आज कल सेंगोल की बहुत चर्चा हो रही है। इसके सम्बन्ध में कई भ्रांतियाँ भी फ़ैल रही है। अधिकतर लोग सेंगोल का ऐतिहासिक महत्त्व बता रहे हैं किन्तु आपको जानकर अच्छा लगेगा कि सेंगोल का पौराणिक महत्त्व भी बहुत अधिक है। सहस्त्रों वर्षों से सेंगोल का वर्णन हमारे पौराणिक ग्रंथों में है, विशेषकर इसका वर्णन महाभारत में किया गया है, पर किसी और नाम से। इसके विषय में लगभग हर व्यक्ति जनता होगा पर इस शब्द "सेंगोल" से बहुत कम लोग परिचित हैं। तो आइये हम सेंगोल के विषय में कुछ जानते हैं।
चलिए प्रथम इसके ऐतिहासिक महत्त्व के विषय में जानते हैं। सेंगोल शब्द की उत्पत्ति तमिल शब्द "सेम्मई" से हुई है जिसका अर्थ होता है नीतिपरायणता। इस शब्द का संस्कृत अर्थ "संकु", अर्थात शंख से जुड़ा हुआ है जो पवित्रता का प्रतीक है। सेंगोल वास्तव में कुछ और नहीं बल्कि वही राजदंड होता था जिसका वर्णन हमारे पुराणों और ग्रंथों में कई बार किया गया है। हालाँकि सेंगोल शब्द तमिल भाषा से प्रेरित है और मूल रूप से दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य से जुड़ा हुआ है।
सेंगोल वास्तव में एक दंड हुआ करता था जिसे सत्ता के हस्तानांतरण हेतु प्रयोग में लाया जाता था। संस्कृत और हिंदी भाषा में इसे ही राजदंड कहते हैं। सेंगोल या राजदंड का उपयोग लगभग पूरे आर्यावर्त में किया जाता था। सेंगोल जब किसी राजा को सौंपा जाता था तो उसका अर्थ ये होता था कि वो राजा उस दंड को साक्षी मान कर अपना राज्य नीतिपरायणता और धर्मानुसार ही चलाएगा। वास्तव में ये किसी राजा के राज्य की राजनीति में "दंड" का प्रतिनिधित्व करता था।
राजधर्म में शासन के चार मुख्य भाग बताये गए हैं। ये हैं - साम, दाम, भेद और दण्ड। ये चारों किसी भी शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए आवश्यक माने गए हैं। इन्हे किसी सम्राट के चार शस्त्रों के समान बताया गया है जिसे वो समयानुसार अपने राज्य को न्यायपूर्वक चलाने के लिए उपयोग में लाता है। साम का अर्थ है समझाना, दाम का अर्थ है किसी चीज का उचित मूल्य देकर देश के लिए उसका अधिग्रहण करना, भेद का अर्थ है राज्य का गुप्तचर विभाग जो देश की रक्षा के लिए अति आवश्यक है।
इनमें से जो अंतिम और सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वो है दण्ड। कोई भी राजा किसी राज्य को बिना दंड के सुचारु रूप से नहीं चला सकता। प्रथम तीन चरण उन नागरिकों के लिए हैं जो राजाज्ञा का पालन करते हैं किन्तु दंड उनके लिए आवश्यक माना गया है जो उदंड हैं और राजाज्ञा का उलंघन करते हैं। कोई व्यक्ति यदि शठ है और राजाज्ञा और नियम का पालन नहीं करता तो वो औरों के लिए गलत उदाहरण प्रस्तुत करता है। ऐसे व्यक्तियों के लिए दंड का प्रावधान किया गया है। सेंगोल या राजदंड इसी दंड को का सांकेतिक रूप से प्रतिनिधित्व करता है।
ऐतिहासिक ग्रंथों में सेंगोल की बनावट के बारे में भी विस्तार से लिखा गया है। अभी जो सेंगोल संसद भवन में लगाया गया है वो चांदी से निर्मित है जिसपर सोने का पानी चढ़ाया गया है पर प्राचीन काल में इसे ठोस सोने से बना हुआ बताया गया है। अलग-अलग राज्यों के राजा अपने-अपने सेंगोल का प्रयोग करते थे किन्तु उनकी बनावट बहुत हद तक एक प्रकार की ही होती थी। ग्रंथों में इस दंड की लम्बाई चार हाथ (५-६ फ़ीट) बताई गयी है।
इस सेंगोल के तीन मुख्य भाग हैं। सबसे ऊपर महादेव के वाहन नंदी विराजमान हैं। नंदी को समर्पण का प्रतीक माना जाता है। इस दंड पर नंदी के होने का अर्थ ये है कि जिस प्रकार नंदी पूर्ण रूप से महादेव को समर्पित हैं उसी प्रकार राजा भी पूर्ण रूप से अपनी प्रजा के प्रति समर्पित रहे। नंदी का एक अर्थ स्थायित्व भी है। जिस प्रकार नंदी महादेव के सामने स्थिर रूप से बैठे रहते हैं उसी प्रकार राजा से अपने राज्य में स्थायित्व स्थापित करने की अपेक्षा होती है। इसके अतिरिक्त चोल साम्राज्य के काल में दक्षिण भारत में शैव धर्म अपने चरम पर था और नंदी उसी शैव धर्म के प्रवर्तक भी हैं।
सेंगोल का दूसरा भाग वो मंच है जिसपर नंदी विराजमान हैं। उस मंच को संसार का प्रतीक माना गया है। सेंगोल की लम्बाई चार हाथ होने का भी एक विशेष तात्पर्य है। कलियुग में मनुष्य की ऊंचाई चार हाथ ही बताई गयी है। इस प्रकार सेंगोल समता का भी प्रतीक बन जाता है।
सेंगोल का तीसरा भाग उस मंच के नीचे का है जहाँ माता लक्ष्मी की आकृति है। ये राज्य के धन सम्पदा का प्रतीक है और ऐसी मान्यता है कि जिसके हाथ में ये दंड होता है, माता लक्ष्मी उसके राज्य को धन सम्पदा से भर देती है। माता लक्ष्मी के साथ वहां फसल और फूल पत्तियां भी उकेरी गयी है जो किसी भी देश या राज्य की हरियाली और अन्न सम्पदा का प्रतीक है। ये माता अन्नपूर्णा से प्रार्थना है कि उस राज्य में कभी दुर्भिक्ष ना पड़े और वहां कभी धन-धान्य की कमी ना हो।
यदि सेंगोल की बात करें तो मूल रूप से ये चोल साम्राज्य से जुड़ा है जिसका शासनकाल ८४८ ईस्वी से १२७९ ईस्वी तक माना जाता है। जैसा कि पहले बताया है कि सेंगोल एक स्वर्ण दंड होता था जिसे सत्तारूढ़ सम्राट अगले सम्राट को हस्तानांतरित करता था। तो इस प्रकार सेंगोल सत्ता के हस्तानांतरण का प्रतीक होता था। इसी दंड को धारण कर राजा अपनी प्रजा के न्यायपूर्वक पालन करने की शपथ लेता था। तो सेंगोल वास्तव में इस बात का साक्षी होता था कि राजा अपनी प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन सही ढंग से कर रहा है या नहीं।
कई लोगों को ये लग रहा होगा कि क्या वास्तव में सेंगोल इतना महत्वपूर्ण था? तो इसका एक वर्णन महान तमिल ग्रन्थ शिलप्पदिकारम् में मिलता है। जब माता कन्नगी अपने पति कोवलन के साथ मदुरै पहुँचती है तो दुर्भाग्य से राजा अनजाने में कोवलन को मृत्युदंड दे देता है। अपने पति की मृत्यु का समाचार सुन कर कन्नगी राजा से मिलती यही और वहीँ सेंगोल का वर्णन आता है।
कन्नगी उस राजा को धिक्कारते हुए कहती है कि क्या इसीलिए उसने इस राजदंड (सेंगोल) को धारण किया है कि वो प्रजा के साथ अन्याय कर सके? राजा कन्नगी से अपनी बात का प्रमाण देने के लिए कहता है जिसपर कन्नगी उसे अपनी रत्नजड़ित पायल दिखाती है। जब राजा को अपनी गलती का पता चलता है तो उसे इतना क्षोभ होता है कि वो अपने उस एक गलत निर्णय के कारण उसी सेंगोल के समक्ष अपने प्राण त्याग देता है। ये घटना सेंगोल के वास्तविक महत्त्व को दर्शाती है। कोवलन और कन्नगी के बारे में विस्तार से यहाँ जानें।
चोल साम्राज्य के साथ साथ मौर्य साम्राज्य में भी सेंगोल का बड़ा महत्त्व है। यहाँ इसे राजदंड कहा गया है। राजदंड की महत्ता बताने के लिए एक प्राचीन पद्धति का वर्णन मिलता है। जब भी कोई राजा सिंहासन पर बैठता था तो वो तीन बार "अदण्ड्यो: अस्मि" कहता था। इसका अर्थ था कि ये दंड राजा को सजा नहीं दे सकता।
तब इसके विरोध में उनके कुलगुरु या पुरोहित उसे उसी दंड से तीन बार मार कर कहते थे - "धर्मदण्ड्यो: असि"। इसका अर्थ था कि इस दंड को राजा को भी दण्डित करने का अधिकार है। इसके बाद ही वो राजा उस दंड को धारण कर सिंहासनरूढ़ होता था। ये सेंगोल या राजदंड की महत्ता को दर्शाता है।
सेंगोल या राजदंड का वर्णन हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी दिया गया है। विशेषकर महाभारत के शांति पर्व के अंतर्गत राजधर्मानुशासन पर्व के १४वें और १५वें खंड में इसकी महत्ता के विषय में बताया गया है। विशेषकर १५वें खंड में अर्जुन द्वारा इस दंड के महत्त्व का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसे आप महाभारत में विस्तार से पढ़ सकते हैं किन्तु यहाँ मैं इसे संक्षेप में बता देता हूँ शांतिपर्व के अध्याय चौदह के श्लोक १४ से आरम्भ होता है।
नदण्डः क्षत्रियो भाति नदण्डो भूमिमश्नुते।
नादंडस्य प्रजा राज्ञः सुखं विदन्ति भारत।।
- शांति पर्व, अध्याय चौदह, श्लोक १४
अर्थात: यहाँ द्रौपदी महाराज युधिष्ठिर से कहती है कि जो दंड देने की शक्ति नहीं रखता उस क्षत्रिय की शोभा नहीं होती। दंड ना देने वाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। दण्डहीन राजा से कभी प्रजा को सुख नहीं मिलता।
इसके बाद शांतिपर्व के चौदहवें अध्याय के श्लोक २१ से श्लोक २५ तक द्रौपदी युधिष्ठिर द्वारा सप्त द्वीपों (जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप एवं पुष्करद्वीप) को अपने दंड से अधिकार में लेने का वर्णन करती है।
इसके बाद शांतिपर्व का पूरा का पूरा पन्द्रहवां अध्याय अर्जुन द्वारा राजदंड की महत्ता के वर्णन से भरा पड़ा है। इस अध्याय में कुल ५८ श्लोक हैं जहाँ अर्जुन विस्तार से युधिष्ठिर और सभासदों को राजदंड (सेंगोल) के महत्त्व के विषय में बताते हैं। राजदंड के विषय में विस्तार से जानने के लिए हर किसी को महाभारत के शांतिपर्व के १५वें अध्याय को पढ़ना चाहिए।
jankari ke liye dhanaybad
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