कुछ समय पहले हमने ऋषि, मुनि, साधु, संन्यासी, तपस्वी, योगी, संत और महात्मा में क्या अंतर है, उसके बारे में बताया था। आज हम ऋषियों के प्रकार के बारे में जानेंगे। ऋषि वे ज्ञानी पुरुष थे जो शोध करते थे। अंग्रेजी का शब्द "रिसर्च" ऋषि शब्द से ही निकला है। ऋषि शब्द "ऋष" मूल से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ देखना होता है। इन्हे श्रुति ग्रंथों का अध्ययन एवं स्मृति ग्रंथों की रचना और शोध करने के लिए जाना जाता है।
साधारण शब्दों में कहें तो वैसे व्यक्ति जिन्होंने अपनी विशिष्ट और विलक्षण एकाग्रता के बल पर वैदिक परंपरा का अध्ययन किया, विलक्षण शब्दों के दर्शन किये, उनके गूढ़ अर्थों को समझा एवं प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उस ज्ञान लिखित रूप दिया, वो ऋषि कहलाये। ऋषियों के लिए कहा गया है - "ऋषि: तु मन्त्र द्रष्टारा : न तु कर्तार:", अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले।
ऋषि मुख्यतः सात प्रकार के माने गए हैं। रत्नकोष में भी कहा गया है-
सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।
कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश:।।
अर्थात: ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि - ये ७ प्रकार के ऋषि होते हैं।
- काण्डर्षि: ऐसे ऋषि जो वेदों की किसी एक शाखा, जिन्हे काण्ड भी कहा जाता है, उस का गहन अध्यन करे उन्हें काण्डर्षि कहा जाता है। काण्डर्षि एक प्रकार की विद्या की अद्भुत व्याख्या करने के विशेषज्ञ होते थे। वैसे तो कई काण्डर्षियों का वर्णन पुराणों में है किन्तु सबसे प्रसिद्ध काण्डर्षि महर्षि वेदव्यास के शिष्य जैमिनि माने जाते हैं।
- श्रुतर्षि: ग्रंथों को दो मुख्य प्रकार माने जाते हैं - श्रुति एवं स्मृति। ऐसे ऋषि जो श्रुति और स्मृति शास्त्र में पारंगत हो उन्हें श्रुतर्षि कहा जाता है। वैसे तो सभी ऋषि परमपिता ब्रह्मा द्वारा वचित श्रुति एवं उसके बाद स्मृति ग्रंथों का अध्ययन करते ही थे किन्तु श्रुतर्षि इनके अध्ययन में सबसे गंभीर होते थे। कई श्रुतर्षियों के बारे में हमारे ग्रंथों में वर्णन दिया गया है किन्तु उनमें से सबसे प्रसिद्ध हैं सुश्रुत।
- परमर्षि: ऐसे ऋषि जो अपनी प्रतिभा के शिखर तक पहुँच जाएँ उन्हें परमर्षि, अर्थात परम ऋषि कहा जाता है। इनके बारे में हमारे ग्रंथों में बहुत कम वर्णन मिलता है। वेदों और उपनिषदों में हमें "भेल" नामक एक ऋषि का वर्णन जिन्होंने परमर्षि का पद प्राप्त किया था।
- राजर्षि: जो मनुष्य राजा होने के साथ-साथ कठिन तप कर अथाह ज्ञान अर्जित करता था उसे राजर्षि कहते थे। राजर्षि उसे कहते थे, जो राजा को राजधर्म और समाज के नियमों के बारे में सलाह देता था। राजा उन राजर्षियों से पूछे बगैर कोई निर्णय स्वतंत्र रूप से नहीं ले सकता था। कोई क्षत्रिय मनुष्य जब अपने तप और कर्मों से अपने वर्ण को बदल कर ब्राह्मणत्व को प्राप्त करता था तो उन्हें भी राजर्षि की संज्ञा दी जाती थी। वैसे तो इतिहास में कई राजर्षि हुए हैं किन्तु उनमें से विश्वामित्र सबसे प्रसिद्ध हैं। उनके अतिरिक्त श्रीराम के पूर्वज राजा ऋतुपर्ण, पांचाल राज मुद्गल एवं माता सीता के पिता जनक को भी राजर्षि की संज्ञा प्राप्त है। महाभारत में बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेंद्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज और गौरशिरस को राजर्षि कह कर सम्बोधित किया गया है। चाणक्य ने अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र में मनु, बृहस्पति, उशनस (शुक्र), भरद्वाज, विशालाक्ष, पराशर, पिशुन, कौणपदन्त, वातव्याधि और बहुदन्ती को राजर्षि बताया है।
- महर्षि: जैसा कि ऋषियों के बारे में कहा गया है कि ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। किन्तु ऋषियों में कुछ ऐसे भी उत्कृष्ट व्यक्ति थे जो स्वयं से भी ऋचाओं और मन्त्रों की रचना करने में सक्षम थे। ऐसे ही ऋषियों को महर्षि अर्थात महान ऋषि कहा जाता था। वैसे तो हम हर तपस्वी के लिए आम तौर पर महर्षि शब्द का प्रयोग करते हैं, किन्तु महर्षि का पद प्राप्त करना अत्यंत कठिन था और केवल कुछ चुनिंदा ऋषि ही इस पद पर पहुँच पाते थे। वैसे तो हिन्दू धर्म में कई महर्षियों का वर्णन है किन्तु हमारे दो सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ रामायण और महाभारत की रचना करने के कारण वाल्मीकि एवं वेदव्यास महर्षियों में अग्रगण्य माने जाते हैं।
- देवर्षि: इसके मुख्यतः दो अर्थ हैं - पहला देवताओं के ऋषि और दूसरा ऐसे ऋषि जो देवताओं के समान ही पूजित हों। वैसे तो सबसे प्रसिद्ध देवर्षि ब्रह्मा पुत्र नारद ही हैं किन्तु देवर्षि की दूसरी परिभाषा के अनुसार कुछ अन्य महर्षियों, विशेषकर ब्रह्मा पुत्र सप्तर्षियों को भी कभी-कभी देवर्षि के नाम से सम्बोधित किया जाता है। देवर्षि का अर्थ होता है दिव्य ऋषि, अर्थात ऐसा ऋषि जिसने देवत्व को प्राप्त कर लिया हो। वायु पुराण में एक श्लोक है - देवर्षी धर्मपुत्रौ तु नरनारायणावुभौ। वालखिल्याः क्रतोः पुत्राः कर्दमः पुलहस्य तु।। पर्वतो नारदश्चैव कश्यपस्यात्मजावुभौ। ऋषन्ति देवान् यस्मात्ते तस्माद्देवर्षयः स्मृताः।। अर्थात धर्म के दो पुत्र - नर और नारायण, महर्षि क्रतु के (६००००) पुत्र जो बालखिल्य कहलाते हैं, महर्षि पुलह के पुत्र कर्दम, पर्वत, नारद और महर्षि कश्यप के दो पुत्र - असित एवं वत्सर को देवर्षि माना गया है।
- ब्रह्मर्षि: यह ऋषियों का सबसे ऊँचा पद माना जाता है। ब्रह्मर्षि ऐसे ऋषियों को कहा जाता था जो अपने तप से ब्रह्मा, अर्थात ईश्वरत्व के स्तर तक पहुँच जाते थे। ब्रह्मर्षि के पद को प्राप्त करना किसी भी महर्षि का अंतिम लक्ष्य माना जाता था। राजर्षि विश्वामित्र की भी वसिष्ठ से प्रतिस्पर्धा ब्रह्मर्षि पद को पाने के कारण ही थी। अंत में उन्होंने वसिष्ठ के समान ही ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया। ऐसा कहा जाता था कि केवल ब्रह्मर्षि ही ब्रह्मलोक में वास कर सकते थे। मुख्य गोत्रों के प्रवर्तकों को भी ब्रह्मर्षि कहा जाता है। कई स्थानों पर कहा गया है कि सप्तर्षि पद पाने के लिए ब्रह्मर्षि होना आवश्यक होता था, हालाँकि चूकिं अलग-अलग मन्वन्तरों में सप्तर्षि भी अलग होते हैं इसी कारण प्रथम मन्वन्तर के सभी सप्तर्षि को छोड़ कर अन्य मन्वन्तरों में इसकी अनिवार्यता नहीं मानी जाती। वैसे तो अलग-अलग ग्रंथों में कई महर्षियों को ब्रह्मर्षि के नाम से सम्बोधित किया गया है किन्तु कुछ गिने चुने ही महर्षि हैं जो ब्रह्मर्षि के स्तर तक पहुँच पाए। इनमें से कुछ प्रसिद्ध ऋषि हैं - भृगु, अंगिरस, अत्रि, विश्वामित्र, कश्यप, वशिष्ठ एवं शांडिल्य।
लोगों को ऐसा लगता है कि सप्तर्षि भी ऋषियों का एक प्रकार ही है किन्तु ऐसा नहीं है। सप्तर्षि वास्तव में उन सात उच्चतम ब्रह्मऋषियों का एक समूह है जो ब्रह्मा के पुत्र थे। ये थे - मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य एवं वसिष्ठ। ये सातों प्रथम स्वयंभू मनु के मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं। हर मन्वन्तर में सप्तर्षि अलग-अलग होते हैं। इसके विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ।
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