आपमें से कई लोग सोच रहे होंगे कि आज मैं ये कौन सा विषय लेकर आ गया। हम सभी ने हमेशा यही पढ़ा है कि पंचकन्याओं में से एक अहिल्या सर्वथा निर्दोष थी और महर्षि गौतम ने उन्हें बिना सत्य जाने श्राप दे दिया था। बाद में श्रीराम ने उनका उद्धार किया था। बरसों से हम यही सुनते और देखते आ रहे हैं। किन्तु आज हम इस घटना के सत्य को जानने का प्रयत्न करेंगे।
ऐसी शंकाएं लोगों के मन में केवल इसलिए आती हैं क्यूंकि उन्होंने कभी मूल ग्रन्थ पढ़ा ही नहीं होता। और जब मैं बोल रहा हूँ मूल ग्रन्थ, तो मैं वाल्मीकि रामायण की बात कर रहा हूँ, ना कि रामचरितमानस की। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज के समाज में रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण से बहुत अधिक प्रचलित है किन्तु मूल ग्रन्थ तो वाल्मीकि रामायण ही है।
अब चूँकि रामचरितमानस इतनी अधिक प्रचलित है, लोग उसी को पढ़ते हैं। यहाँ तक कि १९८७ में बनी रामानंद सागर का प्रसिद्ध सीरियल रामायण भी मुख्यतः रामचरितमानस पर ही आधारित था। अब जब लोग वही पढ़ते और देखते हैं जो हमारे सामने है, वे उस सत्य को नहीं जान पाते जो कि मूल ग्रन्थ में लिखा गया है। तो यदि आपको इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर चाहिए तो आपको वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड का ४८ वां सर्ग पढ़ना चाहिए।
अब जो मैं बताने जा रहा हूँ उसे बड़े ध्यान से सुनिए और एक बात का विशेष ध्यान रखिये कि मैं ये बातें मूल वाल्मीकि रामायण से बता रहा हूँ। इसीलिए यदि आपने रामचरितमानस या रामायण का कोई और संस्करण पढ़ा है या कोई टीवी सीरियल देखा हो तो उसे एक पल के लिए भूल जाइये। वैसे तो वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के ४८ वें सर्ग में कुल ३३ श्लोक हैं किन्तु मैं केवल दो श्लोकों का वर्णन करूँगा जिससे आपको बात समझ में आ जाएगी।
लोगों की ये आम धारणा है कि इंद्र गौतम ऋषि का वेश बना कर आये इसी कारण अहिल्या उन्हें पहचान नहीं पायी, जो कि बिलकुल गलत है। अहिल्या का जन्म स्वयं ब्रह्मदेव से हुआ था और उन्हें छला नहीं जा सकता था। वाल्मीकि रामायण में ये साफ लिखा है कि जब इंद्र गौतम ऋषि के वेश में आये और अहिल्या से प्रणय याचना की तब अहिल्या ने ये जान लिया था कि ये उनके पति नहीं हैं। किन्तु ये जान कर कि स्वयं देवराज इंद्र उनसे प्रणय याचना कर रहे हैं, अहिल्या ने सब कुछ जानते बुझते कौतुहल में उनकी बात मान ली। यह बात महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण को बताते हैं।
मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात्॥
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक १९
अर्थात: ‘रघुनन्दन ! महर्षि गौतम का वेष धारण करके आये हुए इन्द्र को पहचानकर भी उस दुर्बुद्धि नारी ने ‘अहो! देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं’ इस कौतूहल वश उनके साथ समागम का निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
यहाँ तक कि इंद्र से समागम के पश्चात अहिल्या इंद्र को धन्यवाद देते हुए कहती हैं कि अब आप शीघ्रता से यहाँ से चले जाइये और महर्षि गौतम के क्रोध से मेरी और स्वयं अपनी रक्षा कीजिये।
अथाब्रवीत् सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना।
कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो॥
आत्मानं मां च देवेश सर्वथा रक्ष गौतमात्।
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २०
अर्थात: ‘रति के पश्चात् उसने देवराज इन्द्र से संतुष्टचित्त होकर कहा–’सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गयी। प्रभो! अब आप शीघ्र यहाँ से चले जाइये। देवेश्वर! महर्षि गौतम के कोप से आप अपनी और मेरी भी सब प्रकार से रक्षा कीजिये’।
इसके बाद की कथा हम जानते हैं कि जब इंद्र वापस जाने के लिए बाहर निकले तो महर्षि गौतम ने उन्हें देख लिया। ये देख कर महर्षि गौतम ने प्रथम दंड इंद्र को ही दिया। महर्षि गौतम ने इंद्र को नपुंसक हो जाने का श्राप दे दिया।
मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते।
अकर्तव्यमिदं यस्माद विफलस्त्वं भविष्यसि॥
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २७
अर्थात: “दुर्मते! तूने मेरा रूप धारण करके यह न करने योग्य पापकर्म किया है, इसलिये तू विफल (अण्डकोषों से रहित) हो जायगा’।
गौतमेनैवमुक्तस्य सुरोषेण महात्मना।
पेततुर्वृषणी भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात्॥
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २८
अर्थात: ‘रोष में भरे हुए महात्मा गौतम के ऐसा कहते ही सहस्राक्ष इन्द्र के दोनों अण्डकोष उसी क्षण पृथ्वीपर गिर पड़े।
अब आते हैं अहिल्या के दंड पर। लोगों को ऐसा लगता है कि महर्षि गौतम ने उन्हें पत्थर बन जाने का श्राप दिया, पर ये भी गलत है। वास्तव में गौतम ऋषि ने अहिल्या को कई हजार वर्षों तक अदृश्य रूप में उसी आश्रम में प्रायश्चित करने का श्राप दिया।
तथा शप्त्वा च वै शक्रं भार्यामपि च शप्तवान्।
इह वर्षसहस्राणि बहूनि निवसिष्यसि ॥
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक २९
वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी।
अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि॥
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३०
अर्थात: इन्द्र को इस प्रकार शाप देकर गौतम ने अपनी पत्नी को भी शाप दिया - 'दुराचारिणी! तू भी यहाँ कई हजार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी।'
यदा त्वेतद् वनं घोरं रामो दशरथात्मजः।
आगमिष्यति दुर्धर्षस्तदा पूता भविष्यसि॥
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३१
तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता।।
मत्सकाशं मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि॥
बालकाण्ड, सर्ग ४८, श्लोक ३२
अर्थात: जब दुर्धर्ष दशरथ-कुमार राम इस घोर वन में पदार्पण करेंगे, उस समय तू पवित्र होगी। उनका आतिथ्य-सत्कार करने से तेरे लोभ-मोह आदि दोष दूर हो जायँगे और तू प्रसन्नतापूर्वक मेरे पास पहुँचकर अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी।’
लोग ऐसा भी सोचते हैं कि श्रीराम ने शिलरूपी अहिल्या के मस्तक पर अपने चरण रख कर उसका उद्धार किया था, जो बिलकुल गलत है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के ४९ वें सर्ग में महर्षि विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं कि 'हे राम! ये तपस्विनी सहस्त्रों वर्षों से तप करते हुए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है इसलिए तुम दोनों भाई जाकर इसके चरण छुओ।' तब श्रीराम और लक्ष्मण अहिल्या के चरण छूते हैं जिससे अहिल्या श्रापमुक्त होती है और तब महर्षि गौतम पुनः उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं।
राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा।
स्मरन्ती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा हि तौ॥
बालकाण्ड, सर्ग ४९, श्लोक १७
अर्थात: उस समय श्रीराम और लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अहल्या के दोनों चरणोंका स्पर्श किया। महर्षिगौतम के वचनों का स्मरण करके अहल्या ने बड़ी सावधानी के साथ उन दोनों भाइयों को आदरणीय अतिथि के रूपमें अपनाया।
अंत में मैं ये कहना चाहूंगा कि किसी को रामचरितमानस के प्रति कोई शंका नहीं होनी चाहिए। वह निःसंदेह हिन्दू धर्म के सबसे महानतम ग्रंथों में से एक है। वास्तव में तुलसीदास जी ने जिस काल में रामायण की रचना की उस समय पूरा देश और समाज मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों से दुखी था। इसी कारण उन्होंने रामचरितमानस को पूर्ण भक्ति रस में उस प्रकार लिखा ताकि समाज में श्रीराम के प्रति आस्था कम ना हो पाए।
तो रामचरितमानस अपने युग में पूर्ण प्रासंगिक थी किन्तु हाँ, यदि सत्य जानना हो तो हमें वाल्मीकि रामायण पढ़ना ही चाहिए। आज की पीढ़ी के लिए ये बहुत आवश्यक है कि वो हमारे मूल धर्मग्रंथों का अध्ययन करे अन्यथा इसी प्रकार भ्रमित होते रहेंगे। जय श्रीराम।
बहुत सही,
जवाब देंहटाएंबेहतरीन जबाब /िश्लेषण
जवाब देंहटाएंधन्यवाद इस सुन्दर जानकारी के लिए
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंयह क्वेरा में पढ़ लिया वही ब्लाग की जानकारी हुई. धन्यवाद ऐसे विवादित प्रसंगों की सत्यता बताने के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत आभार गिरिजा जी
हटाएंIn this context, I've heard : Indra Dev, though GOD, has been sexy by nature. He had made love with so many women. On his body, there were many "YONIS" (i.e., reproductive organ of ladies) of those women with whom he had "RATIKRIDA". Kindly throw light on this.
जवाब देंहटाएंआपने बहोत ही अच्छी तरह से इस जानकारी को प्रदर्शित किया है
जवाब देंहटाएंमहोदय, जय जय श्रीराधे
जवाब देंहटाएंन तो महर्षि वाल्मीकिकृत रामायण जी गलत हैं न मानस जी। वस्तुतः आपके पास जानकारी का अभाव है। वास्तविकता यह है कि जिस प्रकार पृथ्वीलोक पर श्रीअवध धाम और श्रीवृन्दावन धाम हैं, उस ही प्रकार भगवान के लोक में साकेत और गोलोक धाम हैं। साकेत देवताओं की अयोध्या जी हैं , जहां पर नित्य श्रीराम जी लीला करते हैं तथा गोलोक धाम में भगवान श्रीकृष्ण गोलोकधाम में लीलारत रहते हैं। वाल्मीकि जी ने श्रीराम जी के पृथ्वी पर अवतरित होने से पूर्व ही रामायण जी की रचना कर दी थी, जबकि तुलसी बाबा ने राम जी अवतरित होने के बाद की लीलाओं का वर्णन किया है। अतः वाल्मीकि जी के दिव्य चक्षुओं ने जिस लीला का दर्शन किया वह साकेत धाम में कई गयी लीला है और तुलसी बाबा ने श्रीहनुमान जी की प्रेरणा से मानस जी में जो वर्णित किया है, वह पृथ्वीलोक की लीलाओं का वर्णन है। देश-काल के अनुसार लीलाओं में अंतर है, गलत दोनों में से कोई नहीं है। आशा है मर्म को अच्छी तरह से समझ गए होंगे।
क्रांति जी, निःसंदेह तुलसी बाबा ने देश एवं काल को ध्यान में रख कर मानस की रचना की किंतु आदिकवि वाल्मीकि ने ही मूल रचना की है इसे हमेशा ध्यान रखना चाहिए। आप जिन गोलोक और वृंदावन की बात कर रहे हैं वो रामायण के बहुत बाद पौराणिक काल की रचनाएं हैं। उनका अपना महत्व है और रामायण का अपना। दोनो को कृपया ना मिलाएं।
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