हमारे धर्मग्रंथों में ऐसा लिखा गया है कि मंत्री ही किसी राजा के राज्य का आधार होते हैं। मंत्री वे कहलाते हैं जिससे "मंत्रणा", अर्थात सलाह लेकर कोई राजा अपनी प्रजा के हित में कोई निर्णय लेता है। किसी राजा के कई मंत्री हो सकते थे और उनमें से जो मुख्य होता था उन्हें "महामंत्री" के नाम से जाना जाता था। आगे चल कर आधुनिक काल में इन्ही मंत्रियों को "आमात्य" या "सचिव" कहा जाने लगा।
महाराज विक्रमादित्य के नौ मंत्री, जिन्हे "नवरत्न" कहा जाता था, समस्त विश्व में विख्यात हैं। इसी प्रकार त्रेतायुग में श्रीराम के पिता महाराज दशरथ के भी कई मंत्री बताये गए हैं। हालाँकि इनका वर्णन रामचरितमानस में नहीं दिया गया है किन्तु मूल वाल्मीकि रामायण में इनके बारे में बताया गया है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के सप्तम सर्ग में हमें इनका वर्णन मिलता है।
रामायण के बालकाण्ड के सप्तम सर्ग के श्लोक १, २ एवं ३ में ये बताया गया है कि महाराज दशरथ के कुल ८ मुख्य मंत्री थे। इनका नाम था - धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमन्त्र। इनमें से सुमन्त्र सभी मंत्रियों के प्रधान थे।
सभी मंत्री अलग-अलग विषयों में दक्ष थे। सुमन्त्र अर्थशास्त्र के प्रकाण्ड ज्ञाता थे। ऐसा कहा गया कि महाराज दशरथ अपने सात मंत्रियों से मंत्रणा कर फिर आमात्य सुमन्त्र के साथ अंतिम मंत्रणा करते थे और फिर निर्णय लेते थे। आइये रामायण के इन तीनों श्लोकों को देख लेते हैं -
तस्यामात्या गुणैरासन्निक्ष्वाकोः सुमहात्मनः।
मन्त्रज्ञाश्चेङ्गितज्ञाश्च नित्यं प्रियहिते रताः॥१॥
अर्थात: इक्ष्वाकुवंशी वीर महामना महाराज दशरथके मन्त्रिजनोचित गुणोंसे सम्पन्न आठ मन्त्री थे, जो मन्त्रके तत्त्वको जाननेवाले और बाहरी चेष्टा देखकर ही मनके भावको समझ लेनेवाले थे। वे सदा ही राजाके प्रिय एवं हितमें लगे रहते थे।
अष्टौ बभूवुर्वीरस्य तस्यामात्या यशस्विनः।
शुचयश्चानुरक्ताश्च राजकृत्येषु नित्यशः॥२॥
अर्थात: इसीलिये उनका यश बहुत फैला हुआ था। वे सभी शुद्ध आचारविचार से युक्त थे और राजकीय कार्यों में निरन्तर संलग्न रहते थे।
धृष्टिर्जयन्तो विजयः सुराष्ट्रो राष्ट्रवर्धनः ।
अकोपो धर्मपालश्च सुमन्त्रश्चाष्टमोऽर्थवित्॥३॥
अर्थात: उनके नाम इस प्रकार हैं- धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और आठवें सुमन्त्र, जो अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे।
इसके बाद अगले, अर्थात चौथे श्लोक में महाराज दशरथ के दो ऋत्विजों, अर्थात पुरोहितों के बारे में बताया गया है। रामायण के अनुसार महाराज दशरथ के दो पुरोहित थे - ब्रह्मा पुत्र एवं सप्तर्षियों में से एक, महर्षि वशिष्ठ एवं महर्षि गौतम के पुत्र वामदेव। इन दोनों में महर्षि वशिष्ठ महाराज दशरथ के इक्षवाकु कुल के कुलगुरु भी थे और सूर्यकुल का कोई भी सम्राट बिना इनकी मंत्रणा के कोई निर्णय नहीं लेता था।
ऋत्विजौ द्वावभिमतौ तस्यास्तामृषिसत्तमौ।
वसिष्ठो वामदेवश्च मन्त्रिणश्च तथापरे॥४॥
अर्थात: ऋषियों में श्रेष्ठतम वसिष्ठ और वामदेव - ये दो महर्षि राजा के माननीय ऋत्विज् (पुरोहित) थे।
इसके अगले श्लोक में छः ऐसे महान ऋषियों के बारे में बताया गया है जो महर्षि वशिष्ठ एवं वामदेव के अतिरिक्त उनके ऋत्विज एवं मंत्री पद पर आसीन थे। ये छः ऋषि थे - सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, मार्कण्डेय और कात्यायन।
सुयज्ञोऽप्यथ जाबालिः काश्यपोऽप्यथ गौतमः।
मार्कण्डेयस्तु दीर्घायुस्तथा कात्यायनो द्विजः॥५॥
अर्थात: इनके सिवा सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, दीर्घायु मार्कण्डेय और विप्रवर कात्यायन भी महाराज के मन्त्री थे।
रामायण में ऐसा स्पष्ट रूप से वर्णित है कि महाराज अपने इन सभी मंत्रियों एवं ऋत्विजों की मंत्रणा के बिना जनता के हित में कोई निर्णय नहीं लिया करते थे। हालाँकि इन सभी ऋषियों में भी महर्षि वशिष्ठ कुलगुरु होने के कारण प्रधान माने जाते थे।
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