ये तो हम सभी जानते हैं कि देवर्षि नारद परमपिता ब्रह्मा के ही मानस पुत्र हैं। हम ये भी जानते हैं कि देवर्षि नारद भगवान श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं। इनके जन्म के विषय में भी आपने कई कथाएं सुनी होगी। किन्तु पुराणों में एक कथा ऐसी आती है कि इन्होने अपने पिता भगवान ब्रह्मा को और ब्रह्मा जी ने इन्हे परस्पर श्राप दे दिया था।
जब परमपिता ब्रह्मा ने प्रथम १४ लोकों की रचना की तब भी उनके मन को संतोष ना मिला। तब उन्होंने श्रीहरि की पुनः तपस्या की और नारायण ने उन्हें मैथुनी सृष्टि रचने का सुझाव दिया। तब ब्रह्मा जी की इच्छा से ४ बालकों का जन्म हुआ जो थे - सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार। उन चारों ने जन्म लेते ही अपने पिता को प्रणाम किया और उनकी इच्छा पूछी।
तब ब्रह्मा जी ने उन्हें मैथुनी सृष्टि कर जीवन का विस्तार करने को कहा। तब उन चारों ने उन्हें विनम्रतापूर्वक मना कर दिया और श्रीहरि की तपस्या करने वन को चले गए। तब ब्रह्मा जी ने पुनः अपने अन्य मानस पुत्रों को प्रकट किया। उनमें से एक थे देवर्षि नारद। वे भी सनत्कुमारों की भांति ही जन्म से ही नारायण के भक्त थे। ब्रह्मा जी ने उनसे भी मैथुनी सृष्टि में योगदान देने को कहा।
तब देवर्षि नारद ने कहा - "हे पिताश्री! आपकी रचित सृष्टि से पहले ही भक्ति का प्रादुर्भाव स्वयं आपसे ही हुआ। मैं भी आपका ही अंश हूँ और इसीलिए भक्ति के अतिरिक्त मुझे और कुछ नहीं सूझता। इसी कारण आपकी आज्ञा पालन करने में मैं असमर्थ हूँ। आप स्वयं भी तो सर्वसमर्थ हैं तो फिर आप ही सृष्टि का विस्तार क्यों नहीं करते? आप भी तो तप ही कर रहे हैं, फिर मुझे तप करने से क्यों रोक रहे हैं?"
जब ब्रह्माजी ने नारद को इसी प्रकार अपनी आज्ञा का उलंघन करते हुए देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया। उन्होंने देवर्षि नारद से कहा - "हे पुत्र! तुम स्वयं मुझसे ही प्रकट हुए हो और तुम्हे प्रकट करने का मेरा उद्देश्य भी सृष्टि का विस्तार करना ही है। भक्ति की महत्ता निःसंदेह सबसे ऊपर है किन्तु फिर भी जिस प्रयोजन से तुम इस जगत में आये हो उसे पूरा करो। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो तुम मेरे कोप के भाजन बनोगे।"
अपने पिता को क्रुद्ध देख कर भी नारद जी का मन भक्ति से विचलित नहीं हुआ और उन्होंने पुनः ब्रह्मा जी की आज्ञा को मानने से मना कर दिया। तब ब्रह्मदेव ने क्रोधित होते हुए कहा - "मेरे बार बार समझने पर भी तुम्हारी बुद्धि स्थिर नहीं हुई इसलिए जाओ मैं तुम्हे श्राप देता हूँ कि जिस ज्ञान के अहम् में तुम मेरी आज्ञा का उलंघन कर रहे हो, उसी ज्ञान का लोप हो जाएगा। तुम अनेकों योनियों में जन्म लेकर विभिन्न प्रकार के भोग विलास में लिप्त रहोगे। तुम्हे जिस तप की आकांक्षा है उस तप का फल तुम्हे प्राप्त नहीं होगा।
तब देवर्षि नारद को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अपने पिता से कहा - "हे पिताश्री! पुत्र यदि कुमार्गी हो तो पिता द्वारा उसे श्राप देना और त्याग देना समझ में आता है किन्तु अपने सच्चरित्र पुत्र को श्राप देना उचित नहीं है। किन्तु मैं आपके श्राप को सम्मानपूर्वक ग्रहण करता हूँ और आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे ये वरदान दें कि मैं जिस भी योनि में जन्म लूँ, मेरे मन में सदैव नारायण की भक्ति ही रहे।"
ये सुनकर ब्रह्माजी का क्रोध तत्काल शांत हो गया और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा - "हे पुत्र! तुम धन्य हो। इस जगत में नारायण की भक्ति के अतिरिक्त कोई और उत्तम कार्य नहीं है। तुमने मेरे श्राप के बाद भी श्रीहरि की भक्ति मांगी है इसीलिए मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि प्रत्येक योनि में तुम श्रीहरि के अनन्य भक्त बने रहोगे और अंततः वैष्णव सत्संग के कारण तुम पुनः मेरे पास लौट आओगे और उस समय मैं तुम्हे पुनः ज्ञान से परिपूर्ण कर दूंगा।"
तब देवर्षि नारद ने उन्हें धन्यवाद तो दिया किन्तु फिर भी उनके मन से वो बात गयी नहीं कि उनके पिता ने उन्हें अकारण ही श्राप दे दिया है। इसी कारण उन्होंने ब्रह्मदेव से कहा - "हे पिताश्री! आपने मुझे अकारण ही श्राप दे दिया है। आपने अपने ही पुत्रों में भेद किया है। मेरे अग्रज (सनत्कुमार) को आपने वन जाकर तप करने की आज्ञा दे दी किन्तु मेरी भी वैसी इच्छा होने पर आपने मुझे अकारण ही श्राप दिया। इसीलिए मैं भी आपको श्राप देता हूँ कि तीन कल्पों तक आप पृथ्वी पर अपूज्य बने रहेंगे। तीन कल्पों के पश्चात ही पृथ्वी पर आपकी पूजा पुनः आरम्भ होगी।"
इस प्रकार पिता और पुत्र को एक दूसरे का श्राप भोगना पड़ा। नारद ने अनेक अधम योनियों में जन्म लिया और अंततः ब्रह्माजी के वरदान के कारण पुनः उनके पुत्र के रूप में जन्में और संसार के सभी ज्ञान को प्राप्त किया। ब्रह्मदेव को भी पृथ्वी पर ना पूजे जाने का श्राप भोगना पड़ा और यही कारण है कि आज भी उनकी पूजा बहुत ही कम की जाती है।
सुन्दर पौराणिक कथा
जवाब देंहटाएंबहुत आभार
हटाएंNice
जवाब देंहटाएंbaap beta ka sambad
जवाब देंहटाएंek baap ki expectations
baap beta ki apni apni mahatab aakankasha