वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में जब श्रीराम के वनवास जाने का प्रसग आता है तो वन जाने से पहले वो पाना समस्त व्यक्तिगत धन ब्राह्मणों और अन्य जनता में बाँट देते हैं। यहाँ पर श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं कि "हे लक्ष्मण! मेरा ये जो धन है इसे मैं तुम्हारे साथ रहकर तपस्वी ब्राह्मणों में बाँटना चाहता हूँ। इसलिए जो भी श्रेष्ठ ब्राह्मण यहाँ हैं, उनको तथा उनके आश्रितों को मेरे पास लेकर आओ।
गुरु वशिष्ट के पुत्र, जो ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं, उन आर्य सुयज्ञ को भी शीघ्र यहाँ बुला लो। मैं इन सबका और जो ब्राह्मण शेष रह गए हैं, उन सब का सत्कार कर के ही वन जाऊंगा। तब श्रीराम की आज्ञा पर लक्ष्मण ऋषि सुयज्ञ के घर गए और उन्हें श्रीराम का निमंत्रण देकर अपने साथ ले आये। जब श्रीराम ने उन्हें देखा तो बड़े प्रसन्न हुए और माता सीता के साथ उनका स्वागत किया।
फिर श्रीराम ने स्वर्ण के अंगदों, कुण्डलों, मणियों, केयूरों, वलयों एवं अन्य बहुत से रत्नों से उनका सम्मान किया। इसके बाद श्रीराम ने ऋषि सुयज्ञ से कहा - "आपकी पत्नी की सखी सीता आपको अपना हार, स्वर्णसूत्र, करधनी, विचित्र अंगद और सुन्दर केयूर देना चाहती है। इन्हे आप अपनी पत्नी के लिए ले जाएँ। साथ ही उत्तम बिछौने एवं नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित जो पलंग है उसे भी सीता आपके घर भेजना चाहती है।"
फिर श्रीराम आगे कहते हैं - "विप्रवर! मेरे पास शत्रुंजय नामक एक हाथी है जो मेरे मामा ने मुझे उपहार स्वरुप दिया था। १००० अशर्फियों के साथ उसे भी मैं आपको भेंट करता हूँ।" तब ऋषि सुयज्ञ ने प्रसन्न होकर वो सारे उपहार ग्रहण किये और श्रीराम, माता सीता और वीरवर लक्ष्मण को अनेकों अशीर्वाद दिए।
इसके बाद श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि वे महर्षि अगस्त्य और महर्षि विश्वामित्र को बुला कर उनकी पूजा करें और उन्हें सहस्त्रों गायों, रजतद्रव्यों और बहुमूल्य मणियों के द्वारा संतुष्ट करें। साथ ही वे उन्हें यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा का अध्यन करने वाले ब्राह्मणों के आचार्य और दान प्राप्त करने वाले अन्य ब्राह्मणों को वाहन, सेवक, वस्त्र और मुहमाँगा धन उन्हें देने को कहते हैं।
इसके अतिरिक्त वे लक्ष्मण को चित्ररथ नामक सचिव, जो सूतों में श्रेष्ठ थे और दीर्घकाल से राजकुल की सेवा कर रहे थे, उन्हें बहुमूल्य रत्न, वस्त्र, धन आदि और १००० गायों के दान से संतुष्ट करने को कहते हैं।
उनके अलावा कठशाखा और कलापशाखा के अध्येता जो अनेक दंडधारी ब्राह्मण थे, जो सदैव स्वाध्याय में लगे रहने के कारण दूसरा कोई कार्य नहीं कर पाते थे, जो भिक्षा मांगने में लज्जा पर स्वादिष्ट अन्न खाने की इच्छा रखने वाले थे, उन्हें रत्नों के बोझ से लदे हुए ८० ऊंट, अगहनी चावल के साथ १००० बैल एवं अन्य धान्य से भरे हुए २०० बैल और देने को कहते हैं। साथ ही उन्हें दही, घी आदि चीजों के लिए १००० गायें भी दान देने को श्रीराम कहते हैं।
फिर वे लक्ष्मण से कहते हैं कि माता कौसल्या के पास मेखलाधारी ब्रह्मचारियों का एक बहुत बड़ा समुदाय आया है। उनमें से प्रत्येक को वे १०००-१००० स्वर्ण मुद्राएं दिलवा दें। श्रीराम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने फुर्ती से धनपति कुबेर की भांति श्रीराम के कहे अनुसार सबको इच्छित वस्तुएं दान कर दी।
फिर श्रीराम ने वहां खड़े हुए अपने आश्रित सेवकों को, जो उनके वन जाने से अत्यंत दुखी थे, उन्हें अपने पास बुला कर उन १४ वर्षों तक जीविका चलाने के लिए बहुत सा धन दिया और उनसे कहा कि जब तक मैं वन से लौट कर ना आऊं, तुम लोग मेरे और लक्ष्मण के इस घर को कभी सूना ना छोड़ना और इसे छोड़ कर कहीं और नहीं जाना।
उसके बाद श्रीराम ने अपने कोषाध्यक्ष से कहा कि उनके खजाने में जितना भी धन है उसे ले आएं। ये सुनकर सभी सेवक उनका धन ढो-ढो कर लाने लगे और उनके सामने धन का एक पहाड़ खड़ा हो गया। उस समस्त धन को श्रीराम ने लक्ष्मण के साथ बालकों, बूढ़े एवं दीन-दुखियों में बाँट दिया।
इसके बाद गर्गगोत्रीय ऋषि त्रिजट श्रीराम के पास भिक्षा की आशा से आये। तब तक श्रीराम अपना अधिकतर धन दान कर चुके थे किन्तु फिर भी उन्होंने त्रिजट को उनकी परीक्षा लेकर असंख्य गायें दान में दी। ऋषि त्रिजट के दान के विषय में हमने विस्तार से एक कथा पहले ही प्रकाशित की है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
इसके बाद भी श्रीराम अपने पास का सारा धन और संपत्ति बहुत देर तक लोगों में बांटते रहे। उस समय अयोध्या में ऐसा कोई नहीं था जो श्रीराम द्वारा यथायोग्य सम्मान, दान एवं आदर-सत्कार से तृप्त ना हुआ हो।
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