द्रौपदी का विवाह जब पांचों पांडवों से विवाह किया तब देवर्षि नारद के सुझाव पर पांडवों ने एक कड़ा नियम बनाया। उस नियम के अनुसार जब द्रौपदी किसी एक पांडव की पत्नी रहेगी, उस समय यदि कोई दूसरा पांडव उनके कक्ष में प्रवेश करेगा तो उसे १२ वर्षों का वनवास भोगना पड़ेगा। जब द्रौपदी युधिष्ठिर की पत्नी थी उस समय गायों के एक झुण्ड की रक्षा के लिए युधिष्ठिर के कक्ष में अपना गांडीव लेने चले गए जिस कारण उन्हें १२ वर्ष का वनवास भोगना पड़ा। द्रौपदी के अतिरिक्त अर्जुन के अन्य तीन विवाह इसी वनवास काल में हुए थे।
अपने वनवास के समय अर्जुन घूमते हुए मणिपुर राज्य पहुंचे जहाँ महाराज चित्रवाहन राज्य करते थे। उनकी एक ही पुत्री थी जिसका नाम चित्रांगदा था। मणिपुर राज्य में ही अर्जुन चित्रांगदा से मिले और दोनों एक दूसरे के प्रेम में पड़ गए। तब अर्जुन ने चित्रांगदा के पिता महाराज चित्रवाहन को अपना परिचय दिया और चित्रांगदा से विवाह करने की आज्ञा मांगी।
अर्जुन जैसे कुलीन व्यक्ति से अपनी पुत्री का विवाह करने में महाराज चित्रवाहन को कोई आपत्ति नहीं थी किन्तु उन्होंने इस विवाह के लिए एक शर्त रख दी। उन्होंने कहा कि जो पुत्र या पुत्री दोनों के संयोग से होगी उसे सदा के लिए मणिपुर में ही रहना होगा। कारण ये था कि सदियों से उनके परिवार में केवल एक ही संतान होती आयी थी और उसका वहीँ मणिपुर में रहना आवश्यक था। अर्जुन ने उनकी शर्त मान ली और दोनों का विवाह हो गया।
अर्जुन वहां मणिपुर में ३ वर्षों तक रहे और उन दोनों का एक पुत्र हुआ जिसका नाम बभ्रुवाहन रखा गया। अपने पुत्र के जन्म के तुरंत बाद अर्जुन मणिपुर से अपनी आगे की यात्रा पर चले गए। शर्त के अनुसार चित्रांगदा और उसका पुत्र वही रह गए। जाते समय अर्जुन उनसे कह गए कि भविष्य में जब युधिष्ठिर सम्राट बनेंगे तो अर्जुन उन्हें एक बार इंद्रप्रस्थ अवश्य लाएंगे।
दिन बीते और बभ्रुवाहन युवा हो गए। उन्हें अपने पिता के विषय में कुछ नहीं पता था। उन्हें प्रारंभिक शिक्षा अपने नाना महाराज चित्रवाहन से ही मिली। युवा होने तक वे सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों में पारंगत हो चुके थे। दूसरी ओर महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें कुरुवंश का नाश हो गया। अर्जुन को अपने स्वसुर को दिए गए वचन के कारण बभ्रुवाहन ने उस युद्ध में भाग नहीं लिया।
उस युद्ध में अर्जुन द्वारा छल से परास्त होने के बाद पितामह भीष्म ने युद्ध के ५८ दिन बाद अपने प्राण त्यागे। छल से अपने पुत्र की मृत्यु को देख कर माता गंगा बड़ी क्रोधित हुई। हालाँकि भीष्म ने अपनी माता को अर्जुन की ओर से मन मैला ना करने को कहा था किन्तु माता गंगा ऐसा ना कर पायी। वे देवी थी इसीलिए प्रत्यक्ष रूप से किसी मानव के विरुद्ध वे कुछ नहीं कर सकती थी किन्तु वे उस अवसर की प्रतीक्षा में थी जब वो अर्जुन से अपने पुत्र की मृत्यु का प्रतिशोध ले सके।
वर्षों बीत गए और महाराज युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ किया। उस समय तक महारथी कर्ण और वृषाली के सबसे छोटे और एकमात्र जीवित पुत्र वृषकेतु भी पांडवों के संरक्षंण में आ गए थे। यज्ञ के अश्व की रक्षा के लिए अर्जुन और भीम गए। वृषकेतु भी हठ कर उनके साथ हो लिए। अनेकों छोटे-बड़े युद्ध और राज्यों को जीतते हुए अर्जुन और भीम आगे बढ़ते रहे।
तब एक दिन अश्वमेघ का अश्व मणिपुर की सीमा में प्रवेश कर गया। जब बभ्रुवाहन ने ये सुना तो उसने अपनी शक्ति के मद में उस अश्व को पकड़ लिया। जब अर्जुन ने ऐसा सुना तो वो बभ्रुवाहन से युद्ध करने आये किन्तु अपने सामने एक बालक को देख कर अर्जुन वापस लौट गए और अपनी सेना की एक टुकड़ी को उससे युद्ध करने भेजा। किन्तु बभ्रुवाहन ने उस सेना की टुकड़ी को परास्त कर दिया।
तब अपनी शक्ति के मद में वृषकेतु अश्व को छुड़ाने चल पड़े। जब भीम को ये पता चला कि वृषकेतु अकेले युद्ध करने गए हैं तो वो भी उसकी रक्षा को उसके पीछे गए। उधर बभ्रुवाहन और वृषकेतु में युद्ध हुआ और घोर युद्ध के पश्चात बभ्रुवाहन ने वृषकेतु का वध कर दिया। जब भीम को ये पता चला तो वे बहुत दुखी हुए। उस स्थिति में बभ्रुवाहन ने भीम को भी घायल कर दिया।
जब अर्जुन को वृषकेतु की मृत्यु के बारे में पता चला तो वे अंततः क्रोध में भर कर बभ्रुवाहन से युद्ध करने आये। उस युद्ध में अर्जुन को देख कर बभ्रुवाहन युद्ध करने से हिचक रहा था। तब वहां अर्जुन की पत्नी उलूपी आयी और बभ्रुवाहन को समझा बुझा कर युद्ध करने को तैयार कर लिया। अब दोनों में घोर युद्ध आरम्भ हुआ। दोनों में से कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था। तभी माता गंगा ने इस अवसर का लाभ उठाया और बभ्रुवाहन के तरकश में एक दिव्य बाण रख दिया। अनायास ही बभ्रुवाहन ने उस दिव्यास्त्र से अर्जुन पर प्रहार किया जिससे उनकी मृत्यु हो गयी।
जब चित्रांगदा को इस बात का पता चला तो वे रोती हुई रणक्षेत्र में आयी। उसने उलूपी को बहुत बुरा भला कहा जिसपर उलूपी ने उसे समझाते हुए कहा कि माता गंगा के श्राप से अर्जुन को बचाने का यही एक मार्ग था। तब बभ्रुवाहन ने अपनी माता से उनके विलाप करने का कारण पूछा जिसपर चित्रांगदा ने उसे सत्य से अवगत कराया कि अर्जुन उसके पिता थे। ये जानकर वो अत्यंत दुखी हुआ और अपने प्राण देने को तैयार हो गया।
ये देख कर उलूपी ने उसे रोका और कहा कि नाग लोक में मृतसंजीवक नामक एक मणि है जिससे अर्जुन को जीवनदान मिल सकता है। तब उलूपी बभ्रुवाहन के साथ नागलोग गयी और वहां से मृतसंजीवक मणि लेकर आयी। उस मणि के प्रभाव से अर्जुन और वृषकेतु को जीवनदान मिला। तत्पश्चात बभ्रुवाहन अपनी माता चित्रांगदा और विमाता उलूपी के साथ युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ में सम्मलित हुए। आगे चल कर बभ्रुवाहन ने अपने नाना चित्रवाहन के बाद मणिपुर का सिंहासन ही संभाला।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।