हम सभी ने रामायण में ऋष्यमूक पर्वत के विषय में सुना ही है। ये हिन्दू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण पर्वतों में से एक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि ऋष्यमूक पर्वत आज के कर्नाटक राज्य के हम्पी में स्थित था। उसी स्थान पर वानर साम्राज्य किष्किंधा हुआ करता था, ऐसी मान्यता है।
इस पर्वत के विषय में रामायण में बहुत विस्तार से लिखा है किन्तु ये पर्वत वास्तव में कैसे बना, इसके विषय में हमें बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती। हालाँकि कुछ लोक-कथाओं में हमें इस पर्वत के बनने के पीछे की कथा का वर्णन मिलता है। ये कथा राक्षसराज रावण से जुडी हुई है।
कथा के अनुसार जब रावण ने परमपिता ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर लिया तो अपने अतुल बाहुबल से उसने त्रिलोक में त्राहि-त्राहि मचा दी। उसका वध भगवान विष्णु के अवतार द्वारा नियत था किन्तु उसके लिए बहुत अधिक काल तक प्रतीक्षा करनी थी। जब उसके अत्याचारों से सभी त्रस्त हो गए तो संसार भर के लाखों ऋषियों ने अपनी ओर से एक प्रयास करने की ठानी।
वे सभी ऋषि एक स्थान पर इकट्ठे हुए और विचार विमर्श करने लगे कि रावण के अत्याचारों का अंत किस प्रकार हो सकता है। लम्बी चर्चा के बाद उन्होंने ये निश्चय किया कि वे सभी उसी स्थान पर मूक खड़े रहते हुए तपस्या करेंगे ताकि श्रीहरि शीघ्र अतिशीघ्र अवतार लें और रावण का अंत हो सके।
तब वे असंख्य ऋषि वहीँ मौन खड़े रह कर रावण के विनाश की कामना करते हुए श्रीहरि की आराधना करने लगे। ऐसा करते हुआ बहुत समय बीत गया। दैववश एक बार स्वयं रावण अपनी सेना के साथ भ्रमण करता हुआ वहां पहुंचा। इतने सारे ऋषियों को एक साथ वहां खड़ा देख कर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो उन सब से पूछने लगा कि वे सभी वहां क्या कर रहे हैं?
किन्तु वे सभी ऋषि मौन साधना में थे इसी कारण उनमें से किसी ने भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। बहुत बार पूछने पर भी जब रावण को कोई उत्तर नहीं मिला तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने उन सभी के मौन को अपना अपमान समझा। उसने अपने सेनापति को आस पास के क्षेत्र में जाकर ये पता करने को कहा कि वास्तव में ये ऋषि यहाँ कर क्या रहे हैं?
उसके सेनापति ने जब पता किया तब उसे पता चला कि ये सभी ऋषि उसके स्वामी के विनाश के लिए ही मूक रह कर तपस्या कर रहे हैं। वो तत्काल वापस लौटा और रावण को सारी बातें बताई। ये जानकर कि ये सभी ऋषि स्वयं उसी के अंत के लिए तपस्या कर रहे हैं, रावण के क्रोध का बांध टूट गया और उसने अपनी सेना को उन सभी ऋषियों का वध करने का आदेश दे दिया।
इसके बाद प्रकृति ने वो दृश्य देखा जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। रावण की अथाह सेना ने उन असंख्य ऋषियों का वध कर दिया। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, ऋषियों के शव ही दिखाई देते थे। उन सभी को मार कर रावण अपनी सेना सहित वहां से लौट गया। उन्ही ऋषियों के शव से एक विशाल पर्वत बन गया। चूँकि वो पर्वत मूक ऋषियों के शव से बना था, उसका नाम "ऋष्यमूक" पड़ गया। इसका एक नाम "ऋषिमुख" भी पड़ा।
चूँकि उस पर्वत का निर्माण इस प्रकार हुआ था, लोगों ने उसके आस-पास जाना छोड़ दिया। बहुत काल तक वह पर्वत वीरान और श्रापित ही पड़ा रहा। बाद में महर्षि मातंग ने उसी पर्वत के निकट अपना आश्रम बनाया और उस स्थान को पुनः पवित्र किया। इतने ऋषियों के बलिदान के कारण ही श्रीहरि ने शीघ्र ही श्रीराम अवतार लेकर रावण का नाश किया।
ये पर्वत किष्किंधा राज्य की सीमा में ही आता था जहाँ पर वानरराज बाली का शासन था। वे अपने भाई सुग्रीव के साथ सुचारु रूप से राज्य चलाते थे। एक बार दुदुम्भी नामक एक दुर्धुष दैत्य ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। वो और मायावी रावण की पत्नी मंदोदरी के भाई थे। बाली ने दुदुम्भी से घोर युद्ध किया और उसका वध कर दिया।
वध करने के बाद उसने दुदुम्भी के शव को इतनी जोर से फेंका कि उसका शव वहां से ४ योजन दूर ऋष्यमूक पर्वत पर जा कर गिरा। दुदुम्भी का शव महर्षि मातंग के आश्रम के ऊपर से होता हुआ ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचा था जिससे उनके आश्रम में उस दैत्य के रक्त की कुछ बूंदें गिर गयी जिससे उनका आश्रम एवं यज्ञ अपवित्र हो गए।
जब मातंग मुनि ने ये देखा तो अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने अपने तपोबल से ये पता कर लिया कि दुदुम्भी के इस शव को फेंकने वाला वानरराज बाली है। तब उन्होंने बाली को ये श्राप दे दिया कि यदि वो ऋष्यमूक पर्वत के एक योजन की सीमा के अंदर प्रवेश करेगा तो तत्काल उसकी मृत्यु हो जाएगी। बाद में बाली को भी इस श्राप के बारे में पता चला और उसके बाद उसने ऋष्यमूक की दिशा में जाना ही छोड़ दिया।
बाद में दुदुम्भी का भाई मायावी बाली से प्रतिशोध लेने के लिए किष्किंधा आया। दोनों में घोर युद्ध हुआ और बाली के डर से मायावी एक गुफा में छिप गया। तब बाली उसके पीछे उस गुफा में घुसे एवं अपने भाई सुग्रीव से कहा कि वो द्वार की रक्षा करे। १ वर्ष तक गुफा के अंदर दोनों का युद्ध चलता रहा और सुग्रीव द्वार पर खड़े रहे। अंततः बाली ने मायावी का वध कर दिया और उसका रक्त गुफा के द्वार से बाहर आने लगा।
जब सुग्रीव ने ये देखा तो उसे लगा कि बाली मायावी के हाथों मारे गए। तब उन्होंने उस गुफा का द्वार एक शिला से बंद कर दिया और वापस किष्किंधा आ गए जहाँ उन्हें वानरों का राजा बना दिया गया। किन्तु कुछ समय में ही बाली वापस आ गए और अनजाने में सुग्रीव को विश्वासघाती मान कर उसका वध करने को उद्धत हुए। तब बाली से अपने प्राण बचाने के लिए सुग्रीव हनुमान, जामवंत एवं अपने कुछ अन्य विश्वसनीय मंत्रियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर चले गए।
अब चूँकि बाली श्राप के कारण वहां जा नहीं सकते थे, इससे सुग्रीव के प्राण बचे। वे वहां उसी प्रकार बहुत काल तक रहे और फिर श्रीराम और लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत पर आये। इसी पर्वत पर हनुमान जी की सहायता से श्रीराम एवं सुग्रीव में मित्रता हुई और श्रीराम ने बाली का वध कर सुग्रीव को राज्य दिलवाया। तब जाकर सुग्रीव वापस अपने नगर किष्किंधा लौटे। आज भी ये पर्वत कर्नाटक राज्य के हम्पी में स्थित है। लोगों की मान्यता है कि यही प्रदेश रामायण काल की किष्किंधा नगरी है।
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