रामायण के विषय में हमें एक कथा ऐसी मिलती है जहाँ देवराज इंद्र द्वारा माता सीता को दिव्य खीर दी गयी थी जिसे खाने के बाद माता सीता कभी भूख नहीं लगे और उन्हें रावण के अन्न को खाने की आवश्यकता ना पड़े। हालाँकि सबसे पहले ये बताना आवश्यक है कि इस कथा को प्रक्षिप्त माना जाता है, अर्थात ये प्रसंग वाल्मीकि रामायण का भाग नहीं है बल्कि इसे बाद में जोड़ा गया।
आम तौर पर प्रक्षिप्त जो होता है वो मूल कथा को अपने प्रवाह से भटकाने के लिए या किसी पात्र का महत्त्व कम या अधिक करने के लिए जोड़ा जाता है। अर्थात अधिकतर प्रक्षिप्त उस रचना के स्तर को गिराने के लिए ही उपयोग में लाये जाते हैं किन्तु इसके उलट ये जो कथा इस प्रक्षिप्त में है वो बहुत ही ज्ञानप्रद और सुन्दर है। इससे रामायण की निरंतरता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए इस कथा को रामायण के अधिकतर संस्करणों में बताया जाता है। गीता प्रेस ने भी वाल्मीकि रामायण के अरण्य कांड के ५६वें सर्ग के बाद इसे प्रक्षिप्त सर्ग के रूप में जोड़ा है। इस सर्ग में कुल २६ श्लोक हैं।
इस कथा के अनुसार जब माता सीता का हरण हुआ और रावण ने उन्हें अशोक वाटिका में बंदी बना कर रखा तब ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए। इसपर देवराज इंद्र ने उनकी प्रसन्नता का कारण पूछा। इस पर परमपिता ने कहा कि "हे देवराज! रावण का सीता को हर कर लंका ले आना उसके विनाश का आरम्भ है। वे महान पतिव्रता अपने पति से बिछड़ने के कारण सदैव दुखी रहती है और उनके दर्शनों के लिए व्याकुल है। किन्तु लंकापुरी समुद्र के तट पर स्थित है इसी कारण श्रीराम को उनका पता लगना कठिन है।"
परमपिता ब्रह्मा आगे कहते हैं कि "मैं इस बात से चिंतित दुखी रहने के कारण सीता भोजन नहीं करती हैं और कृशकाय हो गयी हैं। ऐसी दशा में निःसंदेह वे अपने प्राणों का परित्याग कर देंगी जिससे हमारे उद्देश्य (रावण का अंत) में संदेव उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए आप शीघ्र लंकापुरी जाएँ और सीता से मिले तथा उन्हें ये उत्तम और दिव्य हविष्य प्रदान करें।"
परमपिता की आज्ञा से देवराज इंद्र लंका पहुँचते हैं। उनके साथ निद्रा देवी भी रहती है। लंका पहुँचने के बाद इंद्रदेव निद्रा देवी से सभी राक्षसियों को मोहित करने को कहते हैं। तब निद्रा देवी वहां उपस्थित सभी राक्षसियों को निद्रा में डाल देती हैं। फिर इंद्रदेव माता सीता के पास पहुंचकर उन्हें अपना परिचय देते हैं और कहते हैं कि "हे जनक किशोरी! आप धैर्य धारण करें। आपके उद्धार के लिए मैं श्रीराम की सहायता करूँगा और वे सेनासहित समुद्र को पार करेंगे। मैंने ही अपनी माया से इन सभी राक्षसियों को मोहित किया है। मैं स्वयं यह हविष्यान्न लेकर आपके पास आया हूँ। यदि मेरे हाथ से इस हविष्य को आप ग्रहण करेंगी तो आपको सहस्त्रों वर्षों तक भूख और प्यास नहीं लगेगी।"
देवराज इंद्र के ऐसा कहने पर माता सीता शंकाग्रस्त हो जाती हैं और उनसे कहती हैं कि वो कैसे विश्वास करे कि वे देवराज इंद्र ही हैं। वो उनसे कहती हैं कि यदि आप वास्तव में देवराज इंद्र ही हैं तो अपने शुभ लक्षणों को प्रकट करें। तब उनका संदेह दूर करने के लिए देवराज इंद्र आकाश में खड़े हो गए, उनकी पलके नहीं झपकती थी, उनके वस्त्रों पर धूल का स्पर्श नहीं होता था, उनके कंठ में जो पुष्पमाला थी उसके पुष्प मुरझाते नहीं थे।
उनके ऐसे दिव्य लक्षणों को देख कर माता सीता को उनपर विश्वास हो गया और उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वे रोते हुए बोली कि "आज बड़े सौभाग्य से लक्ष्मण सहित श्रीराम का नाम मेरे कानों में पड़ा है। मेरे लिए जैसे मेरे श्वशुर महाराज दशरथ और मेरे पिता मिथिलानरेश जनक हैं, उसी रूप में मैं आज आपको देख रही हूँ। मेरे पति को आपका ही सहारा है। आपकी आज्ञा से आपने जो मुझे ये पायस (खीर) दिया है उसे मैं अवश्य खाउंगी क्यूंकि उसी में रघुकुल का भला है।"
ये कहकर इंद्रदेव के हाथ से उस खीर को लेकर सबसे पहले उसे श्रीराम और लक्ष्मण को समर्पित किया। उन्होंने कहा कि "यदि मेरे महाबली स्वामी अपने भाई के साथ जीवित हैं तो यह हविष्य भक्तिभाव से उन दोनों के लिए समर्पित है।" तत्पश्चात माता सीता ने स्वयं उस खीर को खाया। इससे उन्होंने भूख और प्यास से होने वाले सभी कष्टों को त्याग दिया। फिर देवराज इंद्र ने उन्हें श्रीराम और लक्ष्मण के कुशल का समाचार दिया और फिर वापस अपने लोक चले गए।
तो इस प्रकार आप देख सकते हैं कि इस प्रक्षिप्त का प्रसंग बहुत ही सुन्दर है। कदाचित ये सोच कर कि माता सीता किस प्रकार उस दुष्ट रावण के यहाँ का अन्न और जल ग्रहण कर सकती हैं, इस प्रसंग की रचना की गयी होगी। जय श्रीराम।
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