महाभारत में पांचों पांडवों का आपस में प्रेम एक उदाहरण है। चारो छोटे भाई अपने बड़े भाई युधिष्ठिर का अपने पिता की भांति आदर करते थे। किन्तु महाभारत में एक ऐसी कथा भी आती है जब अर्जुन युधिष्ठिर का वध करने को उद्धत हो गए थे। आखिर ऐसा क्या कारण था कि अर्जुन को ऐसा करना पड़ा?
कथा के अनुसार महाभारत युद्ध के १६वें दिन जब कर्ण का पराक्रम अपने चरम पर था, उसने एक एक करके सहदेव, नकुल, भीम और युधिष्ठिर को युद्ध में परास्त किया। उसने सबको परास्त तो किया किन्तु माता कुंती को दिए वचन के कारण उनका वध नहीं किया।
युधिष्ठिर ने कर्ण से घोर युद्ध किया किन्तु वे कर्ण प्रहारों से अत्यंत आहत हो गए। वे इतने घायल थे कि उन्हें वापस शिविर ले जाना पड़ा। अब कर्ण का सामना करना केवल अर्जुन के ही वश में था। पांडवों की सारी आशाएं अब केवल अर्जुन पर ही टिकी थी। अंततः अर्जुन और कर्ण का घोर युद्ध आरम्भ हुआ।
कर्ण और अर्जुन का युद्ध बहुत देर तक चलता रहा। दोनों अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रों से एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। उधर शिविर में युधिष्ठिर को सूचना मिली कि अर्जुन कर्ण से युद्ध कर रहे हैं। ये जान कर वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें विश्वास था कि आज अर्जुन अवश्य ही कर्ण का वध कर पांडव सेना को भयमुक्त करेंगे।
उधर कर्ण और अर्जुन का युद्ध बड़ी देर तक चलता रहा। युद्ध करते समय अर्जुन ने देखा कि युधिष्ठिर युद्धक्षेत्र में उपस्थित नहीं हैं तो वे शंकित हो गए। उन्होंने पता किया तो जाना कि युधिष्ठिर घायल अवस्था में शिविर में हैं तो वे वहां तत्काल जाने को तैयार हुए। किन्तु युद्ध छोड़ कर कैसे जाते? तब भीम ने आकर कर्ण का सामना किया और अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर को देखने तत्काल शिविर पहुंचे।
जब युधिष्ठिर ने अर्जुन को वहां देखा तो बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें लगा अर्जुन कर्ण का वध कर उन्हें इसकी सूचना देने आये हैं, किन्तु जब अर्जुन ने उन्हें बताया कि कर्ण अभी जीवित है और वे उन्हें देखने वहां आये हैं तो युधिष्ठिर बड़े क्रोधित हुए। क्रोध में उन्हें स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहा और उन्होंने अर्जुन से बहुत कटु वचन कहे। यहाँ तक कि क्रोध में उन्हें कायर तक कह डाला किन्तु अर्जुन चुप-चाप सुनते रहे।
किन्तु इसपर भी युधिष्ठिर का क्रोध शांत नहीं हुआ और उन्होंने अर्जुन से कहा कि "यदि तुम कर्ण का सामना करने से डरते हो तो अपना गांडीव उतार कर फेंक दो।" ये सुनते ही अर्जुन अथाह दुःख में डूब गए और एक तलवार लेकर युधिष्ठिर की ओर बढे। बात को बिगड़ता देख कर श्रीकृष्ण तत्काल दोनों के बीच आ गए और अर्जुन से पूछा कि वो क्या करना चाहते हैं?
तब अर्जुन ने उन्हें बताया कि "हे माधव! मेरी एक गुप्त प्रतिज्ञा है कि यदि कोई भी मेरे गांडीव की निंदा करेगा तो मैं उसे अवश्य मार डालूंगा। मैं एक क्षत्रिय हूँ इसी कारण अपनी प्रतिज्ञा अवश्य पूर्ण करूँगा और उसके पश्चात आत्महत्या कर लूंगा क्यूंकि अपने भ्राता का वध करने के पश्चात मैं किसी भी स्थिति में जीवित नहीं रह सकता। आज मेरा मरण निश्चित है।"
तब श्रीकृष्ण ने हँसते हुए कहा - "पार्थ! लगता है तुमने मेरे द्वारा दिया गया गीता ज्ञान केवल सुना किन्तु समझा नहीं। प्रतिज्ञा के लिए अधर्म करना शास्त्रों में निषिद्ध माना गया है, और तुम वही करने जा रहे हो। किन्तु यदि तुम्हे तुम्हारी प्रतिज्ञा इतनी ही प्यारी है तो शास्त्रों में उसका भी उपाय दिया गया है। अपनों से बड़ों का अपमान करना भी उनका वध करने के ही समान माना गया हो। तुम युधिष्ठिर का अपमान कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर लो।"
तब अर्जुन ने युधिष्ठिर को अपशब्द कहे और अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। किन्तु इससे उन्हें इतना क्षोभ हुआ कि उस कुंठा में वे आत्महत्या करने को प्रस्तुत हुए। किन्तु फिर एक बार श्रीकृष्ण ने स्थिति को संभाला और अर्जुन को उस कायरतापूर्ण कृत्य को करने से रोका। उन्होंने अर्जुन को बताया कि आत्महत्या को महापाप माना गया है और उस जैसे क्षत्रिय योद्धा को ये शोभा नहीं देता। और यदि वो इस प्रकार आत्महत्या कर लेंगे तो इतिहास यही कहेगा कि उन्होंने कर्ण से भयभीत हो ऐसा किया।
इस प्रकार श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर के बहुत समझाने के बाद अर्जुन का क्षोभ कुछ कम हुआ। अगले दिन उसका कर्ण के साथ निर्णायक युद्ध हुआ और उन्होंने अंततः कर्ण का वध कर पांडव सेना को निष्कंटक किया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।