महाभारत से जुडी अनेकों कथा जनश्रुतियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनमें कुछ का सन्दर्भ हमें मूल महाभारत में मिलता है किन्तु कुछ केवल लोककथाओं के रूप में ही जनमानस में प्रसिद्ध हैं। आज हम आपको ऐसी ही एक कथा के बारे में बताने वाले हैं जिसमें महाभारत में वीरगति को प्राप्त सभी योद्धा एक दिन के लिए जीवित हो गए थे।
महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद १५ वर्षों तक धृतराष्ट्र एवं गांधारी हस्तिनापुर में ही रहे। फिर उन्होंने युधिष्ठिर से वन जाने की इच्छा जताई। युधिष्ठिर ऐसा चाहते तो नहीं थे किन्तु उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने उनकी बात मान ली। उनके साथ विदुर और संजय भी वन जाने को तैयार हुए। फिर कुंती ने भी उनके साथ ही वन जाने का निर्णय लिया। पांडवों को जब ये पता चला कि उनकी माता भी साथ जा रही है तो वे बड़े दुखी हुए किन्तु फिर सबकी सम्मति से उन्होंने उन पांचों को सुरक्षित वन पहुंचा दिया और वहां सारी व्यवस्था कर दी।
कुरुक्षेत्र में स्थित उस वन में उन्होंने सबसे पहले महर्षि वेदव्यास से दीक्षा ली और फिर पास ही में स्थित शतयूप ऋषि के आश्रम में निवास करने लगे। धृतराष्ट्र और गांधारी तप में लीन हो गए और संजय और विदुर सहित कुंती उनकी सेवा करने लगी। विदुर और कुंती भी उन्ही के साथ तप में लीन हो गए और संजय तन्मयता से उन सब की सेवा में रत हो गए। इस प्रकार १ वर्ष बीत गया।
उधर युधिष्ठिर के मन में इच्छा हुई कि वो एक बार वन जाकर अपने तातश्री और माताओं के दर्शन करें। जब द्रौपदी और अन्य पांडवों ने ये सुना तो वे बड़े प्रसन्न हुए और उनके साथ ही वन चल दिए। उनके पीछे-पीछे नगरवासी और महाभारत के युद्ध में मारे गए योद्धाओं की विधवाएं भी वन की ओर चली। वहां जाकर उन्होंने देखा कि धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती कठिन तप के कारण अत्यंत कृशकाय हो गए हैं।
उन सभी ने उन तीनों और संजय को प्रणाम किया और पूछा कि विदुर जी कहाँ हैं। तब धृतराष्ट्र ने उन्हें बताया कि वे भी थोड़ी दूर पर घोर तप कर रहे हैं। उसी समय सबको विदुर जी आश्रम की ओर आते दिखे किन्तु इतने लोगों को देख कर वे वापस वन की ओर लौट गए। तब युधिष्ठिर उनके पीछे भागे और थोड़ी दूर पर उन्होंने देखा कि अत्यंत वृद्ध दिख रहे विदुर अपने प्राण त्याग रहे हैं। धर्मराज के अवतार विदुर के प्राण निकल कर धर्मराज के पुत्र युधिष्ठिर में ही समा गए।
दुखी मन से युधिष्ठिर वापस आये और उन्होंने सबको महात्मा विदुर की मृत्यु का समाचार सुनाया जिसे सुनकर सबको अपार दुःख हुआ। फिर पांडवों ने उनका अंतिम संस्कार वही गंगा तट पर किया। उस रात सबने जागरण कर बिताया। अगले दिन महर्षि वेदव्यास सभी से मिलने आये। विदुर की मृत्यु का समाचार सुन कर उन्होंने सब को सांत्वना दी और कई प्रकार के उदेश देकर उन्हें शांत किया।
अपनी ओर सभी को उत्कंठा से देखते हुए देख कर महर्षि व्यास ने उन सब से कहा कि आज आप सब की कोई इच्छा हो तो बताएं, मैं अपने तपोबल से उसे अवश्य पूर्ण करूँगा। तब धृतराष्ट्र और गांधारी ने उनसे प्रार्थना की कि वे अपने सभी मृत पुत्रों को देखना चाहते हैं। कुंती ने कर्ण को, द्रौपदी ने अपने पुत्रों को एवं सभी विधवाओं ने अपने-अपने पति को पुनः देखने की इच्छा प्रकट की।
उनकी ये इच्छा सुन कर महर्षि वेदव्यास ने सब को गंगा तट पर इकठ्ठा होने और रात्रि की प्रतीक्षा करने को कहा। उनके आज्ञानुसार सभी गंगा के तट पर पहुंचे और रात्रि की प्रतीक्षा करने लगे। रात होने पर महर्ष वेदव्यास गंगा में उतर गए और पांडव और कौरव पक्ष के सभी मृत योद्धाओं का आह्वान किया। उनके आह्वान पर महाभारत युद्ध में मरे सभी योद्धा जल से निकल कर बाहर आने लगे। महर्षि वेदव्यास ने सभी को दिव्य दृष्टि प्रदान की ताकि वे अपने-अपने परिजनों को देख सकें।
धृतराष्ट्र और गांधारी दुर्योधन और अपने अन्य पुत्रों, कुंती कर्ण और द्रौपदी और पांडव उप-पांडवों को देख कर अत्यंत प्रसन्न हुए। अन्य सभी लोग भी प्रसन्नता पूर्वक अपने-अपने परिजनों से मिले। किसी के मन को कोई दुःख या क्रोध नहीं था। इस प्रकार पूरी रात वे अपने परिजनों के साथ बिता कर संतुष्ट हुए और प्रातः सूर्य की पहली किरण के साथ ही सभी योद्धा अपने-अपने लोकों में वापस जाने लगे।
तब महर्षि वेदव्यास ने सभी विधवाओं से कहा कि जो कोई भी अपने पति के साथ जाना चाहती हैं वो नदी में प्रवेश कर जाएँ। तब सभी पतिव्रता स्त्रियां अपने पतियों का अनुसरण करते हुए नदी में प्रवेश कर गयी और उनके साथ उन्ही के लोक में चली गयी। इस प्रकार वो अद्भुत रात्रि समाप्त हुई। धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती और संजय के साथ एक माह उस वन में रहने के बाद पांडव पुनः हस्तिनापुर लौट गए।
२ वर्ष के पश्चात एक दिन देवर्षि नारद हस्तिनापुर आये और उन्होंने पांडवों को धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की मृत्यु का समाचार दिया। उन्होंने बताया कि वे वन की अग्नि में फस गए और वृद्धावस्था में वहां से ना निकल पाने के कारण उसी दावानल में उनकी मृत्यु हो गयी। केवल संजय ही उस अग्नि से बच पाए और तपस्वियों को ये समाचार हस्तिनापुर पहुँचाने का अनुरोध कर तपस्या करने हिमालय चले गए। अपनी माता और तात की मृत्यु का समाचार सुन पांडव शोकमग्न हो गए। फिर उन्होंने नियमपूर्वक उनका श्राद्ध किया।
बहुत ही सुन्दर दृश्य मन मस्तिस्क में उभर रहा था जब मैं पढ़ रहा था,
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