हम सभी श्रीकृष्ण और जरासंध की प्रतिद्वंदिता के विषय में जानते हैं। श्रीकृष्ण द्वारा अपने जमाता कंस के वध के पश्चात उसने १७ बार मथुरा पर आक्रमण किया किन्तु उन सभी युद्ध में उसे मुँह की खानी पड़ी। श्रीकृष्ण और बलराम हर बार उसकी पूरी सेना का नाश कर उसे जीवित छोड़ देते थे। वास्तव में वे दोनों चाहते थे कि जरासंध बार बार संसार के सभी पापियों को लेकर आये ताकि वे उनका एक बार में ही संहार कर सकें।
किन्तु जरासंध भी हठी था। उसने १८वीं बार भी मथुरा पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उसने अंतिम बार अभी तक का सबसे अधिक संहारक हमला मथुरा पर किया जिसमें ना केवल आर्यावर्त कई राजाओं ने उसका साथ दिया बल्कि इस बार एक विदेशी सम्राट कालयवन भी अपनी एक करोड़ की सेना लेकर जरासंध से आ मिला। कालयवन का वध तो खैर श्रीकृष्ण ने महाराज मुचुकुन्द द्वारा करवा दिया किन्तु उसकी सेना जरासंध के साथ ही रही।
उसने इस सेना के साथ आर्यावर्त के कई राजाओं की सेना के साथ मथुरा पर इतिहास का सबसे बड़ा आक्रमण किया। कहा जाता है कि उस समय अकेले जरासंध के पास २३ अक्षौहिणी सेना थी जबकि महाभारत के युद्ध में दोनों ओर से कुल १८ अक्षौहिणी सेना ने भाग लिया था। अब आप सोच सकते हैं कि वो आक्रमण कितना भयानक था।
उधर जरासंध के बार बार के आक्रमण से तंग आ कर श्रीकृष्ण ने समस्त यादवों के साथ मथुरा छोड़ने का निर्णय लिया। महाराज उग्रसेन ने भी इस बात का समर्थन किया। श्रीकृष्ण के नेतृत्व में समस्त यदुवंश ने अपनी समस्त धन, धान्य एवं संपत्ति लेकर द्वारिका की और प्रस्थान किया। उसी बीच मार्ग में ही जरासंध की सेना ने श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया। अपनी प्रजा को उस आक्रमण से बचाने के लिए श्रीकृष्ण और बलराम ने लीला रची और प्रवर्षण पर्वत पर जा कर छिप गए। जरासंध को तो श्रीकृष्ण से ही मतलब था इसीलिए उसने अपनी सेना के साथ उनका पीछा किया।
जरासंध के नेतृत्व में असंख्य राजाओं ने प्रवर्षण पर्वत को घेर लिया। जरासंध ने उन सभी राजाओं को उस समूचे पर्वत पर ही आग लगाने की आज्ञा दी ताकि श्रीकृष्ण और बलराम उस आग में जल कर मर जाएँ। उस समय जरासंध की सेना में ऐसे-ऐसे राजा थे जिनके बारे में सुनकर आपको आश्चर्य होगा। हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय ४२ में श्लोक २८ से ३६ तक उन सभी राजाओं का वर्णन दिया गया है।
मद्रः कलिङ्गाधिपतिश्चेकितानश्च बाह्लिकः। काश्मीरराजो गोनर्दः करूषाधिपतिस्तथा॥
द्रुमः किंपुरुषश्चैव पर्वतीयाश्च मानवाः। पर्वतस्यापरं पार्श्वं क्षिप्रमारोहयन्त्वमी॥
पौरवो वेणुदारिश्च वैदर्भः सोमकस्तथा। रुक्मी च भोजाधिपतिः सूर्याक्षश्चैव मालवः॥
पाञ्चालाधिपतिश्चैव द्रुपदश्च नराधिपः। विन्दानुविन्दावावन्त्यौ दन्तवक्त्रश्च वीर्यवान्॥
छागलिः पुरमित्रश्च विराटश्च महीपतिः। कौशाम्ब्यो मालवश्चैव शतधन्वा विदूरथः॥
भूरिश्रवास्त्रिगर्तश्च बाणः पञ्चनदस्तथा। उत्तरं पर्वतोद्देशमेते दुर्गसहा नृपाः॥
आरोहन्तु विमर्दन्तो वज्रप्रतिमगौरवाः। उलूकः कैतवेयश्च वीरश्चांशुमतः सुतः। एकलव्यो दृढाश्वश्च क्षत्रधर्मा जयद्रथः॥
उत्तमौजास्तथा शाल्वः कैरलेयश्च कैशिकः। वैदिशो वामदेवश्च सुकेतुश्चापि वीर्यवान्॥
पूर्वपर्वतनिर्व्युहमेतेष्वायतमस्तु नः । विदारयन्तो धावन्तो वाता इत बलाहकान्॥
हरिवंशपुराण, विष्णुपर्व, अध्याय ४२, श्लोक २८-३६)
जरासन्ध ने आदेश दिया – मद्र के राजा (शल्य), कलिंग के राजा, चेकितान, बाह्लीक (भीष्म के तात), काश्मीर के राजा गोनर्द, करूष देश के राजा (पौंड्रक), महाराज द्रुम, किंपुरुष (पर्वतों पर रहने वाले मनुष्य), ये सब इस पर्वत के दूसरी ओर से शीघ्र चढ़ें।
पुरुवंश के वेणुदारि, विदर्भ के राजा सोमक, भोजकट के स्वामी रुक्मी, मालवा के स्वामी सूर्याक्ष, पाञ्चाल के राजा द्रुपद, अवन्ती के राजा विन्द एवं उनके भाई अनुविन्द, प्रतापी दन्तवक्त्र, पुरमित्र, मत्स्यदेश के राजा विराट, कौशाम्बी के राजा शतधन्वा और मालव के राजा विदूरथ, भूरिश्रवा, त्रिगर्तनरेश (सुशर्मा), पञ्चनद के स्वामी बाण, ये सब इस पर्वत के उत्तरी भाग से शत्रु को रौंदते हुए चढ़ाई करें।
छल करने में कुशल शकुनि का पुत्र उलूक, अंशुमान् का वीर पुत्र, दृढ़ाश्व, एकलव्य, क्षत्रधर्मा, जयद्रथ, उत्तमौजा, शाल्व, केरल के राजा कैशिक, विदिशा के स्वामी वामदेव, प्रतापी सुकेतु, ये सब पूर्वदिशा से पर्वत को वैसे ही विदीर्ण करते हुए आक्रमण करें जैसे वायु के प्रहार से बादलों के समूह बिखर जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उस समय जरासंध के सहयोगी अनेक ऐसे राजा थे जिन्होंने बाद में महाभारत के युद्ध में भाग लिया। यही नहीं, पांडवों के कई सम्बन्धियों (शल्य, बाह्लीक, द्रुपद, विराट, उलूक इत्यादि) ने उस समय जरासंध जैसे पापी का साथ दिया। बाद में इनमें से कइयों ने पांडवों और श्रीकृष्ण की ओर से महाभारत का युद्ध लड़ा।
इस सेना में जो वास्तव में जरासंध के मित्र थे वे थे - उलूक, एकलव्य, शाल्व, रुक्मी, पौंड्रक, सुशर्मा, बाण, शतधन्वा, आदि हैं। इस सेना में कई ऐसे राजा भी थे जो मथुरा पर आक्रमण करना नहीं चाहते थे किन्तु जरासंध के भय के कारण वे उससे मिल गए। ये थे - शल्य, विराट, द्रुपद, चेकितान आदि।
बाद में चेकितान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना में एक बड़े पद पर प्रतिष्ठित हुए। जब महाभारत के युद्ध में नारायणी सेना दुर्योधन के पक्ष में चली गयी तो चेकितान ने सात्यकि के साथ पांडवों का पक्ष लिया था। इसी प्रकार उत्तमौजा, द्रुपद, विराट आदि ने भी श्रीकृष्ण एवं पाण्डवों का पक्ष ही लिया था।
जय श्रीकृष्ण ⛳🙏
जवाब देंहटाएंजय श्रीकृष्ण।
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