बहुत कम लोगों को ये पता होगा कि देवताओं के कोई भी पुत्र अपनी माता के गर्भ से नहीं जन्में हैं। ऐसा इसलिए क्यूंकि देवताओं को ये श्राप स्वयं भगवती पार्वती ने दिया था। इसका वर्णन शिव पुराण के अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के ३६वें सर्ग में मिलता है जहाँ महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण को माता गंगा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में ये कथा सुनाते हैं।
इस कथा के अनुसार भगवान शंकर और माता पार्वती के विवाह के पश्चात दोनों पुत्र प्राप्ति के लिए समागम किया। दोनों को रतिक्रीड़ा करते हुए १०० दिव्य वर्ष, अर्थात ३६००० वर्ष बीत गए किन्तु माता पार्वती ने गर्भ धारण नहीं किया। ये देख कर देवता बड़े आश्चर्यचकित हुए और ब्रह्माजी के पास जाकर इसका कारण पूछा। तब परमपिता ने उन्हें बताया कि यदि महादेव का तेज प्रकट हो जायेगा तो उसे सहन कौन कर सकेगा।
ये सोच कर ब्रह्माजी सहित सभी देवता महादेव के पास गए और उनकी प्रार्थना करने लगे। उन्होंने कहा - "हे प्रभु! हम आपकी शरण में हैं, हम पर कृपा कीजिये। ये लोक आपके तेज को सहन नहीं कर सकता, इससे तीनों लोकों का विनाश हो जाएगा। अतः आप रतिक्रीड़ा से निवृत हो जाएँ।"
देवताओं की प्रार्थना सुनकर महादेव अपने अंतःपुर से बाहर निकल आये जिससे माता पार्वती असीम दुःख, निराशा और क्रोध में डूब गयी। महादेव ने सभी देवताओं से कहा कि आप लोगों की प्रार्थना है इसिलए मैं और उमा स्वयं अपने तेज को धारण करेंगे। किन्तु यदि मेरा तेज अपने स्थान से स्खलित हो जाये तो कौन उसे धारण करेगा?"
तब देवताओं ने कहा "भगवन! आपका जो भी तेज गिरेगा उसे पृथ्वी देवी धारण कर लेगी।" ये सुनकर महादेव ने अपना तेज स्खलित किया जिससे पृथ्वी क्षुब्द हो गयी। तब देवताओं ने अग्निदेव से प्रार्थना की कि महादेव के इस तेज को वो अपने अंदर रख लें। तब अग्निदेव ने ऐसा ही किया और उनके अंदर महादेव का तेज एक श्वेत पर्वत की भांति स्थित हो गया जिसपर सरकंडों का एक दिव्य वन उग आया।
उसी वन से अग्नि के समान तेजस्वी कार्तिकेय का जन्म हुआ जिसे देख कर सभी देवता और ऋषि प्रसन्न होकर महादेव और माता पार्वती की की स्तुति करने लगे। किन्तु जो पुत्र उनके गर्भ से जन्म लेना चाहिए था उसे इस प्रकार जन्म लेता देख कर माता पार्वती के नेत्र क्रोध से लाल हो गए। वे रुष्ट होकर देवताओं से बोली - "देवताओं! मैंने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से पति के साथ समागम किया था किन्तु तुमने मुझे रोक दिया। अतः अब तुमलोग भी अपनी पत्नियों से संतान उत्पन्न करने योग्य नहीं रह जाओगे। आज से तुम्हारी पत्नियां अपने गर्भ से संतान को उत्पन्न नहीं कर सकेगी।"
देवताओं को श्राप देकर भी माता का क्रोध शांत नहीं हुआ। चूँकि पृथ्वी देवी ने महादेव के वीर्य को धारण करने का प्रयास किया था इसीलिए उन्होंने धरती माता को भी श्राप दिया कि उनका रूप बदलता रहेगा और वो बहुतों की भार्या होगी। साथ ही उन्हें भी संतान सुख से वंचित रहना पड़ेगा।"
माता पार्वती को इस प्रकार देवताओं और पृथ्वी को श्राप देता देख कर देवाधिदेव शंकर बड़े व्यथित हुए। वे उसी समय पश्चिम दिशा की ओर चल पड़े और हिमालय में ही श्रेष्ठ कैलाश शिखर पर जाकर समाधि में लीन हो गए। बाद में माता भी उनसे वहीँ मिली और उसी कैलाश को अपना निवास स्थान बनाया।
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