ये तो हम सभी जानते हैं कि ब्रह्मपुत्र देवर्षि नारद श्रीहरि के सबसे बड़े भक्तों में से एक हैं। किन्तु श्री रामचरितमानस के बालकाण्ड में हमें एक ऐसा प्रसंग मिलता है जब देवर्षि नारद ने श्रीहरि को श्राप दे दिया। मानस में ये कथा भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी और तब माता ने बड़े आश्चर्य से पूछा कि नारायण के सबसे बड़े भक्त नारद जी ने अपने ही स्वामी को किस प्रकार श्राप दे दिया।
तब महादेव ने कहा कि हिमालय में एक बड़ी पवित्र और मनोहर गुफा थी जिसके समीप ही गंगा का प्रवाह होता था। एक बार नारद जी वहां आये तो ऐसी मनोहारी छटा देख कर वे वही ठहर गए और भगवान की भक्ति करने लगे। इतने अद्भुत और पवित्र स्थान पर भक्ति करते करते नारद जी की गति रुक गयी और वे समाधि में लीन हो गए।
प्राचीन काल में जब नारद जी ने प्रजापति दक्ष के पुत्रों को संन्यास के लिए प्रेरित कर दिया था तो दक्ष ने उन्हें कहीं भी एक स्थान पर ना रुकने का श्राप दिया था। तब से नारद जी कही पर भी अधिक समय के लिए नहीं रुकते थे। किन्तु उस स्थान पर समाधि में चले जाने के कारण प्रजापति दक्ष के श्राप के भंग हो जाने का संकट उत्पन्न हो गया। इससे देवराज इंद्र भी चिंतित हो गए।
देवराज ने फिर कामदेव को बुलाया और उनसे कहा कि वे जाएँ और किसी भी प्रकार देवर्षि की समाधि भंग करें। देवर्षि की समाधि भंग करने के पीछे इंद्रदेव का एक उद्देश्य ये भी था कि उन्हें शंका थी कि कदाचित देवर्षि अपने तपोबल से अमरावती के स्वामी ना बन बैठे। इंद्रदेव की इच्छा पर कामदेव उस स्थान पर पहुंचे और उन्होंने देवर्षि को समाधि से उठाने का उपक्रम आरम्भ किया।
कामदेव के प्रभाव से वहां वसंत ऋतु छा गयी, सर्वोत्तम अप्सराएं गीत और संगीत पर नृत्य करने लगी, कोयल, मयूर इत्यादि अपनी गुंजों से उस स्थान को और कामुक बनाने लगे। किन्तु कामदेव के हर प्रयास के बाद भी श्रीहरि की भक्ति में रमे देवर्षि की समाधि भंग ना हुई। अब तो कामदेव बड़े चिंतित हुए, यदि वे इंद्रदेव के कार्य को किये बिना वहां से जाते तो उनके कोप का भाजन बनना पड़ता।
कोई और उपाय ना देख कर कामदेव ने स्वयं देवर्षि के चरण पकड़ लिए। तब देवर्षि की तन्द्रा टूटी और उन्होंने कामदेव को अपने समक्ष देखा और सारी बातें समझ गए। किन्तु उन्होंने कामदेव पर कोई क्रोध नहीं किया और उन्हें सम्मान सहित वहां से विदा किया। जब इंद्रदेव ने देवर्षि की ऐसी भक्ति के बारे में सुना तो उन्होंने और अन्य देवताओं ने नारद जी की बड़ी प्रशंसा की।
उधर इस बात से नारद जी के मन में अहंकार का जन्म हो गया। उन्हें लगा कि महादेव की भांति उन्होंने भी काम को जीत लिया है। तब वे महादेव के दर्शनों को कैलाश पहुंचे और उन्हें स्वयं द्वारा काम को जीत लेने का समाचार सुनाया। प्रभु समझ गए कि नारद अहंकार के वश में हैं फिर भी उन्होंने देवर्षि की बड़ी प्रशंसा की और उनसे कहा - "हे देवर्षि! नःसंदेह ही आपने काम पर विजय प्राप्त कर लिया है किन्तु जिस प्रकार आपने ये बात मुझे बताई है उस प्रकार भूल कर भी नारायण को मत बताइयेगा।"
जिस प्रकार रोगी को औषधि अच्छी नहीं लगती, उसी प्रकार देवर्षि नारद को भी महादेव का ये सुझाव अच्छा नहीं लगा और वे कैलाश से सीधे क्षीरसागर पहुंचे। वहां पर श्रीहरि और माता लक्ष्मी ने उनका बड़ा स्वागत किया और तब देवर्षि ने उन्हें भी बड़े गर्व से स्वयं के काम को जीत लेने के विषय में बताया। नारायण समझ गए कि देवर्षि नारद को अहंकार हो गया है और अपने भक्त को उससे निकालने के लिए उन्होंने एक लीला रची।
जिस मार्ग से देवर्षि वापस लौट रहे थे उसी मार्ग पर श्रीहरि ने १०० योजन में फैले एक ऐसे भव्य नगर का निर्माण किया जिसे देख कर इन्द्रलोक भी फीका पड़ जाये। उस नगर का राजा उन्होंने शीलनिधि नामक एक मनुष्य को बनाया। शीलनिधि की एक कन्या थी जिसका नाम विश्वमोहिनी था। उसका सौंदर्य स्वयं नारायण के मोहिनी स्वरुप जैसा था। राजा शीलनिधि ने अपनी कन्या का स्वयंवर आयोजित करवाया जिसमें देश-विदेश के राजा और राजकुमार आये हुए थे।
हरि इच्छा से देवर्षि उसी नगर में आ पहुंचे। राजा शीलनिधि ने उनका बड़ा स्वागत किया और अपनी पुत्री विश्वमोहिनी को बुलाकर उसके भविष्य के विषय में बताने को कहा। जब देवर्षि ने उस अद्वितीय कन्या को देखा तो अपना तप, शील, संयम, वैराग्य सब भूल बैठे। वे किसी भी परिस्थिति में उसे पाने के विषय में सोचने लगे किन्तु लज्जावश उन्होंने राजा से कुछ कहा नहीं। उस समय उस कन्या की प्रसंशा कर देवर्षि वहां से चले गए।
अब वे मार्ग में भी उसी कन्या के बारे में सोचने लगे। शीघ्र ही उसका स्वयंवर होने वाला था किन्तु किस उपाय से विश्वमोहिनी उनके गले में वरमाला डाल दे, नारद वही सोच रहे थे। उन्होंने सहायता हेतु श्रीहरि के पास जाने की सोची किन्तु नारायण वही प्रकट हो गए। अब तो नारद जी ने प्रसन्नता से उनसे प्रार्थना की कि "हे प्रभु! आप थोड़े समय के लिए अपना रूप मुझे दे दीजिये ताकि विश्वमोहिनी स्वयंवर में मेरा हो वरण करे।"
तब श्रीहरि ने हँसते हुए कहा कि "देवर्षि! आप तो कामजयी हैं, फिर काम के वश में कैसे आ गए?" इससे देवर्षि को लज्जा तो बड़ी आयी किन्तु वासना वश उन्होंने फिर उनसे प्रार्थना की कि वे अपना रूप उन्हें दे दें। तब श्रीहरि ने उन्हें कहा कि ठीक है, तुम्हे "हरी मुख" प्राप्त हो। इसके बाद वे अंतर्धान हो गए। विश्वमोहिनी को पाने की उत्कंठा में देवर्षि नारायण की बातों का सही अर्थ समझे बिना ही स्वयंवर में पहुँच गए। अब वो निश्चिन्त थे कि राजकुमारी उनका वरण ही करेगी।
उस स्वयंवर में महादेव के दो गण भी ब्राह्मण के वेश में आये थे। उन्होंने देवर्षि को पहचान लिया उनका मुख श्रीहरि के वरदान के कारण हरी रुपी, अर्थात वानर के रूप का हो चुका था। देवर्षि इस बार को नहीं जानते थे। परिहास करने के लिए दोनों देवर्षि के पास आये और उनसे कहा कि "अहा! आपके हरी मुख को देख कर तो राजकुमारी निश्चय ही आपका ही चयन करेगी।" ये कहकर दोनों हसने लगे। इससे देवर्षि और प्रसन्न और निश्चिंत हो गए।
उधर जब विश्वमोहिनी देवर्षि के पास पहुंची तो उनका वानर मुख देख कर घृणा से अपना मुख फेर लिया। तभी नारायण भी एक राजा के रूप में आये और राजकुमारी ने उनका वरण कर लिया और दोनों विवाह के पश्चात वहां से चले गए। इससे नारद जी को घोर दुःख निराशा हुई। तब उन दोनों शिवगणों से नारद जी से कहा "प्रभु! जरा जाकर दर्पण में अपना मुख तो देखिये।"
तब देवर्षि नारद ने जल में अपना मुख देखा तो आश्चर्यचकित हो गए। क्रोध के मारे उन्होंने दोनों शिवगणों को श्राप दे दिया कि वे राक्षस हो जाएँ। तभी नारायण की कृपा से उन्हें अपना पुराना रूप प्राप्त हो गया किन्तु फिर भी श्रीहरि के प्रति उनका क्रोध कम नहीं हुआ। वे अत्यंत क्रोध में वैकुण्ठ की ओर चले कि या तो मैं श्रीहरि को श्राप दूंगा अथवा अपने प्राण दे दूंगा।
भला नारायण अपने भक्त के प्राण कैसे जाने देते। वे मार्ग में ही विश्वमोहिनी के साथ प्रकट हो गए। तब नारद जी ने बड़े क्रोध में कहा - "हे छलिया! आप दूसरे की प्रसन्नता नहीं देख सकते। समुद्र मंथन के समय आपने महादेव को भी छल लिया। उन्हें विष पिला कर स्वयं लक्ष्मी और कौस्तुभ मणि ले ली। आप निश्चय ही बड़े प्रपंची हैं। किन्तु इस बार आपने गलत व्यक्ति से बैर किया है। मैं आपको श्राप देता हूँ कि जिस प्रकार आज मैं स्त्री के लिए तड़प रहा हूँ, आप भी तड़पेंगे। मेरा जैसा (वानर) रूप बना कर आपने मुझे छला है, उन्ही से आपको सहायता लेनी होगी।"
तब श्रीहरि ने अपनी माया समेटी। इससे ना विश्वमोहिनी रही और ना ही कोई नगर। तब सत्य को जान कर देवर्षि ने नारायण के चरण पकड़ लिए और उनसे बार बार क्षमा मांगने लगे और अपने श्राप के निवारण करने को कहने लगे। तब श्रीहरि ने नारद जी से कहा कि "मेरे भक्त का श्राप भी विफल नहीं हो सकता इसी कारण जो भी तुमने कहा वो निश्चय ही सत्य होगा। अगले अवतार में मैं स्त्री वियोग से व्यथित हूँगा और वानर ही मेरी सहायता करेंगे।"
तब भी देवर्षि का मन अशांत ही रहा। इस पर श्रीहरि ने उन्हें महादेव के शतनाम पाठ को करने को कहा जिससे अंततः नारद जी के मन का वियोग मिटा। तभी शिवजी के वो दो गण भी नारद जी के पास आये और उनसे क्षमा मांगी। इसपर देवर्षि ने उन्हें कहा कि तुम दोनों राक्षस अवश्य बनोगे किन्तु श्रीहरि के ही अवतार द्वारा तुम्हारा वध होगा जिससे तुम्हे मुक्ति प्राप्त होगी।
देवर्षि नारद के उसी श्राप के कारण नारायण ने श्रीराम के रूप में अपना सातवां अवतार लिया। बाद में उसी कल्प के रामावतार की कथा महादेव ने माता पार्वती को सुनाई।
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