी पत्नी रूचि के पुत्र बनकर नर-नारायण नाम के जुड़वां संतों के रूप में अवतार लिया। इन्होने बद्रीनाथ तीर्थ में घोर तपस्या की जिससे बद्रीनाथ तीर्थों में श्रेष्ठ बन गया। इन दोनों में नर की दो भुजाएं हैं और वे मृगचर्म पहने रहते हैं। वहीँ नारायण श्रीहरि की भांति ही चतुर्भुज रूप में रहते हैं। साथ मिलकर ये दोनों मनुष्य (नर) और ईश्वर (नारायण) के सामंजस्य को प्रतिपादित करते हैं। पृथ्वी पर धर्म के प्रसार का श्रेय इन्ही दोनों को प्राप्त होता है। नर और नारायण ने ही महाभारत में श्रीकृष्ण (नारायण) और अर्जुन (नर) के रूप में अवतार लिया था। ब्रह्मपुराण के अनुसार नर-नारायण को बद्रीनाथ में तपस्या करते देख इंद्र ने अनेकों अप्सराओं को उनका तप भंग करने भेजा। उन्हें देख कर नारायण ने कमल के पुष्प से अपनी जंघा को चीरा जिससे एक ऐसी स्त्री का जन्म हुआ जिसकी सुंदरता देख कर सभी अप्सराओं ने लज्जा से अपने सर झुका लिए। नर-नारायण ने उस स्त्री को इंद्र को भेंट दिया और पुनः तपस्या करने लगे। नारायण उरु अर्थात जंघा से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम उर्वशी हुआ।
कपिल: स्वयंभू मनु की दूसरी पुत्री देवहुति का विवाह कर्दम प्रजापति के साथ हुआ जिनसे उन्हें ९ पुत्रियों की प्राप्ति हुई - कला, अनुसूया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती और शान्ति। कर्दम प्रजापति ने एक पुत्र की कामना हेतु श्रीहरि की तपस्या की जिससे प्रसन्न हो वे स्वयं उनके पुत्र कपिल मुनि के रूप में जन्में। श्रीकृष्ण ने गीता में इन्हे श्रेष्ठ मुनि कहा है। जन्म के साथ ही इन्हे सारी विद्या और सारी सिद्धि प्राप्त हो गयी और ये आदिसिद्धि और आदिविद्वान कहलाये। इन्होने अपनी माता देवहुति को सांख्य ज्ञान का उपदेश दिया। इन्ही के नाम से कपिलवस्तु नगर की स्थापना हुई जहाँ बाद में गौतम बुद्ध ने जन्म लिया। इन्होने ही राजा सगर के ६०००० पुत्रों को भस्म कर दिया था। ब्रह्म पुराण के अनुसार एक बार ये शयन कर रहे थे। उसी समय राजा सगर के ६०००० पुत्र अपने अश्वमेघ का अश्व खोजते हुए वहां उत्पात मचाने लगे जिससे इनकी निद्रा टूट गयी और इनके दृष्टिपात से उन सभी राजकुमारों का अंत हो गया। बाद में उनके सगर के प्रपौत्र भगीरथ ने माता गंगा को पृथ्वी पर लाकर सबका उद्धार किया।
दत्तात्रेय: कर्दम प्रजापति की पुत्री और कपिल मुनि की बहन अनुसूया का विवाह महर्षि अत्रि से हुआ। एक बार त्रिदेवियों ने त्रिदेवों से प्रार्थना की कि वे अनुसूया के पतिव्रत की परीक्षा लें। त्रिदेवों ने उन्हें बड़ा समझाया किन्तु वे नहीं मानी। तब त्रिदेव ऋषि के रूप में अनुसूया के पास गए और भोजन की मांग की। उन्होंने कहा कि वे उन्ही के हाथ से भोजन करते हैं जो उन्हें निर्वस्त्र हो भोजन करा सके। तब अनुसूया ने अपने पतिव्रत धर्म की शक्ति से उन तीनों को ६-६ मास का बालक बना दिया और स्तनपान कराया। तब त्रिदेव प्रसन्न होकर उनके पुत्र के रूप में जन्मे। शंकर से सबसे ज्येष्ठ दुर्वासा, ब्रह्मा से चंद्र, और नारायण से सबसे छोटे दत्तात्रेय का जन्म हुआ। दत्तात्रेय उनमें से सर्वश्रेष्ठ माने गए क्यूंकि उनका जन्म ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अंश से हुआ था। उनके तीन मुख त्रिदेवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। कर्त्यवीर्य अर्जुन दत्तात्रेय के महान भक्त थे। ययाति पुत्र यदु ने उनसे उनके गुरु के विषय में पूछा था तो उन्होंने अपने २४ गुरु गिनवाए।
यज्ञ: परमपिता ब्रह्मा से स्वयंभू मनु और माता शतरूपा की उत्पत्ति हुई। इन्ही दोनों से मानव सभ्यता का आरम्भ हुआ। दोनों के १० पुत्र और तीन कन्यायें हुई। कन्याओं में से ज्येष्ठ आकूति का विवाह रूचि प्रजापति से हुआ जिनके पुत्र के रूप में भगवान विष्णु यज्ञ नामक बालक के रूप में जन्में। इन्ही से माता लक्ष्मी दक्षिणा के रूप में जन्मी जिनका विवाह यज्ञ से हुआ। इन दोनों के १२ पुत्र हुए जो याम कहलाये। ये थे - तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, सन्ति, ईदस्पति, इधम, कवि, विभु, स्वाहन, सुदेव और रोचन। स्वयंभू मनु के शासनकाल में इंद्र का पद रिक्त था और उनके अनुरोध पर यज्ञ ने प्रथम मन्वन्तर के इंद्र का पद ग्रहण किया। इन्ही के नाम पर कर्मकांड में यज्ञ प्रथा आरम्भ हुई। लिंग पुराण के अनुसार यही यज्ञ प्रजापति दक्ष के यञपुरुष थे। जब वीरभद्र ने यज्ञ का विध्वंस किया तो उन्होंने हिरन का रूप लिया और वहाँ से जाने लगे। किन्तु वीरभद्र ने क्रोध में आकर इनका शिरच्छेद कर दिया।
ऋषभदेव: इन्हे भगवान शंकर और श्रीहरि दोनों का अवतार माना जाता है। ये जैन धर्म के पहले तीर्थंकर थे। जैन धर्म के अनुसार इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न प्रथम कुलकर नाभिराज और रानी मरुदेवी के संतान के रूप में भगवान विष्णु अपने अंशावतार के रूप में जन्मे। इन्हे आदिनाथ भी कहते हैं और जैन धर्म में इन्हे अरिहंत की पदवी भी दी जाती है। जब इनका जन्म हुआ था तो स्वयं देवराज इंद्र ऐरावत पर इन्हे बिठा कर मेरु पर्वत पर अभिषेक के लिए ले गए। इनकी दो पत्नियां थी - नंदा एवं सुनंदा। इनसे इन्हे १०० पुत्र और दो पुत्रियां प्राप्त हुई। सुनंदा ने ब्राह्मी और सुंदरी नामक दो पुत्रियों को जन्म दिया और नंदा (यशावती) ने १०० पुत्रों को जन्म दिया जिनमें ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती थे और दूसरे पुत्र का नाम बाहुबली था। इनकी आयु ८४००००० वर्षों की मानी गयी है, हालाँकि जैन धर्म में इनकी आयु और भी अधिक है जिसे पूर्व वर्ष के रूप में माना जाता है। एक पूर्व वर्ष ८४००००० वर्षों का होता है। ऋषभनाथ के बल के विषय में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
पृथु: आदि कल में वेन नामक एक अत्यंत दुष्ट राजा था जिसके पास से बचने के लिए भूमि देवी एक गाय का रूप लेकर छिप गयी और संसार में अराजकता छा गयी। उसकी दुष्ट प्रवृति के कारण महर्षियों ने अपने हुंकार द्वारा मार डाला। वेन निःसंतान मरा जिसके बाद संसार को व्यवस्थित करने के लिए उसकी दोनों भुजाओं का मंथन किया गया जिससे एक पुरुष और एक नारी का प्रादुर्भाव हुआ। दक्षिण भाग से श्रीहरि अपने अंश से पृथु के रूप में जन्मे और वाम भाग से माता लक्ष्मी अर्चि के नाम से प्रकट हुई। महाराज पृथु ने ही समस्त भूमि को समतल बनाया ताकि लोग उस पर रह सकें। उन्होंने समाज की व्यवस्था स्थापित की जिस कारण उन्हें प्रथम राजा माना गया। उन्होंने आग्रह कर भूमि देवी को पुनः प्रतिष्ठित किया और पृथु के नाम पर ही भूमि देवी पृथ्वी कहलायी। इन्होने ९९ अश्वमेघ यज्ञ किये और अंतिम यज्ञ का अश्व इंद्र ले भागे। तब इनका विग्रह इंद्र के साथ हुआ जिसे ब्रह्माजी ने समझा बुझा कर शांत किया।
मत्स्य: एक बार ब्रह्मा पुत्र स्वम्भू मनु सूर्य को जल अर्पण कर रहे थे कि उनकी अंजुलि में एक छोटी सी मछली आ गयी। उसने उनसे रक्षा की प्रार्थना की जिसे सुन कर स्वयंभू मनु ने उसे एक पात्र में रखवा दिया। किन्तु कुछ ही समय में वो मछली इतनी बड़ी हो गयी जिसे नदी में भी नहीं रखा जा सकता था। मनु ये समझ गए कि ये साधारण मत्स्य नहीं है। उन्होंने जब उससे रहस्य पूछा तो भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और बताया कि आज से ७वें दिन पूरी पृथ्वी प्रलय में डूब जाएगी। तब वे सप्तर्षियों, बीजों और पशुओं के साथ एक नौका में बैठ जाएँ। जब प्रलय का दिन आया तो मनु सप्तर्षियों, बीजों और पशुओं के साथ एक विशाल नौका में बैठ गए। तब प्रभु ने मत्स्य अवतार लेकर उनकी रक्षा की।
कूर्म: जब महर्षि दुर्वासा के श्राप से पृथ्वी श्रीहीन हो गयी तब देवों और दैत्यों ने समुद्र मंथन किया। मंदराचल पर्वत को उसकी मथनी बनाया गया और नागराज वासुकि नेती बनें। किन्तु जैसे ही समुद्र मंथन आरम्भ हुआ, अपने भार के कारण मंदार पर्वत डूबने लगा। तब ब्रह्मा जी के आग्रह पर श्रीहरि ने एक विशाल कच्छप का रूप लिया और मंदराचल को अपने पीठ पर धारण किया। तब उनके पीठ पर ही समुद्र मंथन पूर्ण हुआ और देवों और दैत्यों को अपार सम्पदा के साथ अमृत भी प्राप्त हुआ, जिसे देवों ने पी लिया। कहा जाता है कि आज कछुए की पीठ पर जो कवच होता है वो उसी घर्षण से बना है।
धन्वन्तरि: समुद्र मंथन से १३ रत्नों के निकल जाने के बाद अंतिम रत्न के रूप में अमृत का प्रादुर्भाव हुआ। उस समय भगवान श्रीहरि ने देव धन्वन्तरि का अवतार लिया और अमृत को अपने हाथों में ले कर समुद्र से बाहर आये। धन्वन्तरि देवताओं के वैद्य भी हैं और इसी दिन को धनतेरस के नाम से मनाया जाता है। नारायण की भांति ही धन्वन्तरि भी चतुर्भुज हैं और ऊपर के दो हाथों में श्रीहरि की भांति ही शंख और चक्र धारण करते हैं। अन्य दो हाथों में औषधि और अमृत कलश होता है। मान्यता है कि देव धन्वन्तरि से ही आयुर्वेद का आरम्भ हुआ।
मोहिनी: जब धन्वन्तरि अमृत लेकर निकले तो देवों और दैत्यों में उसे प्राप्त करने की होड़ लग गयी। देव धन्वन्तरि उसे लेकर भागने लगे ताकि अमृत गलत हाथों में ना पड़ जाये। भगवान विष्णु ये जानते थे कि यदि अमृत दैत्यों के हाथ लग गया तो अनर्थ हो जाएगा। तब उन्होंने अमृत की रक्षा के लिए एक परम सुंदरी स्त्री "मोहिनी" का रूप धारण किया। उनका सौंदर्य ऐसा था कि देव-दैत्य सभी उन्हें एकटक निहारने लगे। मोहिनी ने कहा कि देव और दैत्य पंक्ति में बैठ जाएँ, वो स्वयं उन्हें अमृत पिलाएगी। किन्तु मोहिनी रूपी नारायण ने देवताओं को अमृत पिलाया जबकि दैत्यों को मदिरा। स्वर्भानु नामक दैत्य ये समझ गया और वेश बदल कर देवों के मध्य बैठ गया। मोहिनी ने उसे अमृत दिया किन्तु चंद्र ने उसे पहचान लिया। जैसे ही स्वर्भानु ने अमृत पिया, मोहिनी ने अमृत उसके कंठ से नीचे उतरने से पहले ही अपने सुदर्शन चक्र से उसका सर काट दिया। स्वर्भानु का सर राहु कहलाया जो अमृत पीने के कारण अमर हुआ और धड़ केतु कहलाया।
हयग्रीव: अपने इस अवतार में भगवान विष्णु ने हयग्रीव नाम के ही एक दानव को मार कर वेदों की रक्षा की थी। एक बार माता लक्ष्मी की सुंदरता देख कर श्रीहरि मुस्कुराने लगे किन्तु माता लक्ष्मी ने समझा कि प्रभु उनका उपहास कर रहे हैं। तब उन्हें अपने ही स्वामी को ये श्राप दिया कि मुझपर हसने वाला आपका ये सर आपके धड़ से विलग हो जाएगा। दूसरी ओर महर्षि काश्यप और दनु का पुत्र हयग्रीव, जिसका सर अश्व का था उसने माता पार्वती को प्रसन्न कर ये वरदान माँगा कि उसकी मृत्यु हयग्रीव के हाथों ही हो। वरदान मिलने पर उसने ब्रह्माजी से वेदों को चुरा लिया जिससे समस्त जगत में अज्ञान छा गया। तब श्रीहरि ने उसे युद्ध के लिए ललकारा और दोनों में ७ दिनों तक घोर युद्ध हुआ पर अपने वरदान के कारण हयग्रीव बचा रहा। आठवें दिन जब दोनों विश्राम कर रहे थे तब ब्रह्मा जी ने अपने तेज से एक कीड़े को उत्पन्न किया और उससे कहा कि वो श्रीहरि के धनुष की प्रत्यंचा काट दे। उसने ऐसा ही किया। भगवान विष्णु उसी प्रत्यंचा पर विश्राम कर रहे थे और प्रत्यंचा काटने से एक जोरदार टंकार हुई और श्रीहरि का मस्तक कट गया। तब प्रभु की लीला समझ कर माता पार्वती ने ब्रह्मदेव से उनके धड़ पर अश्व का मुख लगाने को कहा। अश्विनीकुमारों ने ब्रह्माजी की आज्ञा से प्रभु के धड़ पर अश्व का मस्तक लगाया जिसके बाद उन्होंने हयग्रीव का वध कर वेदों को ब्रह्माजी को सौंप दिया।
गजेन्द्रोधारावतर: पौराणिक कथा के अनुसार इन्द्रद्युम्न नामक एक द्रविड़ पाण्ड्य राजा महर्षि अगस्त्य के श्राप से गज की योनि को प्राप्त हुए। उसी समय हूहू नामक गन्धर्व देवल ऋषि के श्राप से ग्राह (मगरमच्छ) योनि को प्राप्त हुए। आगे चल कर उन दोनों में युद्ध हुआ जो १००० वर्षों तक चलता रहा। अंत में जल में होने के कारण ग्राह का पड़ला भारी हुआ और वो गजराज को खींच कर जल के अंदर ले जाने लगा। तब गजराज ने पूरे मन से श्रीहरि को पुकारा। भक्त की पुकार सुनकर श्रीहरि गरुड़ पर बैठ कर वहां आये और अपने सुदर्शन चक्र से उन्होंने उस ग्राह को मार कर उसे श्राप मुक्त किया। इस प्रकार उन्होंने अपने भक्त गजराज की रक्षा की और उसे भी गज योनि से मुक्ति प्रदान की।
नृसिंह: इनका स्थान दशावतार में चौथा है। भगवान वाराह द्वारा हिरण्याक्ष के वध के बाद हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से अमोघ बल और वरदान प्राप्त किया कि उसे इस जगत का कोई प्राणी किसी भी अस्त्र से कही भी और किसी भी समय ना मार सके। तत्पश्चात उसने ईश्वर की पूजा बंद करवा दी और स्वयं को ईश्वर घोषित कर दिया। किन्तु उसका अपना पुत्र प्रह्लाद ही विष्णु भक्त निकला। ये देख कर हिरण्यकशिपु उसे मारने को उद्धत हुआ। तब अपने भक्त की रक्षा के लिए श्रीहरि ने आधे सिंह और आधे मनुष्य के रूप में अवतार लिया। वो ब्रह्मा द्वारा बनाये सभी प्राणियों से अलग थे। उस समय गोधूलि वेला थी और भगवान नृसिंह उसका वध अपने नखों से कर रहे थे। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी जंघा पर रख कर अपने नखों से फाड़ डाला। तत्पश्चात उन्होंने प्रह्लाद को दैत्यों का राजा घोषित किया।
वामन: ये दशावतार में पांचवे अवतार हैं। दैत्यराज बलि ने अपने तप की शक्ति से देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया और स्वर्ग पर स्थाई शासन के लिए अपने गुरु शुक्राचार्य की सहायता से एक यज्ञ करने लगे। उसी समय महर्षि कश्यप और अदिति के पुत्र के रूप में श्रीहरि ने वामन अवतार लिया और बलि के यज्ञ में पहुंचे। वहां उन्होंने बलि से तीन पग भूमि का दान माँगा जिसका संकल्प बलि ने कर लिया। तब भगवान वामन ने अपना विराट स्वरुप धरा और एक पग से पृथ्वी और दूसरे पग से आकाश को नाप लिया। इस पर उनके तीसरे पग के लिए बलि ने अपना शीश आगे कर दिया। उसकी दानवीरता से प्रसन्न हो भगवान वामन ने उन्हें पाताल का स्थाई राज्य प्रदान किया और साथ ही चिरंजीवी रहने का वरदान भी दिया।
हंस: ये अवतार भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी का मान रखने के लिए लिया था। एक बार ब्रह्माजी अपने लोक में सभा कर रहे थे कि तभी चारो सनत्कुमार दिगंबर वेश में वहां पधारे। आसान ग्रहण कर उन्होंने अपने पिता को प्रणाम कर मोक्ष सम्बन्धी कुछ गूढ़ प्रश्न किये। वे प्रश्न इतने जटिल थे कि स्वयं ब्रह्मा भी सोंच में पड़ गए। तब उस परिस्थिति से उबरने के लिए परमपिता श्रीहरि का स्मरण करने लगे। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु एक दिव्य हंस के रूप में उस सभा में आये और सनत्कुमारों के मोक्ष सम्बन्धी शंका का निवारण किया। उसके बाद सनत्कुमारों ने और भी कई गूढ़ प्रश्न किये जिसका उत्तर हंसरूपी श्रीहरि ने दिया। तत्पश्चात सनत्कुमार ज्ञान से परिपूर्ण हो उन्हें प्रणाम कर वहां से चले गए।
परशुराम: श्रीहरि अपने छठे अवतार के रूप में महर्षि जमदग्नि और रेणुका के पुत्र राम के रूप में अवतरित हुए। वे पांच भाइयों में सबसे छोटे थे। एक बार उनकी माता के एक अपराध पर जमदग्नि ऋषि ने अपने सभी पुत्रों को अपनी माता के वध का आदेश दिया। कोई भी उनके इस आदेश का पालन नहीं कर सका पर राम ने अपने पिता के आदेश पर अपनी माता का मस्तक काट लिया। इससे जमदग्नि बड़े प्रसन्न हुए और राम को वरदान स्वरुप उसकी माता का जीवन वापस दे दिया। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने नाना महर्षि विश्वामित्र से प्राप्त की। फिर त्रिदेवों को प्रसन्न कर उन्होंने अनेकानेक वरदान प्राप्त किये और अजेय हो गए। महादेव ने उन्हें विद्युतभि नामक अमोघ परशु दिया जिस कारण वे परशुराम कहलाये। उन्होंने युद्ध कर सहस्त्रार्जुन का वध किया। बाद में जब अर्जुन के पुत्रों ने उनके पिता की हत्या कर दी तो क्रोध में आकर परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया। तब महर्षि कश्यप ने उन्हें समझा-बुझा कर ये नरसंहार रुकवाया। ये अष्ट चिरंजीवियों में से एक हैं। श्रीराम से साक्षात्कार के बाद इन्होने संन्यास ग्रहण कर लिया। महाभारत काल में ये भीष्म, द्रोण और कर्ण के गुरु थे। कलियुग में जब कल्कि अवतार होगा तो वे उनके भी गुरु बनेंगे। ये अष्टचिरंजीवियों में से एक हैं।
राम: पृथ्वी को रावण के आतंक से मुक्त करवाने हेतु श्रीहरि ने अपनी १२ कला के साथ अयोध्या नरेश दशरथ और कौशल्या के पुत्र राम के रूप में सातवां अवतार लिया। अल्पायु में ही महर्षि विश्वामित्र इन्हे और लक्ष्मण को अपने साथ वन ले गए जहाँ इन्होने ताड़का, सुबाहु और अन्य राक्षसों का वध किया। बाद में इन्होने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या को श्राप मुक्त किया। विश्वामित्र इन दोनों को लेकर जनकपुरी गए जहाँ श्रीराम ने महादेव के प्रसिद्ध पिनाक धनुष को भंग कर जनक पुत्री सीता से विवाह किया। मंथरा के प्रपंच के कारण इन्हे लक्ष्मण और माता सीता के साथ १४ वर्ष का वनवास मिला। वहां रावण ने माता सीता का हरण कर लिया। तब इन्होने महाबली हनुमान की सहायता से सुग्रीव से मित्रता की और लंका पर चढ़ाई की। रावण के भाई विभीषण इनकी शरण में आये जिन्हे इन्होने लंका का राजा घोषित किया। अंततः इन्होने रावण का वध कर माता सीता को मुक्त किया। बाद में इन्होने ११००० वर्षों तक अयोध्या में शासन किया।
वेदव्यास: अष्टचिरंजीवियों में से एक महर्षि वेदव्यास की गणना हिन्दू धर्म के सर्वकालिक महान ऋषियों में की जाती है। ये पराशर पुत्र थे और इन्होने ही १८ महापुराण और महाभारत की रचना की। एक बार महर्षि पराशर नदी पार करने के लिए सत्यवती के नाव में बैठे। सत्यवती को देख कर उनके मन में काम का प्रवाह हुआ और उन दोनों के समागम से श्रीहरि के अंश के रूप में एक द्वीप पर महर्षि व्यास का जन्म हुआ। अल्पायु में ही उन्होंने सभी वेदों का अध्ययन कर लिया। इन्होने ही वेदों को वर्गीकृत किया जिससे ये वेदव्यास कहलाये। कुरुकुल पर संकट जान कर अपनी माता के आदेश पर इन्होने ही अम्बिका, अम्बालिका और पारिश्रमी को पुत्र दान दिया जिनसे क्रमशः धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर का जन्म हुआ। गांधारी ने जब मांसपिंड का प्रसव किया तो इन्होने ही उससे १०० कौरवों का जन्म करवाया। महाभारत युद्ध के अंत में इन्होने ही देवर्षि नारद के साथ मिलकर अर्जुन और अश्वथामा के युद्ध को रुकवाया और सृष्टि को विनाश से बचाया।
बलराम: देवकी के सातवें पुत्र के रूप में श्रीहरि ने बलराम अवतार लिया। दशावतार में इनका क्रम आठवां है। कंस देवकी के सभी पुत्रों को मारने का प्रण किया था इसी कारण योगमाया से ये देवकी के गर्भ से वासुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में प्रस्थापित हो गए। इससे इनका एक नाम संकर्षण पड़ा। अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण के साथ इन्होने बचपन में ही अनेकों राक्षसों का संहार कर दिया। फिर १३ वर्ष की आयु में ये श्रीकृष्ण के साथ ही मथुरा गए जहाँ पर दोनों ने चाणूर और मुष्टिक सहित अनेकों मल्लों का वध कर दिया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण के हाथों कंस का वध हुआ। श्रीकृष्ण के साथ इन्होने द्वारिका नामक नगरी बसाई और यादवों के साथ वहां रहने लगे। महाभारत के युद्ध में इनका मत श्रीकृष्ण के मत से अलग था, इसी कारण इन्होने किसी भी पक्ष का साथ नहीं दिया और तीर्थ को चले गए। गांधारी के श्राप के कारण इन्होने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर सम्पूर्ण यदुवंश का नाश कर दिया और कृष्ण से कुछ समय पहले इन्होने निर्वाण लिया। जनमानस में प्रसिद्ध है कि बुद्ध श्रीहरि के अवतार थे किन्तु ऐसा नहीं है। इसके बारे में विस्तार से जानने के लिए इस लेख को पढ़ें।
कृष्ण: अपने नवें अवतार के रूप में श्रीहरि यदुकुल में अपनी सभी १६ कलाओं के साथ मथुरा के कारागार में जन्में। उन्ही की कृपा से वसुदेव ने इन्हे नन्द के पास पंहुचा दिया जहाँ पर नन्द और यशोदा ने उनका लालन पालन किया। उनका बचपन लीलाओं से भरा रहा जहाँ उन्होंने कई राक्षसों का वध किया। केवल १२ वर्ष की आयु में उन्होंने मथुरा जाकर कंस का वध किया और अपने माता पिता का उद्धार किया। बाद में जरासंध के आक्रमणों से तंग अगर वे द्वारिका में जाकर बस गए। श्रीहरि ने कृष्ण अवतार वास्तव में धर्म की पुनर्स्थापना के लिए लिया था। श्रीकृष्ण वास्तव में महाभारत की धुरी थे जिन्होंने इस पूरे युद्ध को संचालित किया। महाभारत युद्ध में ये अर्जुन के सारथि बने और बिना शस्त्र उठाये इन्होने हर संभव प्रयास से पांडवों को उस युद्ध में विजयी बनाया। महाभारत के माध्यम से इन्होने पृथ्वी का बोझ उतारा और विश्व में आर्यावर्त की पुनर्स्थापना की। श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का सबसे समकक्ष अवतार माना जाता है इसीलिए वे पूर्णावतार या परमावतार कहलाते हैं।
कल्कि: दशावतार में अंतिम अवतार भविष्य में भगवान कल्कि का होगा। दशावतार में केवल यही एक ऐसे अवतार हैं जो हर चतुर्युग में अवतरित होते हैं जबकि अन्य नौ अवतार कल्प में केवल एक बार अवतरित होते हैं। जब कलियुग और सतयुग का संधिकाल आएगा तो पृथ्वी को पापियों से मुक्त कराने हेतु श्रीहरि अपने ४ कलाओं के साथ कल्कि अवतार लेंगे। उस महाविनाश के बाद पुनः सतयुग का आरम्भ होगा। अपने इस अवतार में वे संभल गांव के ब्राह्मण विष्णुयश और सुमति के पुत्र के रूप में ये जन्म लेंगे। विवाह के लिए ये सिंहल द्वीप जाएंगे जहाँ माता लक्ष्मी की अवतार माता पद्मावती से इनका विवाह होगा। इस अवतार में भगवान परशुराम इनके गुरु होंगे।
हिन्दू धर्म के अतिरिक्त सिख धर्म में भी चौबीस अवतारों की बड़ी महत्ता है। सिखों के दसवें गुरु श्री गोबिंदसिंह ने दशम ग्रन्थ की रचना की जिसके ८वें खंड में इन्होने चौबीस अवतारों का वर्णन किया है। हालाँकि इनके द्वारा बताये गए २४ अवतारों में थोड़ी भिन्नता देखने को मिलती है। दशम ग्रन्थ के अनुसार चौबीस अवतार हैं -
मच्छ (मत्स्य), कच्छ (कूर्म), नर, नारायण, महा मोहिनी, बैराहा (वाराह), नरसिंह, बामन (वामन), परशुराम, ब्रम्मा (ब्रह्मा), रूद्र, जालंधर, बिशन (विष्णु), शेषायी (बलराम), अरिहंत (ऋषभदेव), मनु, धन्वन्तरि, सूरज (सूर्य), चन्दर (चंद्र), राम, किशन (कृष्ण), नर (अर्जुन), बुद्ध एवं कल्कि।
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