हिन्दू जनमानस में ये कथा बड़ी प्रचलित है जब हनुमान जी सूर्यदेव को एक फल समझ कर निगल गए थे। कई लोग इस पर ये प्रश्न भी करते हैं कि ऐसा कैसे संभव है? कोई भला सूर्य को कैसे निगल सकता है? तो आइये आज इस लेख में इसी बारे में जानते हैं।
सत्य तो ये है कि हनुमान जी ने कभी भी सूर्य को नहीं निगला था। मूल वाल्मीकि रामायण में कभी ये नहीं लिखा गया कि हनुमान जी ने सूर्य को निगल लिया। यदि किसी को ऐसा लगता है कि हनुमान जी द्वारा सूर्य को निगलने का प्रसंग रामचरितमानस का है तो वो बात भी गलत है। मानस में तो बल्कि इस बात का कोई जिक्र ही नहीं है।
हनुमान और सूर्य का जो प्रसंग है वो वास्तव में वाल्मीकि रामायण में दिया गया है। रामायण के किष्किंधा कांड के सर्ग ६६ में हनुमान जी के जन्म के बारे में बताया गया है। ये प्रसंग तब का है जब माता सीता की खोज में निकले वानर इस चिंता में थे कि समुद्र कौन लांघेगा। तब हनुमान जी का उत्साह बढ़ाने के लिए जांबवंत जी द्वारा उनके जन्म का वर्णन किया जाता है। इस सर्ग के केवल तीन श्लोकों से बात समझ में आ जाएगी।
किष्किंधा कांड के सर्ग ६६ के श्लोक २१, २२ और २३ से ही सारी बातें साफ़ हो जाती है। इसमें जांबवंत हनुमान से कहते हैं कि बचपन में वे सूर्य को फल समझ कर खाने के लिए आसमान में उछले और ३०० योजन तक पहुँच गए। तब इंद्र ने उनपर अपने वज्र से प्रहार किया। इसमें उनके द्वारा सूर्य को खाने की कोई बात ही नहीं है।
अभ्युत्थितं ततः सूर्यं बालो दृष्ट्वा महावने।
फलं चेति जिघृक्षुस्त्वमुत्प्लुत्याभ्युत्पतो दिवम् ॥२१॥
अर्थात: ‘बाल्यावस्था में एक विशाल वन के भीतर एक दिन उदित हुए सूर्य को देखकर तुमने समझा कि यह भी कोई फल है; अतः उसे लेने के लिये तुम सहसा आकाश में उछल पड़े।
शतानि त्रीणि गत्वाथ योजनानां महाकपे।
तेजसा तस्य निर्धूतो न विषादं गतस्ततः ॥२२॥
अर्थात: ‘महाकपे! तीन सौ योजन ऊँचे जाने के बाद सूर्य के तेज से आक्रान्त होने पर भी तुम्हारे मन में खेद या चिन्ता नहीं हुई।
त्वामप्युपगतं तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे।
क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं कोपाविष्टेन तेजसा ॥२३॥
अर्थात: ‘कपिप्रवर! अन्तरिक्ष में जाकर जब तुरंत ही तुम सूर्य के पास पहुँच गये, तब इन्द्र ने कुपित होकर तुम्हारे ऊपर तेज से प्रकाशित वज्र का प्रहार किया।
तो जैसा कि आप देख सकते हैं कि यहाँ पर हनुमान जी द्वारा भगवान सूर्यनारायण को खाने का कोई भी प्रसंग नहीं है। रामचरितमानस में तो हनुमान जी के बचपन की कथा भी नहीं दी गयी है। ये कथा बता कर जांबवंत जी केवल हनुमान से इतना कह रहे हैं कि जब बचपन में तुम बात ही बात में ३०० योजन ऊपर उछल गए तो अभी ये १०० योजन चौड़ा समुद्र लांघना तुम्हारे लिए कौन सी बड़ी बात है।
अब यदि ३०० योजन की बात करें तो वो लगभग ४००० किलोमीटर होता है। इतनी पहुंच तो आज कल के उन्नत विमानों में भी होती है। रॉकेट की पहुंच तो इससे बहुत अधिक है। अब सोचिए हनुमान जी के लिए ये कितना मुश्किल होगा? उनके लिए तो ये बच्चों का खेल होगा। और यही बात तो हमारे ग्रंथ बता रहे हैं ना कि महाबली हनुमान बचपन में खेल ही खेल में उतनी ऊंचाई तक कूद गए। फिर इसमें आश्चर्य वाली क्या बात है।
हालाँकि रामायण में एक और स्थान पर हनुमान जी द्वारा सूर्य की ओर छलांग लगाने वाली बात बताई गयी है जहाँ उनकी छलांग की दूरी ३०० नहीं अपितु ३००० योजन बताई गयी है। किन्तु वहां भी उनके द्वारा सूर्य के भक्षण का कोई भी वर्णन नहीं है। रामायण के युद्ध कांड के सर्ग २८ के श्लोक १२, १३, १४ और १५ में इस बात का उल्लेख है जब शुक रावण को वानर वीरों का परिचय दे रहा था।
उद्यन्तं भास्करं दृष्ट्वा बालः किल बुभुक्षितः।
त्रियोजनसहस्रं तु अध्वानमवतीर्य हि॥१२॥
अर्थात: जब यह बालक था उस समय की बात है, एक दिनि इसको बहुत भूख लगी थी। उस समय उगते हुए सूर्य को देख कर यह ३००० योजन ऊँचा उछाल गया था।
आदित्यमाहरिष्यामि न मे क्षुत् प्रतियास्यति।
इति निश्चित्य मनसा पुप्लुवे बलदर्पितः॥१३॥
अर्थात: उस समय मन ही मन यह निश्चय करके कि यहाँ के फल आदि से मेरी भूख नहीं जाएगी इसीलिए सूर्य को ले आऊंगा, ये सोचकर यह अभिमानी वानर ऊपर को उछला था।
अनाधृष्यतमं देवमपि देवर्षिराक्षसैः।
अनासाद्यैव पतितो भास्करोदयने गिरौ॥१४॥
अर्थात: देवर्षि और राक्षस भी जिन्हे परास्त नहीं कर सकते, उन सूर्यदेव तक ना पहुँच कर यह वानर उदयगिरि पर्वत पर ही गिर पड़ा।
पतितस्य कपेरस्य हनुरेका शिलातले।
किंचिद् भिन्ना दृढहनुर्हनूमानेष तेन वै॥१५॥
अर्थात: वहां के शिलाखंड पर गिरने के कारण इस वानर की एक हनु (ठोड़ी) कुछ कट गयी और साथ में अत्यंत दृढ भी हो गयी इसीलिए यह हनुमान नाम से प्रसिद्ध हुआ।
तो यहाँ पर आ देख सकते हैं कि इस वर्णन के अनुसार भी हनुमान जी सूर्य को निगलने के लिए बहुत ऊपर (३००० योजन) तक उछले अवश्य थे किन्तु सूर्य तक ना पहुँच कर मार्ग से ही नीचे गिर गए थे। इसीलिए सूर्य देवता को उन्होंने खा लिया, ऐसा कहना बिलकुल गलत है।
हनुमान जी और भगवान सूर्यनारायण का यही प्रसंग हमें थोड़ा विस्तार में उत्तर कांड में मिलता है। उसमें हनुमान जी का सूर्यदेव के पास पहुँच जाने का वर्णन है किन्तु फिर भी उनके भक्षण का कोई वर्णन नहीं मिलता। दूसरी बात ये कि बहुत लोग उत्तर कांड को प्रक्षिप्त ही मानते हैं इसीलिए इसकी प्रमाणिकता में संदेह है। फिर भी उन प्रसंगों का वर्णन भी यहाँ कर देता हूँ।
उत्तर कांड के सर्ग ३५ में भगवान हनुमान के जन्म का वर्णन है और इसी सर्ग में हनुमान जी द्वारा सूर्यदेव को एक फल समझ कर उनकी ओर उड़ने का वर्णन आता है।
उत्तर कांड, सर्ग ३५, श्लोक २३ में लिखा है -
तदोद्यन्तं विवस्वन्तं जपापुष्पोत्करोपमम् ।
ददर्श फललोभाच्च ह्युत्पपात रविं प्रति।।
अर्थात: इतने में ही इन्हे जपाकुसुम के समान लाल रंग वाले सूर्यदेव उदित होते दिखाई दिए। हनुमान जी ने उन्हें कोई फल समझा और ये उस फल के लोभ से सूर्य की ओर उछले।
आगे श्लोक २८ और २९ में लिखा है कि हनुमान जी अपने पिता वायु की सहायता से सहस्त्रों योजन ऊपर सूर्यदेव के निकट पहुँच गए क्यूंकि वायुदेव भी अपने पुत्र की रक्षा के लिए उनके पीछे बर्फ की भांति शीतल होकर उड़ रहे थे।
उत्तर कांड, सर्ग ३५, श्लोक २८ में लिखा है -
तमनुप्लवते वायुः प्लवन्तं पुत्रमात्मनः ।
सूर्यदाहभयाद्रक्षंस्तुषारचयशीतलः।।
अर्थात: सूर्य की ओर जाते देख कर उसे दाह के भय से बचने के लिए उस समय वायुदेव भी बर्फ के ढेर की भांति शीतल होकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे।
उत्तर कांड, सर्ग ३५, श्लोक २९ में लिखा है -
बहुयोजनसाहस्रं क्रमत्येष गतोम्बरम् ।
पितुर्बलाच्च बाल्याच्च भास्कराभ्याशमागतः।।
अर्थात: इस प्रकार बालक हनुमान अपने और पिता के बल से कई सहस्त्र योजन आकाश को लांघते चले गए और सूर्यदेव के निकट पहुँच गए।
फिर अगले श्लोक अर्थात श्लोक ३० में ये स्पष्ट रूप से लिखा है कि सूर्यदेव ने ये सोच कर कि अभी हनुमान नादान हैं और इन्हे कई भावी कार्य करने हैं, उन्होंने हनुमान जी को जलाया नहीं।
उत्तर कांड, सर्ग ३५, श्लोक ३० में लिखा है -
शिशुरेष त्वदोषज्ञ इति मत्वा दिवाकरः ।
कार्यं चात्र समायत्तमित्येवं न ददाह सः।।
अर्थात: सूर्यदेव ने ये सोचकर कि अभी ये बालक है, इसे गुण-दोष का ज्ञान नहीं है और इसके अधीन देवताओं का बहुत सा भावी कार्य बांकी है, इन्हे जलाया नहीं।
इसी सर्ग के श्लोक ४० और ४४ में ये लिखा है कि हनुमान जी सूर्यदेव के अतिरिक्त राहु और ऐरावत को भी फल समझ कर उनपर झपटे।
उत्तर कांड, सर्ग ३५, श्लोक ४० में लिखा है -
ततः सूर्यं समुत्सृज्य राहुं फलमवेक्ष्य च ।
उत्पपात पुनर्व्योम ग्रहीतुं सिंहिकासुतम्।।
अर्थात: तब राहु को ही फल के रूप में देख कर बालक हनुमान सूर्यदेव को छोड़ उसे सिंहिकापुत्र को ही पकड़ने के लिए पुनः आकाश में उछले।
उत्तर कांड, सर्ग ३५, श्लोक ४४ में लिखा है -
ऐरावतं ततो दृष्ट्वा महत्तदिदमित्यपि ।
फलं मत्वा हस्तिराजमभिदुद्राव मारुतिः।।
अर्थात: तत्पश्चात ऐरावत को देख कर इन्होने उसे भी एक विशाल फल समझा और उस गजराज को पकड़ने के लिए ये उसकी ओर दौड़े।
फिर देवराज इंद्र ने हनुमान जी पर वज्र से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बाईं ठोड़ी टूट गयी।
उत्तर कांड के ३६वें सर्ग के श्लोक १ में ये भी वर्णित है कि इंद्र के वज्र के प्रहार से हनुमान जी के प्राण निकल गए।
ततः पितामहं दृष्ट्वा वायुः पुत्रवधार्दितः।
शिशुकं तं समादाय उत्तस्थौ धातुरग्रतः।।
अर्थात: पुत्र के मारे जाने पर वायुदेव बड़े दुखी थे। ब्रह्माजी को देख कर वे उस शिशु को लिए हुए ही उनके आगे खड़े हो गए।
इसी सर्ग के श्लोक ४ के अनुसार पवनदेव के अनुरोध पर ब्रह्माजी ने हनुमान जी को जीवनदान दिया।
स्पृष्टमात्रस्ततः सो ऽथ सलीलं पद्मयोनिना।
जलसिक्तं यथा सस्यं पुनर्जीवितमाप्तवान्।।
अर्थात: जैसे पानी से सींच देने पर सूखती हुई खेती हरी हो जाती है, उसी प्रकार कमलयोनि ब्रह्माजी के हाथ का लीलापूर्वक स्पर्श पाते ही शिशु हनुमान पुनः जीवित हो गए।
तो यहाँ पर भी आप देख सकते हैं कि हनुमान जी द्वारा सूर्यदेव को खाने का कोई वर्णन नहीं है बल्कि सूर्यदेव द्वारा हनुमान को बालक समझ कर उन्हें छोड़ देने का ही वर्णन आता है।
तो प्रश्न ये है कि फिर ये कथा जनमानस में आयी कहाँ से? वास्तव में इसका एकमात्र वर्णन गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री हनुमान चालीसा के १८वें दोहे में आता है। उस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं -
जुग सहस्त्र जोजन पर भानु।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।
इसका अर्थ ये है कि हनुमान जी ने एक हजार युग योजन पर स्थित सूर्य को मीठा फल समझ कर खा लिया था। ये दोहा भी वास्तव में एक प्रतीकात्मक दोहा है जिससे तुलसीदास जी ने उस समय पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी बताई थी जो आश्चर्यजनक रूप से बिलकुल सटीक है। बस यही से हनुमान जी द्वारा सूर्य को फल समझ कर खाने की बात लोक कथाओं के रूप में प्रचलित हो गयी।
ऐसे कई लोग हैं जो हनुमान जी द्वारा सूर्य को निगलने की घटना को ये बोल कर सच बताने का प्रयास करते हैं कि हनुमान जी के पास अष्ट सिद्धि थी जिसमें से के "गरिमा" थी जिससे वे अपना शरीर विशाल बना सकते थे। किन्तु उन लोगों को भी ये बात समझनी चाहिए कि सिद्धियों की भी एक सीमा होती है। और हनुमान जी को अष्ट सिद्धि और अन्य वरदान इंद्र के प्रहार करने के बाद ब्रह्मा जी और अन्य देवताओं के वरदान से प्राप्त हुई थी जबकि ये सूर्य को निगलने वाली घटना उससे पहले की है जब उनके पास कोई सिद्धि नहीं थी।
महत्वपूर्ण जानकारी
जवाब देंहटाएंजय हनुमान
Jay Bajrag Bali, Jay Hanuman
जवाब देंहटाएंJai Bajrangbali
जवाब देंहटाएंब्लोगरों ज्ञानियों को किस बात के चुन्नें काटते रहते है हिन्दू धर्मग्रंथो की समीक्षा करते रहते हैं।
जवाब देंहटाएंShreeman blogger ne un sabhi dharm virodhiyo ke gaalo pe tamacha mara hai jo hindu dharm ka majak udate hai . Bhaj inhone science aur dharm ka mel jol kar ke kahani ka sach hame bataya hai . Apka koti koti dhanywad. Dil se aabhar .
हटाएंहम कहना चाहते हैं कि इन ब्लॉगर को हमारा हिंदू धर्म से छेड़छाड़ करके क्या मिलता है ऐसा नहीं करना चाहिए
जवाब देंहटाएंjai shri hanuman ji ki
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