वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के ९१वें सर्ग में एक प्रसंग आता है जब भरत अपनी सेना सहित श्रीराम को वापस बुलाने वन को निकलते हैं तो उनकी भेंट महर्षि भरद्वाज से होती है। तब भरत एक रात्रि के लिए अपनी सेना सहित महर्षि के आश्रम में ही रुकते हैं। उस समय भरद्वाज मुनि द्वारा उनके और उनकी सेना के दिव्य सत्कार का वर्णन है जो अद्भुत है। ये इस बात का उदाहरण है कि तप की शक्ति कितनी प्रबल हो सकती है।
जब भरद्वाज मुनि ने भरत को आतिथ्य ग्रहण करने का न्योता दिया तब भरत ने कहा कि "हे महर्षि! मेरे साथ मेरी विशाल सेना आयी है। उसमें असंख्य हाथी, घोड़े, रथ और योद्धा हैं। आप पहले ही कंद मूल से मेरा आथित्य कर चुके हैं, किन्तु इतनी बड़ी सेना से आपको असुविधा होगी। तब महर्षि भरद्वाज ने भरत को अपनी सेना बुला लाने को कहा।
इसके बाद उन्होंने कहा - "मैं विश्वकर्मा त्वष्टा का आह्वान करता हूँ। मेरे मन में सेना सहित भरत के सत्कार की इच्छा हुई है। इसमें मेरे लिए वे आवश्यक प्रबंध करें। जिनके अगुआ इंद्र हैं, उन तीन लोकपालों, अर्थात इंद्र, यम, वरुण एवं कुबेर का मैं आह्वान करता हूँ। पृथ्वी और आकाश में जो पूर्व एवं पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ हैं, उनका भी मैं आह्वान करता हूँ। वे सब यहाँ पधारें। कुछ नदियाँ मैरेय प्रस्तुत करें, दूसरी सर्वोत्तम सुरा ले आएं तथा अन्य नदियाँ ईख के रस की भांति मधुर शीतल जल तैयार रखें।"
आगे महर्षि भरद्वाज कहते हैं - "मैं विश्वावसु, हाहा और हूहू आदि देव, गंधर्वों एवं समस्त अप्सराओं का भी आह्वान करता हूँ। घृताची, विश्वाची, मिश्रकेशी, अलम्बुषा, नागदत्ता, हेमा, सोमा तथा आद्रिकृतस्थली का भी मैं आह्वान करता हूँ। जो अप्सराएं इंद्र की सभा में उपथित होती है तथा जो देवांगनाएँ ब्रह्माजी की सेवा में जाया करती हैं, उन सब का मैं आह्वान करता हूँ। वे समस्त अलंकारों एवं वाद्य उपकरणों के साथ प्रकट हूँ।"
इसके बाद महर्षि कहते हैं - "उत्तर कुरुवर्ष में जो दिव्य चैत्ररथ वन है जिसमें दिव्य वस्त्र और आभूषण ही वृक्षों के पत्ते हैं और दिव्य नारियाँ ही फल है, कुबेर का वह सनातन दिव्य वन यहीं आ जाये। यहाँ भगवान सोम मेरे अतिथियों के लिए उत्तम अन्न, नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, लेह्य एवं चोष्य की प्रचुर मात्रा में व्यवस्था करें। वृक्षों से तुरंत चुने वृक्षों से नाना प्रकार के पुष्प, मधु, पेय पदार्थ, फल इत्यादि को भी सोम यहाँ प्रस्तुत करें।"
महर्षि भरद्वाज के आह्वान करते ही एक एक करके सभी देवता वहां पहुँचने लगे। सुखदायिनी हवा चलने लगी, पुष्प वर्षा होने लगी, दुदुंभियाँ बजने लगी, गन्धर्व गाने लगे और अप्सराओं का नृत्य प्रारम्भ हो गया। फिर विश्वकर्मा जी चारो ओर पांच योजन तक की भूमि समतल कर दी और भांति-भांति के वृक्ष वहां उग आये। कुरुवर्ष से चैत्ररथ वन और सभी नदियां वहां आ पहुंची।
विश्वकर्मा ने ४-४ कमरों वाले भवन बना दिए तथा हाथियों और घोड़ों के लिए शालाएं बना दी। राजपरिवार के सदस्यों के लिए गगनचुम्बी सातमंजिला महल भी विश्वकर्मा ने बना दिए जिसमें सभी प्रकार के दिव्य रास, भोजन और वस्त्र उपलब्ध थे। उन महलों में स्वर्ण के आसन और शैय्या थी।
महर्षि भरद्वाज की आज्ञा से भरत ने अपने पुरोहितों के साथ उस महल में प्रवेश किया। हालाँकि वहां का मुख्य सिंहासन उनके लिए ही बनाया गया था फिर भी उसपर श्रीराम का अधिकार जान कर वे उससे नीचे मंत्री के आसान पर बैठे। फिर पुरोहित और मंत्री भी अपने-अपने आसन पर विराजमान हुए। फिर महर्षि भरद्वाज के तपोबल से भरत की सेवा में नदियाँ उपस्थित हुई जिनमें कीचड के स्थान पर खीर भरी हुई थी।
उसी समय ब्रह्माजी द्वारा भेजी गयी २०००० दिव्यांगनाएँ वहां उपस्थित हुई। उसके बाद यक्षराज कुबेर द्वारा भेजी हुई २०००० दिव्य स्त्रियां भी वहां प्रकट हुई। तत्पश्चात इंद्र द्वारा नंदनवन से भेजी गयी २०००० अप्सराएं भी वहां आ गयी। नारद, तुंबरू एवं गोप नाम के तीन गंधर्वराज भरत के सामने गायन करने लगे और अलम्बुषा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका एवं वामना, ये चार अप्सराएं भरत के समीप नृत्य करने लगीं।
ऋषि के प्रताप से वृक्ष तक उस संगीत पर नृत्य करने लगे। पुरुषलिंग वृक्ष पुरुष का और स्त्रीलिंग वृक्ष स्त्रियों का वेश धर कर वहां आ गयी। वे सभी भरत के सैनिकों को मधुपान और दिव्य भोजन करवाने लगी। सात-आठ तरुणी स्त्रियां मिल कर एक-एक पुरुष को नदी तट पर उबटन लगा कर स्नान करवाने लगी। सुन्दर तत्पश्चात सुन्दर रमणियाँ उनकी पाद सेवा करने लगी और मधुर पेय पिलाने लगी।
वहां उपस्थित हुए मनुष्यों ने सभी हाथियों, घोड़ों को भोजन करवाया और वाहन रक्षकों को सुस्वादु भोजन करने को दिया। सारी सेना उस दिव्य सत्कार में खो सी गयी। उन सुन्दर अप्सराओं का संसर्ग पाकर सैनिक कहने लगे कि अब वे ना तो दण्डकारण्य जाएंगे और ना ही अयोध्या वापस जाएंगे। वे भरत और श्रीराम को आशीष देने लगे जिनके कारण उन्हें इस दिव्य सुख की प्राप्ति हुई। वे सब हँसते, नाचते, गाते दिव्य पुष्पों का हार पहन कर इधर उधर दौड़ते हुए कहने लगे कि यही स्वर्ग है।
सभी सैनिक, दास, दासियाँ नए वस्त्र और आभूषण पाकर प्रसन्न हो गए। सभी जानवर भी आकंठ भोजन कर तृप्त हो गए। वहां जहाँ तहाँ उत्तम भोजन और पेय से भरे पात्र रखे थे। वन में आस पास जितने कुंए थे उनमें स्वादिष्ट खीर भरी हुई थी, वहां की गौएँ उस समय कामधेनु के समान हो गयी और वृक्ष मधु की वर्षा करने लगे।
सेना में आये निषादों और वनवासियों के लिए मधु की बावड़ियां प्रकट हो गयी और तटों पर उत्तम विधि से पकाये गए मृग, मोर और कुक्कुट (मुर्गे) के मांस का ढेर आ गया। वहां सहस्त्रों सोने के अन्नपात्र, लाखों व्यंजन पात्र और एक अरब थालियां संग्रहित थी। छोटे-छोटे घड़ों में स्वादिष्ट दही, रस, दूध और शक्करों के ढेर पड़े थे। वहां पर असंख्य दर्पण, वस्त्र, खड़ाऊं और पादुकाएं भी थी। पशुओं के पीने के लिए जलाशय भरे पड़े थे और खाने के लिए कोमल घास उपलब्ध थी।
इस प्रकार महर्षि भरद्वाज द्वारा भरत और उनकी सेना का वो दिव्य सत्कार अकल्पनीय और स्वप्न के समान था जिसे देख कर सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए। जैसे देवता नंदनवन में विहार करते हैं वैसे ही उन सभी ने उस रात महर्षि के आश्रम में ही विश्राम किया। उसके बाद वे सभी नदियां, गन्धर्व, देवता, अप्सराएं इत्यादि जैसे आयी थी, उसी प्रकार महर्षि की आज्ञा लेकर लौट गयी। अगले दिन प्रातःकाल भरत ने महर्षि की आज्ञा लेकर सेनासहित चित्रकूट की ओर प्रस्थान किया।
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