रामायण असंख्य छोटी बड़ी अद्भुत कथाओं से भरा पड़ा है। ऐसी ही एक कथा है त्रिजट ऋषि की जिन्होंने अपनी सूझ बूझ से श्रीराम से सहस्त्रों गौवें दान में प्राप्त की। इनकी कथा वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में आती है। वैसे तो संसार में एक से एक दानी व्यक्ति हुए हैं रामायण के अयोध्या कांड में जैसा वर्णन श्रीराम द्वारा दान दिए जाने का है, वो उन्हें भी एक श्रेष्ठ दानी सिद्ध करता है। इसी सन्दर्भ में ऋषि त्रिजट की कथा आती है।
इस कथा के अनुसार जब श्रीराम को वनवास मिलता है तो वे वन जाने से पहले दान इत्यादि करते हैं। उसी की सूचना अयोध्या में रहने वाले त्रिजट नामक एक ऋषि को होती है। वे गर्ग गोत्र के एक अत्यंत दरिद्र ब्राह्मण थे उनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं था और वे सदैव हाथ में कुदाल लेकर वन में फल एवं कंद मूल की खोज में रहते थे। भूखे रहने के कारण उनके शरीर का रंग पीला पड़ गया था।
वे स्वयं वृद्ध थे किन्तु उनकी पत्नी एक तरुणी युवती थी। अपनी दरिद्रता से तंग आकर एक बार उनकी पत्नी ने उनसे अनुरोध किया कि वे जाकर श्रीराम से मिलें। क्या पता उनकी दरिद्रता देख कर वे उन्हें कुछ दान दे दें। अपनी पत्नी की बात मान कर त्रिजट एक फटी धोती पहन कर अयोध्या के महल पहुंचे। वहां वे श्रीराम से मिलने पहुंचे तो उन्हें पता चला कि वे सभी को कुछ ना कुछ दान दे रहे हैं।
तब वे श्रीराम से मिले और उन्होंने उनसे कहा कि "हे महारथी राजकुमार! मैं गर्गगोत्रीय ब्राह्मण त्रिजट हूँ। कोई आजीविका ना होने के कारण मैं अत्यंत दरिद्रता में जीवन व्यतीत कर रहा हूँ और भोजन इत्यादि की खोज में सदैव वन में ही रहता हूँ। मैं यहाँ आपसे दान की आशा लेकर आया हूँ। कृपया आप मुझ पर अपनी कृपा दृष्टि कीजिये।"
अपने सम्मुख एक अत्यंत तेजस्वी ऋषि को देख कर श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया और कहा - "हे ब्राह्मण देव! मेरे पास असंख्य गायें हैं और मैंने उनमे से अधिकतर का दान कर दिया है किन्तु फिर भी मेरे पास दान देने योग्य १००० गायें बांकी हैं। आप अपना ये दंड (डंडा) यहाँ से जितनी दूर तक फेकेंगे, मैं वहां तक की सारी गायें आपको दान दे दूंगा।"
श्रीराम की बात सुन कर ऋषि त्रिजट की आखों में चमक आ गयी। उन्होंने कस कर अपनी धोती कमर में बाँधी और डंडा फेंकने के लिए स्वयं को तैयार करने लगे। फिर उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से अपने डंडे को फेंका। अधिक दान की चाह में त्रिजट ने इतने वेग से अपने डंडे को फेंका कि वो सरयू नदी के उस पार जाकर सहस्त्रों गायों से भरे हुए एक गोशाला में एक सांड के पास जाकर गिरा।
ऋषि त्रिजट का ऐसा उद्योग देख कर श्रीराम ने प्रसन्नता पूर्वक उन्हें गले से लगा लिया। फिर सरयू तट से उस गोशाला तक, जहाँ उनका डंडा गिरा था, वहां तक की सारी गायें मंगवा कर उन्होंने त्रिजट के आश्रम में भिजवा दी। इतना विशाल गोधन पाकर त्रिजट को अत्यंत हर्ष हुआ किन्तु उन्हें एक शंका थी कि श्रीराम ने उन्हें दंड फेंकने को क्यों कहा। यदि वे सीधे सीधे उन्हें एक गाय भी दे देते तो वे संतुष्ट हो जाते। ये बात उन्होंने श्रीराम से पूछी।
तब श्रीराम ने त्रिजट ऋषि को सांत्वना देते हुए कहा - "हे महात्मन! मैंने आपके साथ ऐसा विनोद किया ये समझ कर बुरा मत मानियेगा। आपमें जो ये दुर्लभ तेज है इसे जानने और संसार को दिखने हेतु ही मैंने आपको दंड फेंकने को कहा था। यदि अभी भी आपकी कोई और इच्छा हो तो मांगिये, मैं मना नहीं करूँगा। आप कुछ भी मांगने में संकोच ना करें। मेरे पास जो भी धन है वो सभी ब्राह्मणों के लिए ही है।"
तब त्रिजट ने श्रीराम को बार बार आशीर्वाद दिया और वापस अपने आश्रम में चले गए। इस प्रकार श्रीराम ने ना केवल एक उपयुक्त पात्र को आवश्यकता से अधिक दान दिया बल्कि समस्त संसार को उनके तेज से परिचित भी करवाया जिसके वे अधिकारी थे ताकि भविष्य में उन्हें कभी धन और साधन की कमी ना हो।
वाल्मीकि रामायण में श्रीराम के दान के विषय में बड़ा अद्भुत वर्णन दिया गया है जिसे हम किसी और लेख में विस्तार पूर्वक बताएँगे।
बहुत ही सुंदर है और ज्ञानवर्धक जानकारी कृपया विनम्र अनुरोध पोस्ट छोटी और ज्ञानवर्धक हो तो आगे शेयर करने में सुविधा रहती है । धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंAaj ke baad kabhi mt bolna
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक जानकारी.
जवाब देंहटाएंबहुत आभार संजीवनी जी।
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