ये तो हम सभी जानते हैं कि श्रीगणेश एकदन्त हैं, अर्थात उनका एक दांत टूटा हुआ है। लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि आखिर क्यों श्रीगणेश का एक दांत टूट गया? इस विषय में हमें पुराणों में कई वर्णन मिलता है। इनमें से कुछ कथाएं सुनी हुई हैं किन्तु कुछ ऐसी भी है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।
श्रीगणेश के दांत टूटने के पीछे जो सबसे प्रसिद्ध कथा है वो है उनका भगवान परशुराम से युद्ध। इस कथा का वर्णन हमें गणेश पुराण में मिलता है। कथा के अनुसार जब परशुराम जी ने कर्त्यवीर्य अर्जुन का वध किया तो उसके बाद वे महादेव के दर्शन हेतु कैलाश आये। सहस्त्रार्जुन का वध करने के कारण उस समय तक भी परशुराम जी के मन में बहुत क्रोध था।
जब वे महादेव और माता के दर्शनों को कैलाश पहुंचे तो उस समय दोनों अपने कक्ष में थे और कक्ष के बाहर श्रीगणेश द्वारपाल के रूप में खड़े थे। तब परशुराम जी ने श्रीगणेश से भोलेनाथ को उनके आगमन की सूचना देने को कहा किन्तु श्रीगणेश ने उनसे दोनों के विश्राम तक प्रतीक्षा करने को कहा। परशुराम जी ने बार बार आग्रह किया किन्तु श्रीगणेश नहीं माने।
तब गणपति के इस हाथ से जामदग्नेय का क्रोध बढ़ गया और उन दोनों में घोर युद्ध होने लगा। दोनों बहुत देर भांति-भांति के अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध करते रहे किन्तु युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला। अंत में कोई और उपाय ना देख कर परशुराम जी ने श्रीगणेश पर अपना अमोघ परशु चला दिया। चूँकि उन्हें वो परशु स्वयं महादेव ने दिया था इसीलिए श्रीगणेश ने उसका कोई विरोध नहीं किया और उसके प्रहार से उनका एक दांत टूट गया।
उधर कोलाहल बढ़ते देख कर माता और महादेव कक्ष से बाहर आये। जब माता ने श्रीगणेश को आहत देखा तो उनके क्रोध का ठिकाना ना रहा। उधर श्रीगणेश की ऐसी दशा देखकर और माता का क्रोध बढ़ता देख कर परशुराम जी को भी अपनी भूल का भान हुआ और उन्होंने माता से बार-बार क्षमा मांगी। तब महादेव ने माता से उन्हें क्षमा कर देने को कहा क्यूंकि वो भी उनके पुत्र समान ही थे। क्षमादान पाने के बाद परशुराम जी ने प्रसन्न होकर श्रीगणेश को "एकदन्त" नाम दिया। साथ ही उन्होंने अपनी समस्त युद्ध विद्या भी उन्हें प्रदान की।
इस कथा के अतिरिक्त जो सबसे प्रसिद्ध कथा है वो महाभारत से जुडी हुई है। ये तो हम सभी जानते हैं कि महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी किन्तु उसे लिखा था श्रीगणेश ने। जब ब्रह्माजी की आज्ञा और महर्षि वेदव्यास की प्रार्थना पर श्रीगणेश महाभारत को लिखने के लिए तैयार हुए तो उन्होंने एक शर्त रख दी कि एक बार उन्होंने लिखना आरम्भ किया तो वे ग्रन्थ के समाप्त होने तक रुकेंगे नहीं। यदि महर्षि व्यास के श्लोक समाप्त हुए तो वे ग्रन्थ वहीँ रोक देंगे। तब महर्षि वेदव्यास ने भी एक शर्त रख दी कि वे श्लोकों को पूरी तरह समझने के बाद ही लिखें।
अब महाभारत की अनवरत लेखनी आरम्भ हुई। किन्तु श्रीगणेश की लिखने की गति इतनी अधिक थी कि बार-बार कलम टूट जाती थी। इससे उनके द्वारा लगाए शर्त में ही व्यवधान उत्पन्न होने लगा। इस बार बार की दिक्कत से बचने के लिए श्रीगणेश ने स्वयं अपना एक दन्त तोड़ लिया और फिर उसी से सम्पूर्ण महाभारत की लेखनी संपन्न हुई।
इस विषय में एक कथा हमें भविष्य पुराण में भी मिलती है। उसके अनुसार एक बार भगवान कार्तिकेय स्त्री और पुरुषों के उत्तम लक्षणों पर एक ग्रन्थ लिख रहे थे। उस समय खेल-खेल में श्रीगणेश अपने बड़े भाई को बार-बार परेशान करने लगे जिससे उनकी एकाग्रता भंग होने लगी।
तब चिढ कर कार्तिकेय जी ने श्रीगणेश का एक दांत तोड़ दिया। जब महादेव को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने उस दांत को श्रीगणेश को लौटाने को कहा। तब कार्तिकेय जी ने उन्हें वो दांत तो लौटा दिया किन्तु एक शर्त भी रख दी कि उन्हें सदैव उस दांत को अपने साथ रखना होगा। तभी से श्रीगणेश अपने एक हाथ में वो दांत धारण करने लगे। आपने भी गणेश जी की मूर्ति में उन्हें अपना एक दांत पकडे अवश्य देखा होगा। कालांतर में उसी दांत से श्रीगणेश ने महाभारत महाकाव्य को पूर्ण किया था।
इस सन्दर्भ में हमें एक कथा श्रीगणेश और चंद्रदेव की भी मिलती है। कथा के अनुसार एक बार श्रीगणेश भोजन कर अपने वाहन मूषक पर कैलाश भ्रमण को निकले। मूषक तीव्र गति से जा रहा था कि मार्ग में एक सर्प आ गया। उसे देख कर मूषक डर गया और अचानक ही रुक गया। इसपर श्रीगणेश अपने वाहन से नीचे आ गिरे। ये देख कर स्वर्ग से चन्द्र देव जोर जोर से हंसने लगे।
उधर जब श्रीगणेश सम्भले तो सबसे पहले तो उन्होंने उस सर्प को एक कमरधनी की भांति अपने कमर पर बांध लिया। फिर चंद्रदेव को हँसते देख कर उन्होंने क्रोध में आकर अपना एक दांत तोडा और उससे चंद्र पर प्रहार किया। उसी प्रहार से चंद्रदेव पर कलंक पड़ गया। वास्तव में चंद्र को अपनी सुंदरता पर बड़ा घमंड था। उसी को तोड़ने के लिए श्रीगणेश ने उन्हें कांतिहीन हो जाने का श्राप भी दिया। बाद में महादेव की कृपा से चंद्र को उस श्राप से मुक्ति मिली।
gussa buri bla hai
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