महाराज खटांग के पुत्र थे महाराज दिलीप। एक बार ये अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में गए जहाँ इन्होने उनकी गाय कामधेनु पुत्री नंदिनी की रक्षा का प्रण कर लिया। वे नंदिनी को लेकर वन गए जहाँ पर नंदिनी ने उनकी परीक्षा लेने के लिए एक माया सिंह उत्पन्न किया। उस सिंह ने नंदिनी पर आक्रमण किया जिसकी रक्षा के लिए महाराज दिलीप ने उस सिंह पर अनेक बाण चलाये किन्तु सारे व्यर्थ हुए।
तब उस सिंह ने कहा कि मुझे वरदान प्राप्त है कि कोई भी अस्त्र-शस्त्र मुझे हानि नहीं पहुंचा सकता। आज इस गाय को मेरा भोजन बनने से कोई नहीं बचा सकता। तब महाराज दिलीप ने उनसे कहा कि वो उसे खा ले किन्तु नंदिनी को छोड़ दे। उस माया सिंह ने उनकी बात मान ली और दिलीप उनका भोजन बनने के लिए भूमि पर बैठ गए। तब उनकी गोभक्ति से प्रसन्न हो नंदिनी ने उन्हें एक परम प्रतापी पुत्र का वरदान दिया।
उसी वरदान स्वरुप महाराज दिलीप की पत्नी सुदक्षिणा के गर्भ से महाप्रतापी रघु का जन्म हुआ। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से समस्त विद्याओं को प्राप्त कर लिया। संसार के समस्त दिव्यास्त्र उनके अधीन हो गए। ऐसा कहा गया है कि उनके पास स्वयं नारायणास्त्र भी था। जब वे युवा ही थे तब उनके पिता महाराज दिलीप ने अश्वमेघ यज्ञ किया। स्वयं रघु ने उस अश्व की रक्षा का भार लिया।
पृथ्वी पर तो कोई उस अश्व को पकड़ पाने का साहस नहीं कर पाया किन्तु देवराज इंद्र ने उस अश्व को चुरा लिया। जब रघु को इस बात का पता चला तो उन्होंने देवराज इंद्र को द्वन्द के लिए ललकारा। दोनों में घोर युद्ध हुआ किन्तु इंद्र रघु को परास्त नहीं कर पाए। तब प्रसन्न होकर उन्होंने उस अश्व को रघु को लौटा दिया। वे उस अश्व को लेकर वापस अपने पिता के पास लौटे और अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण हुआ। इंद्र से भी परास्त नहीं होने के बाद रघु की ख्याति त्रिलोक में फ़ैल गयी।
अपने पुत्र का ऐसा प्रताप देख कर महाराज दिलीप ने उन्हें अयोध्या का राजा बना दिया और स्वयं वानप्रस्थ ग्रहण कर लिया। महाराज एक सम्राट के रूप में अपने पिता से बढ़ कर निकले और उन्होंने सम्पूर्ण विश्व में अपने राज्य की पताका फैला दी। उनका प्रताप ऐसा था कि संसार के सभी राजा उनके ध्वज तले शासन करने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे। इस प्रकार महाराज रघु ने पृथ्वी पर अपना एकक्षत्र राज्य स्थापित कर लिया।
महाराज रघु का विवाह सुनयना नामक कन्या से हुआ। कुछ ग्रंथों में उनकी पत्नी का नाम चंद्रभागा बताया गया है। उनसे उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिनका नाम था अज। अज का विवाह राजकुमारी इंदुमती से हुआ।
कई सहस्त्र वर्षों तक शासन करने के बाद उन्हें संसार से विरक्ति हो गयी और उन्होंने अपना सब कुछ दान करने का निश्चय किया। महर्षि वशिष्ठ के सुझाव पर उन्होंने विश्वजीत नामक एक महान यज्ञ किया और अपना समस्त धन, सम्पदा, आभूषण, पात्र और यहाँ तक कि राजसी वस्त्रों का भी दान कर दिया। वे स्वयं मिट्टी के बर्तनों में भोजन करने लगे और सात्विक जीवन जीने लगे।
उसी समय वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स नामक ब्राह्मण कुमार उनके पास दान की आशा से आये। कुछ ग्रंथों में कौत्स को महर्षि विश्वामित्र का शिष्य बताया गया है। जब वे यज्ञस्थल पर आये और देखा कि महाराज रघु सब कुछ दान कर चुके हैं तो वे वापस जाने लगे। एक ब्राह्मण को इस प्रकार वापस जाता देख कर महाराज रघु ने उन्हें रोका और उनके आने का प्रयोजन पूछा।
तब कौत्स ने कहा - "हे महाराज! मैं आया तो यहाँ दान की आशा से ही था किन्तु देखता हूँ कि आपने अपना सर्वस्व दान कर दिया है इसी कारण आपको मैं किसी दुविधा में नहीं डालना चाहता।"
ये सुनकर महाराज रघु ने कहा - "हे ब्राह्मण कुमार! मेरे द्वार से एक ब्राह्मण दक्षिणा लिए बिना लौट जाये तो इससे मेरे उज्जवल कुल पर कलंक लगेगा। आपको जो भी चाहिए आप निःसंकोच कहें। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं आपकी दक्षिणा अवश्य दूँगा।"
तब कौत्स ने कहा कि उन्हें दक्षिणा में १४००००००० (चौदह करोड़) स्वर्ण मुद्राएं चाहिए। एक ब्राह्मण को इतना धन मांगता देख रघु आश्चर्य में पड़ गए और उनसे पूछा कि ऐसा क्या कारण है कि आपको इतने धन की आवश्यकता है। तब कौत्स ने बताया कि उन्होंने अपने गुरु से बार बार गुरुदक्षिणा मांगने का हठ किया जिससे चिढ़कर उनके गुरु ने कहा कि "मैंने तुम्हे १४ विद्याएं पढाई है अतः तुम हर विद्या के लिए मुझे १०००००० (एक करोड़) स्वर्ण मुद्रा दो।" उसी के लिए मैं आपके पास आया था।
तब महाराज रघु ने कौत्स से कहा - "हे ब्राह्मण कुमार! आप मेरे अतिथिशाला में ३ दिनों तक रुकिए। मैं इन तीन दिनों में किसी भी प्रकार आपकी दक्षिणा का प्रबंध कर दूंगा।" तब कौत्स ने उनकी बात मान ली और वहीँ रुक गए।
बाद में महाराज रघु ने अपने महामंत्री से पूछा कि इतना धन कैसे प्राप्त किया जाये। तब उनके महामंत्री ने कहा कि "हे महाराज! आपके विश्वजीत यज्ञ के लिए संसार के सभी राजा पहले ही कर दे चुके हैं जिसे आपने दान कर दिया। अब उनसे पुनः कर मांगना न्याय नहीं।" तब महाराज रघु ने कहा कि "यदि ऐसा है तो मैं देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर से कर लूंगा।"
तब उनके महामंत्री ने पूछा कि वे तो देवता हैं, उनसे कर कैसे लिया जा सकता है? इस पर महाराज रघु ने कहा कि वे भले हीं देवता हों पर रहते कैलाश के निकट अलकापुरी में हैं जो पृथ्वी पर ही है। मैं इस पृथ्वी का सारभौम राजा हूँ इसीलिए मेरा कुबेर से कर लेना न्यायसंगत है। तब उनके महामंत्री ने संदेह जताया कि कदाचित कुबेर उन्हें कर ना दें।
ये सुनकर महाराज रघु ने उन्हें अपना रथ सुसज्जित करने को कहा। उन्होंने कहा कि कल प्रातः मैं कुबेर से युद्ध करने जाऊंगा और आज रात्रि इसी रथ पर विश्राम करूँगा। महाराज रघु रात्रि भर उसी रथ पर सोते रहे और प्रातः जब वे कुबेर पर आक्रमण करने निकलने वाले थे तो उनके महामंत्री ने उन्हें सूचित किया कि महाराज। जहाँ तक दृष्टि जाती है, भूमि स्वर्ण मुद्राओं से भरी दिखती है। रात्रि को यक्षराज कुबेर ने धनवर्षा की है।
तब महाराज रघु समझ गए कि यक्षराज कुबेर ने उनका मान रख लिया। उन्होंने कुबेर का आभार व्यक्त किया और कौत्स से कहा कि वे ये सारा धन ले जा सकते हैं। किन्तु कौत्स ने कहा कि "महाराज! ये धन १४ कोटि से कहीं अधिक है। मैं वचन से बंधा हूँ इसी कारण उससे अधिक धन स्वीकार नहीं कर सकता।" ये सुनकर महाराज रघु ने १४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएं कौत्स के साथ भिजवा दी और शेष बचे समस्त धन को अन्य लोगों को दान कर दिया।
उस दिन एक बार फिर से उनका प्रताप त्रिलोक ने देखा। तभी से उनका कुल रघुकुल के नाम से विख्यात हुआ और ये कहावत आरम्भ हुई कि - "रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाये पर वचन ना जाई।"
कुछ दक्षिण भारतीय ग्रंथों में महाराज रघु और रावण के युद्ध की चर्चा भी आती है। कथा के अनुसार एक बार रावण महाराज रघु से युद्ध करने अयोध्या आया। उस समय वे अपने भवन में नहीं थे। तब रावण ने उनके द्वारपाल को सूचना दी और क्रोध में वापस लंका चला गया। जब महाराज रघु वापस लौटे तो उन्हें रावण की चुनौती का पता चला।
वे क्षत्रिय थे और किसी की चुनौती अस्वीकार नहीं कर सकते थे। रावण तो चला गया था किन्तु उसे सबक सिखाने के लिए महाराज रघु ने नारायणास्त्र का संधान किया और उसे लंका की ओर छोड़ दिया। रावण उस समय लंका पहुंचा ही था कि उसने देखा कि असंख्य बाण लंका को ध्वस्त कर रहे हैं।
रावण ने पहचान लिया कि ये नारायणास्त्र है जिसके निवारण का केवल एक ही उपाय है कि उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया जाये। उसने अपनी प्रजा को ऐसा ही करने को कहा और स्वयं रथ से उतारकर उसने नारायणास्त्र के समक्ष आत्मसमर्पण किया। तब कहीं जाकर नारायणास्त्र वापस लौटा। इससे रावण को भी महाराज रघु की शक्ति का ज्ञान हो गया।
महाराज रघु के पुत्र महाराज अज के पुत्र ही महाराज दशरथ थे। महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न थे। इस महाराज रघु श्रीराम के परदादा थे। ये उनका ही प्रताप था कि स्वयं श्रीराम भी रघुकुल की गाथा सदैव गाते रहते थे।
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