कुछ समय पहले हमने श्रीराम के पूर्वज महाराज युवनाश्व के विषय में लेख प्रकाशित किया था जिन्होंने गर्भ धारण किया था। उन्होंने ने ही मान्धाता नामक महान पुत्र को जन्म दिया। मान्धाता ने सौ राजसूय यज्ञ किये। साथ ही यही वो पहले सूर्यवंशी सम्राट थे जिन्होंने चंद्रवंशियों से सम्बन्ध बनाये। इनके विषय में हम किसी और लेख में विस्तार से जानेंगे।
मान्धाता ने यादव सम्राट शशिबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती से विवाह किया जिनसे इन्हे तीन पुत्र और ५० कन्यायें प्राप्त हुई। उनकी सभी ५० कन्याओं का विवाह सौभरि ऋषि से हुआ। इनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम था पुरुकुत्स। इन्ही के छोटे भाई थे अम्बरीष एवं मुचुकंद। पुरुकुत्स के वंश में ही आगे चल कर श्रीराम ने जन्म लिया। मुचुकंद महान वीर थे जिन्होंने देवराज इंद्र की युद्ध में सहायता की। बाद में इंद्र ने इन्हे गहन निद्रा का वरदान दिया और इन्ही के हाथों द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने कालयवन का वध करवाया।
अम्बरीष महान विष्णु भक्त थे। वे सदैव निष्ठा से प्रजा की सेवा करते थे। श्रीहरि के प्रति ऐसी भक्ति थी कि नारायण ने स्वयं सुरदर्शन चक्र को महाराज अम्बरीष की रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। इसी कारण कोई भी उनसे युद्ध करने का साहस नहीं करता था। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने केवल सात दिनों में ही पूरी पृथ्वी को जीत लिया था।
एक बार वैकुण्ठ एकादशी के दिन महाराज अम्बरीष ने वृन्दावन में निर्जल उपवास का आरम्भ किया। उनका ये प्राण था कि उस दिन से १२वें दिन जब द्वादशी का आरम्भ होगा, उसी दिन वे अपना व्रत तोड़ेंगे। उन १२ दिनों में महाराज अम्बरीष ने अपना समस्त राजकोष दान पुण्य के लिए खोल दिया। सहस्त्रों लोगों को उनका इच्छित दान दिया गया। इस प्रकार दान पुण्य करते हुए द्वादशी का दिन आ पहुँचा। पूजा के बाद महाराज अम्बरीष ने महाभिषेक किया और समस्त ब्राह्मणों और प्रजाजनों को दान दिया।
सब कुछ सही ढंग से संपन्न होने के बाद अंततः महाराज अम्बरीष अपना व्रत तोड़ने के लिए पारण (भोजन) पर बैठे। उसी समय वहां महर्षि अत्रि पुत्र दुर्वासा आ पधारे। उन्हें देख कर महाराज अम्बरीष भोजन छोड़ उठ खड़े हुए और उनकी अभ्यर्थना की। उन्होंने महर्षि दुर्वासा से कहा कि "हे ऋषिवर! मेरी ये प्रतिज्ञा थी कि आज द्वादशी के दिन मैं अपना व्रत समाप्त करूँगा। किन्तु इससे पहले समस्त ब्राह्मणों को भोजन कराने का भी प्रण था। बांकी सब तो भोजन कर चुके हैं, अब आप भी कृपया भोजन कर मुझे कृतार्थ करें।"
तब महर्षि दुर्वासा ने उनसे कहा - "नरेश! आपने बड़ा उत्तम व्रत किया है। इस पावन स्थान पर भोजन करने से मुझे भी पुण्य प्राप्त होगा। किन्तु आप तनिक देर रुकिए, मैं स्नान कर के आता हूँ। उसके बाद ही भोजन करूँगा।" अम्बरीष ने तत्काल उनके नदी तक जाने की व्यवस्था करवा दी और उनकी वापसी की प्रतीक्षा करने लगे। उधर दुर्वासा ऋषि नहाते हुए इतने मग्न हो गए कि उन्हें वापस लौटने का ध्यान ही नहीं रहा।
बहुत देर हो गयी और द्वादशी तिथि समाप्त होने को आई। किन्तु महर्षि दुर्वासा अभी तक नहीं आये थे। उन्हें भोजन कराये बिना अम्बरीष भोजन नहीं कर सकते थे। इसी उधेड़ बुन में द्वादशी तिथि बिलकुल निकट आ गयी। अब महाराज अम्बरीष बड़े धर्म संकट में पड़ गए। यदि भोजन करते हैं तो अतिथि धर्म का उलंघन होता है। यदि नहीं करते तो एकादशी व्रत खंडित होता है। उन्हें समझ में नही आया कि क्या करें।
तब वहाँ उपस्थित विद्वान ब्राह्मणों ने कहा कि आप केवल जल पी कर पारण कर लीजिये। इससे आपका व्रत भी नहीं टूटेगा और भोजन कर लेने का कोई दोष भी नहीं लगेगा। उन विद्वान ब्राह्मणों की बात सुन कर अम्बरीष ने जल पीकर एकादशी का व्रत पूरा कर लिया। अभी वे जल पी ही रहे थे कि महर्षि दुर्वासा वहां आ गए। अम्बरीष को स्वयं को भोजन ना करा स्वयं जल पीता देख कर वे अत्यंत क्रोधित हुए और उन्हें श्राप देने को उद्धत हुए।
तब अम्बरीष ने हाथ जोड़ कर विनय पूर्वक उनसे कहा - "हे महर्षि! मेरे एकादशी के व्रत को पूर्ण करने की मेरी प्रतिज्ञा थी। वो खंडित ना हो इसी कारण मैंने केवल जल पीकर पारण किया है। मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि जल के अतिरिक्त मैंने कुछ और ग्रहण नहीं किया। अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप क्रोध त्याग कर भोजन ग्रहण करें।"
पर महर्षि दुर्वासा क्रोध में हित-अहित भूल गए। उन्होंने क्रोध पूर्वक कहा - "हे राजन! क्या तुम्हे ये नहीं पता कि मुझे भोजन कराये बिना तुम्हे जल ग्रहण करने का भी अधिकार नहीं था। तुमने जो पाप किया है उसका दंड तो तुम्हे भुगतना ही होगा।" ये कह कर महर्षि दुर्वासा ने अपनी एक जटा तोड़ कर भूमि पर पटकी। वहाँ से एक भयानक कृत्या का जन्म हुआ। उसका रूप ऐसा भयानक था कि वहाँ उपस्थित लोगों ने डर से अपने नेत्र बंद कर लिए। तब दुर्वासा ने कहा - "हे कृत्या! अधर्म के पथ पर चलने वाले इस राजा को तत्काल खा जा।"
महर्षि दुर्वासा की आज्ञा पाकर वो कृत्या अम्बरीष को खाने को दौड़ी। अम्बरीष स्वयं अपराधबोध से ग्रस्त थे इसी कारण उन्होंने उस कृत्या का प्रतिकार नहीं किया। किन्तु अम्बरीष की रक्षा के लिए नियुक्त सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और एक ही प्रहार से उस कृत्या का नाश कर दिया। कृत्या के वध के पश्चात सुदर्शन महर्षि दुर्वासा के पीछे लपका। दुर्वासा ऋषि ने उसे रोकने का हर प्रयत्न किया किन्तु नारायण के अस्त्र को भला कौन रोक सकता है? अपना अंत निश्चित जान कर महर्षि उससे बचने के लिए तीनों लोकों में भागने लगे।
वे पहले ब्रह्माजी के पास पहुंचे और उनसे अपनी रक्षा की गुहार लगाई। तब परमपिता ने कहा कि "तुमने नारायण के भक्त का वध करने का प्रयास किया है इसी कारण अब इस सुदर्शन से तुम्हे कोई नहीं बचा सकता। किन्तु फिर भी तुम महादेव के पास जाओ। वही इस महान सुदर्शन चक्र को उत्पन्न करने वाले हैं। कदाचित वे तुम्हारी सहायता कर सकें।"
तब महर्षि दुर्वासा तत्काल महादेव के पास पहुँचे। वे उन्ही के अंश से जन्में थे इसी कारण उन्हें अत्यंत प्रिय थे। उन्होंने महादेव से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना की। किन्तु महादेव नारायण के द्रोही की सहायता कैसे कर सकते थे? उन्होंने कहा कि "पुत्र! तुमने अज्ञानता में श्रीहरि के क्रोध को भड़काया है। अब इस सुदर्शन को रोक कर मैं उनका अपमान नहीं कर सकता। किन्तु वे सबका हित चाहने वाले हैं अतः तुम उन्ही के पास जाओ।"
ये सुनकर महर्षि वैकुण्ठ पहुँचे। वहां उन्होंने नारायण से क्षमा याचना की और कहा कि वे कृपया अपने अस्त्र को रोक लें। तब नारायण ने कहा - "हे महर्षि! मैंने आपको क्षमा कर दिया है। ये अस्त्र मेरा है और मैं ही इसे रोक सकता हूँ किन्तु अभी मैं ऐसा करने में असमर्थ हूँ क्यूंकि इसे मैंने ही अम्बरीष की सेवा में प्रदान किया था। अतः आप अम्बरीष के पास ही जाइये। वे अवश्य ही इस सुदर्शन चक्र से आपकी रक्षा करेंगे।"
तब महर्षि दुर्वासा पुनः महाराज अम्बरीष के पास आये। वहाँ आकर उन्हें पता चला कि वे अभी तक भूखे रह कर उन्ही की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनका ऐसा स्वाभाव देख कर दुर्वासा को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने महाराज अम्बरीष से क्षमा मांगी और उन्हें सुदर्शन को रोकने को कहा। तब महाराज अम्बरीष ने सुदर्शन चक्र से प्रार्थना की कि वे महर्षि दुर्वासा को क्षमा कर दें। महाराज अम्बरीष के अनुरोध पर सुदर्शन ने दुर्वासा को क्षमा किया और वापस नारायण के पास चला गया।
तत्पश्चात महाराज अम्बरीष ने महर्षि दुर्वासा को भोजन करा फिर पुनः भोजन कर अपना व्रत पूरा किया। महर्षि दुर्वासा ने भोजन किया और महाराज अम्बरीष को अनेकानेक आशीर्वाद दिए। महाराज अम्बरीष को एक पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने अपने पितामह के नाम पर "युवनाश्व" रखा। युवनाश्व को हरिता नामक एक पुत्र की प्राप्ति हुई।
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