हम सभी महाभारत में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए अद्वितीय ज्ञान, अर्थात श्रीमद्भगवतगीता के विषय में तो जानते ही हैं। महाभारत के भीष्म पर्व के आरम्भ में ज्ञान का ये अथाह सागर वर्णित है जिसमें १८ अध्याय एवं कुल ७०० श्लोक है। किन्तु क्या आप ये जानते हैं कि श्रीगणेश ने भी गीता का ज्ञान दिया था जो गणेश गीता के नाम से प्रसिद्ध है।
श्री गणेश गीता का वर्णन हमें गणेश पुराण के कृद खंड के अध्याय १३८ से १४८ में मिलता है। इस ग्रन्थ के अनुसार श्रीगणेश ने अपने "गजानन" अवतार में ये दैवीय ज्ञान राजा वरेण्य को दिया था। जहाँ भगवद्गीता में १८ अध्याय हैं वहीँ गणेश गीता में ११ अध्याय हैं। इन दोनों के श्लोकों की संख्या भी अलग-अलग हैं। भगवद्गीता के ७०० श्लोकों की तुलना में गणेश गीता में ४१२ श्लोक हैं।
इन दोनों गीताओं में एक अंतर ये भी है कि जहाँ भगवद्गीता में अर्जुन मोह के वश में चले गए थे और उससे उबारने के लिए युद्ध से पहले श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का ज्ञान दिया, वहीँ राजा वरेण्य को ये ज्ञान युद्ध के बाद मिला और वे पूर्णतः चेतन थे और स्वयं उन्होंने श्रीगणेश से ज्ञान प्रदान करने की प्रार्थना की थी।
कथा के अनुसार राजा वरेण्य और उनकी पत्नी पुष्पिका ने श्रीगणेश की घोर आराधना कर उन्हें पुत्र के रूप में पाने का वरदान उनसे प्राप्त किया। उसी समय सिन्दूरा नामक एक दैत्य ने त्रिलोक में हाहाकार मचा दिया। देवताओं ने श्रीगणेश से उसके वध का अनुरोध किया। देवताओं के अनुरोध पर श्रीगणेश गजानन के रूप में अवतरित हुए।
उसी समय राजा वरेण्य की पत्नी पुष्पिका ने एक बालक को जन्म दिया किन्तु जब वे प्रसव पीड़ा से मूर्छित पड़ी थी तब एक राक्षसी उनके पुत्र को उठा कर ले गयी। तब श्रीगणेश का वरदान पूर्ण करने के लिए शिवगणों ने गजानन को पुष्पिका के पालने में रख दिया। इस प्रकार श्रीगणेश को पुत्र के रूप में पाने का वरदान सफल हुआ।
हालाँकि नियति कुछ और ही निश्चित हुई थी। जब पुष्पिका की मूर्छा टूटी तो गजमुख चतुर्भुज बालक को देख कर वो डर गयी। जब वरेण्य ने ऐसे अद्भुत बालक को देखा तो दैववश उन्हें अपने उस वरदान का विस्मरण हो गया था जो उन्हें श्रीगणेश से माँगा था और उन्होंने ये सोच कर कि वो बालक अशुभ लक्षणों के साथ पैदा हुआ है, गजानन को वन में छोड़ दिया।
उस समय वन में विचरण करते हुए महर्षि पराशर ने उन्हें देखा और उन्हें अपने आश्रम ले आये। गजानन वहीँ बड़े हुए और उन्होंने महर्षि पराशर से ही शिक्षा प्राप्त की। समय आने पर गजानन ने सिन्दूरा दैत्य का वध कर सृष्टि को उसके अत्याचार से मुक्त किया। तब जाकर वरेण्य और पुष्पिका को ये पता चला कि जिस बालक को उन्होंने त्याग दिया था वो कोई और नहीं स्वयं श्रीगणेश थे।
वे दोनों तत्काल उनके पास गए और अपने कृत्यों के लिए क्षमा याचना की। गजानज उनकी भक्ति से प्रसन्न हो गए और अपने माता पिता से कहा कि जिस कार्य से मैंने अवतार लिया था वो पूर्ण हो चुका है इसीलिए मुझे अपने लोक जाने की आज्ञा दें। तब बहुत दुखी होकर राजा वरेण्य ने उनसे ये प्रार्थना की कि स्वधाम लौटने से पहले वे उन्हें ज्ञान प्रदान करें। तब श्रीगणेश ने उन्हें ज्ञान की अनेक गूढ़ बातें बताई जो कालांतर में गणेश गीता के नाम से प्रसिद्ध हुई।
भगवद्गीता में कुल १८ अध्याय हैं - अर्जुनविषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग, कर्मसंन्यास योग, आत्मसंयम योग, ज्ञानविज्ञान योग, अक्षर ब्रह्मयोग, राजगुह्ययोग, विभूतियोग, विश्वरूपदर्शन योग, भक्ति योग, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ विभाग योग, गुणत्रय विभाग योग, पुरुषोत्तमयोग, देवासुर सम्पद विभाग योग, श्रद्धात्रय विभाग योग एवं मोक्षसंन्यास योग।
वहीँ गणेश गीता में कुल ११ अध्याय हैं। ये हैं - सांख्यसारार्थ, कर्मयोग, विज्ञानयोग, वैधसंन्यासयोग, योगवृत्तिप्रशंसन योग, बुद्धियोग, उपासनायोग, विश्वरूपदर्शनयोग, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग, उपदेशयोग एवं त्रिविधवस्तुविवेक-निरूपणयोग। भगवद्गीता की भांति ही गणेश गीता में भी श्रीगणेश राजा वरेण्य को अपने विराट स्वरुप के दर्शन करवाते हैं।
- सांख्यसारार्थ योग: इसमें गजानन ने राजा वरेण्य को शांति का मार्ग बतलाया है।
- कर्मयोग: इसमें गजानन ने कर्म के मर्म को समझाया है।
- विज्ञानयोग: इसमें उन्होंने अपने अवतार के उद्देश्य के विषय में बताया है।
- वैधसंन्यासयोग: इसमें उन्होंने योग एवं प्राणायाम से सम्बंधित प्रमुख बातें बताई है।
- योगवृत्तिप्रशंसनयोग: इसमें योग की चर्चा के साथ-साथ देश काल की अनुकूल-प्रतिकूल बातें भी बताई गयी है।
- बुद्धियोग: इसमें गजानन राजा वरेण्य को स्वयं की भक्ति में लीन हो जाने के फल के बारे में बताते हैं।
- उपासनायोग: इसमें भक्ति के महत्त्व के विषय में बताया गया है।
- विश्वरूपदर्शनयोग: इसमें गजानन ने राजा वरेण्य को अपना विराट स्वरूप दिखाया है।
- क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग: इसमें गजानन ने तीनों गुणों के विषय में विस्तार से बताया है।
- उपदेशयोग: इसमें दैवीय, राक्षसी और आसुरी वृत्तियों के विषय में बताया गया है और उन्हें त्यागने का उदेश दिया गया है।
- त्रिविधवस्तुविवेक-निरूपणयोग: इसमें विभिन्न प्रकार के तप के विषय में बताया गया है।
श्री गजानन से इस दुर्लभ ज्ञान को प्राप्त करने के पश्चात राजा वरेण्य अपनी पत्नी के साथ वन चले गए और वहां उन्होंने संन्यास धारण कर लिया। फिर गजानन ने अपनी लीला समाप्त की और अपने लोक लौटे।
हालाँकि आधुनिक काल के कुछ विद्वानों का मानना है कि गणेश गीता में लगभग वही ज्ञान है जो भगवद्गीता में दिया गया है। उनके अध्यायों के नाम भी कुछ कुछ समान हैं। साथ ही वे राजा वरेण्य को अर्जुन की भांति प्रभावी भी नहीं मानते। हालाँकि भगवद्गीता की भांति ही गणेश गीता का भी हिन्दू धर्म में अपना अलग स्थान है।
jai shree ganesh
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