ताड़का रामायण में वर्णित एक राक्षसी थी जिसका वर्णन हमें रामायण के बालकाण्ड के २४वें सर्ग में मिलता है। जब महर्षि विश्वामित्र महाराज दशरथ से अपने यज्ञ की रक्षा हेतु श्रीराम और लक्ष्मण को मांग कर ले गए, तब मार्ग में यज्ञ से पहले ताड़का राक्षसी का सन्दर्भ आता है। ताड़का वास्तव में एक यक्षिणी थी जिसे राक्षस योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था।
रामायण के अनुसार जब महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण के साथ सरयू एवं गंगा के संगम को पार करते हैं तो उन्हें सामने एक वन दिखता है जिसमें दूर-दूर तक मनुष्यों का कोई चिह्न नहीं होता। तब श्रीराम उनसे इस भयंकर वन के विषय में पूछते हैं। इस पर महर्षि विश्वामित्र उन्हें उस गहन वन का इतिहास बताते हैं।
वे बताते हैं कि यहाँ कभी दो समृद्धशाली जनपद हुआ करते थे - मलद और कुरुष, जिनका निर्माण स्वयं देवराज इंद्र ने किया था। जब इंद्र ने वृत्रासुर का वध किया था तो उन्हें ब्रह्महत्या का पाप लगा। इससे उनका शरीर मल और क्षुधा से भर गया। तब देवताओं ने इसी स्थान पर उन्हें गंगाजल से धोया जिससे उन्हें मल और कारुष (क्षुधा) से मुक्ति मिली। उसी से ये दोनों जनपद बनें और इंद्र ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें सदैव समृद्धशाली रहने का वरदान दिया।
कुछ समय बाद वहां एक यक्षिणी आयी जिसका नाम ताड़का था। उसमें १००० हाथियों का बल था और वो इच्छानुसार रूप धारण कर सकती थी। वो इतनी विशाल थी कि उसका विस्तार ६ योजन तक फैला हुआ था। उसका विवाह सुन्द नामक दैत्य से हुआ जिससे उसे मारीच नामक पुत्र प्राप्त हुआ। उसी ताड़का ने इन दो जनपदों को तहस-नहस कर दिया था और इसीलिए महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम को उसका वध करने को कहा।
ऐसी कथा सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने महर्षि से पूछा कि "हे महर्षि! यक्षिणी तो अबला मानी जाती है फिर उसके शरीर में एक हजार हाथियों का बल कैसे आया?" तब महर्षि विश्वामित्र ने बताया कि प्राचीन काल में सुकेतु नाम के एक पराक्रमी यक्ष थे जिनकी कोई संतान नहीं थी। संतान हेतु उन्होंने घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे एक कन्या प्रदान की जिसका नाम था ताड़का। परमपिता ने ही उसे वर के रूप में १००० हाथियों की शक्ति प्रदान की।
आगे चल कर सुकेतु ने उसका विवाह जम्भ दैत्य के पुत्र सुन्द से किया। दोनों का एक पुत्र हुआ मारीच। किसी कारण वश सुन्द का विग्रह महर्षि अगस्त्य से हो गया और उन्होंने उसे श्राप देकर मार डाला। इसका प्रतिशोध लेने के लिए ताड़का ने अपने पुत्र मारीच के साथ महर्षि पर आक्रमण किया। तब महर्षि अगस्त्य ने कहा कि तुम दोनों यक्ष होते हुए भी राक्षसी स्वाभाव के हो इसीलिए तत्काल राक्षस बन जाओ। महर्षि के इस श्राप से ताड़का और मारीच यक्ष योनि छोड़ कर राक्षस बन गए।
ये कथा सुना कर महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा कि "हे राम! इस समय संसार में तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी ताड़का का वध नहीं कर सकता। अतः उसका वध कर इस संसार को उसके अत्याचारों से मुक्त करो।" उनकी ये बात सुनकर श्रीराम ने संकोच से कहा कि ताड़का तो एक स्त्री है फिर वो किस प्रकार उसपर प्रहार कर सकते हैं? इसपर महर्षि ने उन्हें समझाया कि उसे राक्षसी को स्त्री समझने की भूल ना करो। चारो वर्णों की रक्षा हेतु यदि किसी स्त्री हत्या भी करना पड़े तो उससे पीछे नहीं हटना चाहिए।
उन्हें समझाते हुए महर्षि ने उन्हें एक कथा सुनाई कि प्राचीन काल में दैत्यराज विरोचन की पुत्री मंथरा इस समस्त पृथ्वी का नाश कर देना चाहती थी। तब पृथ्वी और मनुष्यों की रक्षा के लिए देवराज इंद्र ने उसका वध किया था। उसी प्रकार महर्षि भृगु की पत्नी काव्यमाता इंद्र का नाश करना चाहती थी। तब स्वयं भगवान विष्णु ने असुरों से इस पृथ्वी की रक्षा के लिए उसका शिरच्छेद किया था। इसी प्रकार तुम्हे भी ताड़का का वध करने में संकोच नहीं होना चाहिए। उनकी ये बात सुनकर श्रीराम ने ताड़का के वध का निश्चय किया।
श्रीराम ने फिर अपने धनुष के प्रत्यंचा खींच कर छोड़ा। प्रत्यंचा की उस टंकार से दसों दिशाएं गूंज उठी और वन के प्राणी डर कर भाग गए। उस टंकार को सुनकर ताड़का दौड़ती हुई वहां आयी। उसका शरीर पर्वत की भांति विशाल था। उसे देख कर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि ये जो भी है एक स्त्री है इसीलिए मेरा मन इसके वध के लिए तैयार नहीं हो रहा। इससे अच्छा है कि मैं इसके हाथ-पैर काट कर इसे पंगु बना देता हूँ ताकि इसके गमन की शक्ति ही ना रहे।
ताड़का ने पहले श्रीराम और लक्ष्मण के सामने धूल की आंधी उड़ाई और फिर उनपर शिलाओं और वृक्षों से प्रहार किया। इससे श्रीराम क्रुद्ध हो गए और उन्होंने ताड़का की दोनों भुजाएं काट दी। फिर लक्ष्मण ने क्रोध में आकर ताड़का के नाक और कान काट लिए। तब वो अदृश्य होकर राम-लक्ष्मण पर चट्टानों से प्रहार करने लगी। विश्वामित्र ये समझ गए कि श्रीराम एक स्त्री का वध नहीं करना चाहते।
ये देख कर उन्होंने फिर से श्रीराम को कहा - "राम! तुम्हारा इसे स्त्री समझ कर इस पर दया करना व्यर्थ है। ये पापिन सदैव यज्ञ कार्यों में विघ्न डालती आयी है। संध्याकाल आने वाला है, उससे पहले ही इसे मार डालो क्यूंकि संध्याकाल में राक्षस दुर्जय हो जाते हैं।" ये सुनकर श्रीराम ने शब्दवेधी बाण चला कर ताड़का को प्रकट होने पर विवश कर दिया।
अब ताड़का ने अतुल वेग से राम-लक्ष्मण पर आक्रमण किया। तब श्रीराम ने एक अमोघ बाण मार मार कर ताड़का के वक्ष को चीर दिया। इससे ताड़का भूमि पर गिर पड़ी और मारी गयी। उसे मारा देख कर इंद्र सहित देवताओं ने श्रीराम को साधुवाद दिया। फिर देवराज ने महर्षि विश्वामित्र से कहा - "हे विप्रवर! आपने हम देवताओं को संतुष्ट किया है। अब राम पर अपना स्नेह प्रकट कीजिये। आपके पास जो दिव्यास्त्र हैं उसे इन्हे प्रदान कीजिये क्यूंकि इनके हाथों देवताओं का एक महान कार्य सम्पूर्ण होने वाला है।"
ताड़का के वध के बाद वो वन श्रापमुक्त हो पुनः मनोरम हो गया और समस्त संसार में श्रीराम की प्रसिद्धि फ़ैल गयी। बाद में महर्षि विश्वामित्र ने अनेकों दिव्यास्त्र श्रीराम और लक्ष्मण को प्रदान कए।
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