पिछले कई वर्षों से विधर्मियों और वामपंथियों द्वारा रामायण और श्रीराम की छवि धूमिल करने का अनेकों बार प्रयास किया गया है। अभी हाल के ही समय में एक अलग ही विषय पर ये लोग फिर से कुतर्क दे रहे हैं। वो विषय है श्रीराम द्वारा मांसाहार का। कई लोगों ने वाल्मीकि रामायण के कुछ श्लोकों का भी उद्धरण दिया है और ये सिद्ध करने का प्रयास किया है कि श्रीराम मांसाहारी थे। ऐसा ही कुछ एक तमिल फिल्म "अन्नपूर्णी" में भी सिद्ध करने का प्रयास किया गया।
यदि किसी व्यक्ति को ज्ञान ना हो वो धर्म की उतनी हानि नहीं करता जितना धर्म के विषय में आधा अधूरा ज्ञान करता है। इसीलिए ये अति आवश्यक है कि हम अपने ग्रंथों का सही ढंग से अध्ययन कर के ही कोई बात बोलें। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सब कुछ जानते-बूझते भी वैसी बात कहते हैं जिससे लोगों की शंका और बढे। तो आज इस लेख में हम उन सभी शंकाओं का समाधान कर रहे हैं।
श्रीराम को मांसाहारी सिद्ध करने के लिए रामायण के जिस पहले श्लोक का लोग सन्दर्भ देते हैं वो अयोध्या कांड के सर्ग ५२ का श्लोक १०२ है। उस श्लोक में कहा गया है -
तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगान्
वराहमृश्यं पृषतं महारुरुम्।
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ
वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम्।।
इस श्लोक में भी लोग पहले वाक्य का ही उद्धरण देते हैं। वे कहते हैं कि इस श्लोक का अर्थ ये है कि श्रीराम और लक्ष्मण ने चार मृगों पर बाण से प्रहार किया। इसके बाद का उनका तर्क ये होता है कि प्रहार इसीलिए किया ताकि वे उनका शिकार कर उनका भक्षण कर सकें। लेकिन यदि आप इस पूरे श्लोक को पढ़ेंगे तो सब कुछ साफ हो जाएगा।
महर्षि वाल्मीकि इस श्लोक में कहते हैं - "वहाँ उन दोनों भाइयों ने मृगया-विनोद के लिये वराह, ऋष्य, पृषत् और महारुरु - इन चार महामृगों पर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात् जब उन्हें भूख लगी, तब पवित्र कन्द-मूल आदि लेकर सायंकाल के समय ठहरने के लिये (वे सीताजी के साथ) एक वृक्ष के नीचे चले गये।
तो यहाँ आप देख सकते हैं कि ये स्पष्ट रूप से लिखा है कि उन्होंने ४ मृगों पर केवल मृगया के मनोविनोद के लिए प्रहार किया ना कि उनका शिकार करने के लिए। ये भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि जब तीनों को भूख लगी तो उन्होंने कंद-मूल का ही सेवन किया।
श्रीराम के मांसाहार को सिद्ध करने के लिए जो दूसरे श्लोक का उद्धरण दिया जाता है वो अयोध्या कांड के सर्ग ५६ का श्लोक २२ है। इस श्लोक में वाल्मीकि जी कहते हैं -
ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम्।
कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभिः।।
अब यहाँ पर "मांसमाहृत्य" इस शब्द को लोग मांस समझ लेते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। इससे पहले कि हम इस श्लोक को समझें, इस श्लोक के सन्दर्भ को समझना आवश्यक है। ये श्लोक तब का है जब लक्ष्मण ने माता सीता के लिए चित्रकूट में एक कुटी का निर्माण किया और श्रीराम गृह प्रवेश की पूजा करने वाले थे।
अब ये तो कोई मंदबुद्धि भी समझ सकता है कि गृह प्रवेश जैसे पवित्र संस्कार में मांस तो क्या, किसी तामसिक भोजन का भी उपयोग नहीं किया जा सकता। फिर रघुवंशी राम मांस का प्रयोग कैसे कर सकते हैं। वास्तव में यहाँ "मांसमाहृत्य" का अर्थ गजकन्द नामक के फल का गूदा है। शास्त्रों के अनुसार गजकन्द को बलिवैष्य (बलि नहीं, दोनों में अंतर है) के लिए उपयोग में लाया जाता था।
इस श्लोक का वास्तविक अर्थ है - श्रीराम कहते हैं "सुमित्राकुमार! हम गजकन्द का गूदा लेकर उसी से पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओं का पूजन करेंगे, क्योंकि दीर्घ जीवन की इच्छा करने वाले पुरुषों को वास्तुशान्ति अवश्य करनी चाहिये।"
इसके आगे अयोध्या कांड, सर्ग ५६ के २३वें श्लोक में श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं -
मृगं हत्वाऽऽनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण।
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्धर्ममनुस्मर।।
अर्थात - "कल्याणदर्शी लक्ष्मण! तुम ‘गजकन्द’ नामक कन्द को उखाड़कर या खोदकर शीघ्र यहाँ ले आओ, क्योंकि शास्त्रोक्त विधि का अनुष्ठान हमारे लिये अवश्य-कर्तव्य है। तुम धर्म का ही सदा चिन्तन किया करो।"
इसके आगे अयोध्या कांड, सर्ग ५६, श्लोक २५ में श्रीराम कहते हैं -
ऐणेयं श्रपयस्वैतच्छालां यक्ष्यामहे वयम्।
त्वर सौम्यमुहूर्तोऽयं ध्रुवश्च दिवसो ह्ययम्।।
अर्थात - "लक्ष्मण! इस गजकन्द को पकाओ। हम पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओं का पूजन करेंगे। जल्दी करो यह सौम्यमुहूर्त है और यह दिन भी ध्रुव-संज्ञक है (अर्थात शुभ है अतः इसी में यह शुभ कार्य होना चाहिये)।
यहाँ पर स्पष्ट रूप से श्रीराम कहते हैं कि वे देवताओं का पूजन करना चाहते हैं और कोई बच्चा भी ये जनता है कि हिन्दू धर्म में देव पूजन में किसी तामसिक भोजन का उपयोग नहीं होता फिर मांस तो बहुत दूर की बात है।
इसके आगे अयोध्या कांड, सर्ग ५६, श्लोक २६ में कहा गया है -
स लक्ष्मणः कृष्णमृगं हत्वा मेध्यं प्रतापवान्।
अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जातवेदसि।।
अर्थात - "प्रतापी सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने पवित्र और काले छिलके वाले गजकन्द को उखाड़कर प्रज्वलित आग में डाल दिया।"
यहाँ पर भी "कृष्णमृगं" अर्थ काला हिरण नहीं बल्कि गजकन्द का काला रंग है।
इसके आगे लक्ष्मण स्वयं गजकन्द के औषधीय गुणों के बारे में बताते हैं। अयोध्या कांड के सर्ग ५६ के श्लोक २८ में लिखा है -
अयं सर्वः समस्ताङ्गः शृतः कृष्णमृगो मया।
देवता देवसंकाश यजस्व कुशलो ह्यसि।।
अर्थात - लक्ष्मण कहते हैं "देवोपम तेजस्वी श्रीरघुनाथजी! यह काले छिलके वाला गजकन्द, जो बिगड़े हुए सभी अङ्गों को ठीक करनेवाला है, मेरे द्वारा सम्पूर्णतः पका दिया गया है। अब आप वास्तुदेवताओं का यजन कीजिये, क्योंकि आप इस कर्म में कुशल हैं।
यहाँ पर भी वास्तुपूजा का उल्लेख है और शास्त्र स्पष्ट रूप से कहता है कि वास्तुपूजा में तामसिक भोजन का उपयोग नहीं किया जा सकता। तो इस सन्दर्भ में "मृग" का अर्थ हिरण नहीं बल्कि गजकन्द का गूदा है।
कुछ लोग एक और प्रश्न भी उठाते हैं जो मारीच से सम्बंधित है। वे कहते हैं कि यदि श्रीराम को मृग का भक्षण नहीं करना था तो वे उसे पकड़ने क्यों गए? इस प्रश्न का उत्तर भी रामायण में स्पष्ट रूप से दिया गया है। मारीच के सम्बन्ध में माता सीता श्रीराम से उसे पकड़ने को कहती है ताकि वनवास के बाद वे उसे अयोध्या ले जा सके।
अरण्य कांड के सर्ग ४३ के श्लोक १६ में लिखा है -
यदि ग्रहणमभ्येति जीवन् नेव मृगस्तव।
आश्चर्यभूतं भवति विस्मयं जनयिष्यति।।
यहाँ माता सीता श्रीराम से कहती हैं - "यदि यह मृग जीते-जी ही आपकी पकड़ में आ जाय तो एक आश्चर्य की वस्तु होगा और सबके हृदय में विस्मय उत्पन्न कर देगा।"
अगले श्लोक अर्थात अरण्य कांड के सर्ग ४३ के श्लोक १७ में माता सीता कहती हैं -
समाप्तवनवासानां राज्यस्थानां च नः पुनः।
अन्तःपुरे विभूषार्थो मृग एष भविष्यति।।
अर्थात - "जब हमारे वनवास की अवधि पूरी हो जायगी और हम पुनः अपना राज्य पा लेंगे, उस समय यह मृग हमारे अन्तःपुर की शोभा बढ़ायेगा।"
अरण्य कांड के सर्ग ४३ के श्लोक १८ में माता सीता कहती हैं -
भरतस्यार्यपुत्रस्य श्वश्रूणां मम च प्रभो।
मृगरूपमिदं दिव्यं विस्मयं जनयिष्यति।।
अर्थात - "प्रभो! इस मृग का यह दिव्य रूप भरत के, आपके, मेरी सासुओं के और मेरे लिये भी विस्मयजनक होगा।"
माता सीता को ये विश्वास था कि श्रीराम उस मृग को जीवित ही पकड़ लेंगे किन्तु फिर भी उन्हें उसके पीछे भेजने के लिए अरण्य कांड, सर्ग ४३ के श्लोक १९ में वे कहती हैं -
जीवन्न यदि तेऽभ्येति ग्रहणं मृगसत्तमः।
अजिनं नरशार्दूल रुचिरं तु भविष्यति।।
अर्थात - "पुरुषसिंह ! यदि कदाचित् यह श्रेष्ठ मृग जीते-जी पकड़ा न जा सके तो इसका चमड़ा ही बहुत सुन्दर होगा।"
इसके आगे अरण्य कांड, सर्ग ४३ के श्लोक २० में वे कहती हैं -
निहतस्यास्य सत्त्वस्य जाम्बूनदमयत्वचि।
शष्पबृस्यां विनीतायामिच्छाम्यहमुपासितुम्।।
अर्थात - "घास-फूसकी बनी हुई चटाई पर इस मरे हुए मृग का सुवर्णमय चमड़ा बिछाकर मैं इस पर आपके साथ बैठना चाहती हूँ।"
यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि इस कथन में माता सीता का उदेश्य उस मृग का वध नहीं बल्कि श्रीराम को उसे पीछे जाने के लिए प्रेरित करना है। इस पूरे प्रसंग में मृग के भक्षण का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
इससे पहले, अयोध्या कांड के सर्ग २० के श्लोक २९ में श्रीराम वनवास जाने का संकल्प लेकर कहते हैं -
चतर्दश हि वर्षाणि वत्स्याम विजने वने।
कन्दमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवदामिषम्।।
अर्थात - "मैं राजभोग्य वस्तु का त्याग करके मुनि की भाँति कन्द, मूल और फलों से जीवन-निर्वाह करता हुआ चौदह वर्षों तक निर्जन वन में निवास करूँगा।"
इसके बाद अयोध्या कांड के सर्ग २० के श्लोक ३१ में श्रीराम फिर कहते हैं -
स षट् चाष्टौ च वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
आसेवमानो वन्यानि फलमूलैश्च वर्तयन्।।
अर्थात - "अतः चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा और जंगल में सुलभ होने वाले वल्कल आदि को धारण करके फल-मूल के आहार से ही जीवन-निर्वाह करता रहूँगा।"
और ये तो हम सभी जानते हैं कि श्रीराम ने कभी असत्य भाषण नहीं किया। तो यदि उन्होंने ये निश्चय किया था कि वे १४ वर्षों तक केवल कंद-मूल खाकर जीवन व्यतीत करेंगे तो अवश्य ऐसा ही हुआ होगा। यही ऊपर के श्लोक भी सिद्ध करते हैं।
किष्किंधा कांड के सर्ग १७ के श्लोक ३८ में जब श्रीराम के बाण से आहत हो वानरराज वाली धराशायी पड़े होते हैं तो उन्हें लगता है कि श्रीराम ने उन्हें अपना आहार बनाने के लिए उनका आखेट किया है। इसी शंशय से वे श्रीराम को बताते हैं कि उनके लिए तो मांसाहार वर्जित है फिर क्यों उन्होंने उसपर बाण चलाया?
अधार्यं चर्म मे सद्भी रोमाण्यस्थि च वर्जितम्।
अभक्ष्याणि च मांसानि त्वद्विधैर्धर्मचारिभिः।।
अर्थात - "हम वानरों का चमड़ा भी तो सत्पुरुषों के धारण करने योग्य नहीं होता। हमारे रोम और हड्डियाँ भी वर्जित हैं। आप जैसे धर्माचारी पुरुषों के लिये मांस तो सदा ही अभक्ष्य है, फिर किस लोभ से आपने मुझ वानर को अपने बाणों का शिकार बनाया है?"
अब इस लेख का अंत मैं एक ऐसे श्लोक के साथ करता हूँ जो रामायण में मांसाहार की धारणा को जड़ से समाप्त कर देता है। सुन्दर कांड के सर्ग ३६ के श्लोक ४१ में स्वयं महाबली हनुमान माता सीता से वार्तालाप कहते हुए ये कहते हैं कि कोई भी रघुवंशी मांसाहार नहीं करता।
न मांसं राघवो भुङ्क्ते न चैव मधु सेवते।
वन्यं सुविहितं नित्यं भक्तमश्नाति पञ्चमम्।।
अर्थात - "कोई भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न मधु का ही सेवन करता है; फिर भगवान् श्रीराम इन वस्तुओं का सेवन क्यों करते? वे सदा चार समय उपवास करके पाँचवें समय शास्त्रविहित जंगली फल-मूल और नीवार आदि भोजन करते हैं।"
तो इस प्रकार रामायण में कहीं भी श्रीराम के सन्दर्भ में मांसाहार तो छोड़िये, तामसिक भोजन का भी विवरण हमें नहीं मिलता। इसीलिए ऐसी अनर्गल बातों का सदैव खंडन करें। जय श्रीराम।
jeev hatya to hai hee
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