ऋषि जाबालि

ऋषि जाबालि
कुछ समय पहले हमने चार्वाक दर्शन पर एक लेख प्रकाशित किया था जो पूर्ण रूप से नास्तिक विचारधारा पर आधारित है। किन्तु यदि हम रामायण का अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि नास्तिक विचारधारा आज की नहीं अपितु बहुत पहले से चली आ रही है। आधुनिक काल में उसके प्रवर्तक चार्वाक माने जाते हैं किन्तु उनसे बहुत पहले रामायण में भी एक ऋषि थे जिनकी विचारधारा घोर नास्तिक मानी जाती है।

इनका नाम है ऋषि जाबालि। वाल्मीकि रामायण में जाबालि का वर्णन मुख्यतः तीन स्थानों पर आया है। पहली बार उनका वर्णन हमें बालकाण्ड के ७वें सर्ग के श्लोक ५ में मिलता है जहाँ पर महाराज दशरथ के ६ मंत्रियों में इनका नाम आया है। महाराज दशरथ के मंत्रिमंडल पर एक लेख हमने पहले ही लिखा है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

ऋषि जाबालि का सबसे विस्तृत वर्णन हमें वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के सर्ग १०८ में मिलता है। जब भरत श्रीराम को वन से वापस लौटाने जाते हैं और उनके बहुत कहने पर भी श्रीराम वापस नहीं लौटते तब जाबालि उन्हें नास्तिकता के तर्क देकर वापस अयोध्या चलने को कहते हैं। यदि आप इस प्रसंग को पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि आधुनिक चार्वाक दर्शन भी बिलकुल जाबालि की विचारधारा से मेल खाता है।

इस प्रसंग में जाबालि श्रीराम से कहते हैं कि "रघुनन्दन! आप श्रेष्ठ बुद्धि वाले व्यक्ति हैं इसीलिए आपको बुद्धिहीन मनुष्यों की तरह ऐसे निरर्थक विचार मन में नहीं लाने चाहिए। संसार में में कौन किसका बंधु है और किसी से किसी को क्या पाना है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है। अतः जो मनुष्य किसी को माता पिता समझ कर उसके प्रति मोह में पड़ता है उसे विक्षिप्त ही समझना चाहिए क्यूंकि यहाँ कोई किसी का नहीं।"

"जैसे कोई मनुष्य एक गांव से दूसरे गांव में जाते हुए किसी धर्मशाला में ठहरता है, उसी प्रकार माता-पिता, बंधु-बांधव मनुष्य के आवास मात्र हैं, इसमें सज्जन पुरुष को आसक्त नहीं होना चाहिए। अतः आपको अपने पिता का राज्य छोड़ कर इस प्रकार वन में नहीं रहना चाहिए। आप अयोध्या के राजसिंहासन पर एक राजा के रूप में अपना अभिषेक करवाइये। जैसे देवराज इंद्र अमरावती में विहार करते हैं, आप उसी प्रकार अयोध्या में कीजिये।"

जाबालि आगे कहते हैं - "महाराज दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं। उन्हें जहाँ जाना था वो वहां चले गए, अब आप व्यर्थ ही उनके प्रति दुखी होते हैं। लोगों को धर्म के नाम पर केवल दुःख भोग कर मृत्यु को प्राप्त नहीं होना चाहिए। मनुष्य के मरने के बाद हम उनका श्राद्ध ये सोच कर करते हैं कि इसका दान पितरों को मिलेगा किन्तु सोच कर देखिये कि भला मरा हुआ व्यक्ति क्या खायेगा? ये तो बस अन्न का नाश करना है।"

"यदि यहाँ का खाया अन्न पितरों को मिलता है तब तो जो व्यक्ति बाहर के नगर में जा रहा हो उसका भी श्राद्ध कर देना चाहिए, उसको मार्ग के लिए भोजन क्यों देना है? देवताओं के लिए यज्ञ, पूजन, दान, दीक्षा, तपस्या और घर द्वार छोड़ कर संन्यासी बनने की बाद केवल बुद्धिमान मनुष्यों को बैरागी बना देने के लिए है। अतः मेरी बात सुनिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है। जो सामने है उसे भोगिए, परोक्ष की चीजों को छोड़िये। भरत की बात मान कर आप अयोध्या लौट चलिए और वहां का राज्य सम्भालिये।"

जाबालि की ऐसी बात सुनकर श्रीराम रुष्ट हुए और उनसे बोले - "आपने मेरे हित की बात सोच कर जो कुछ भी कहा है वो करने योग्य नहीं है। जो परुष धर्म और वेद की मर्यादा को त्यागता है उसे कभी सम्मान प्राप्त नहीं होता। किसी व्यक्ति का आचार ही ये बताता है कि वो उत्तम कुल में जन्मा है या अधम कुल में। आपने जो आचार बताया है वो बाहर से श्रेष्ठ दिखने पर भी अनार्य विचार है। आप जो उपदेश धर्म समझ कर दे रहे हैं वो वास्तव में अधर्म है। इससे संसार में वर्ण-संकरता का प्रचार होगा।"

"यदि मैं इसे स्वीकार करके वेदोक्त अनुष्ठान छोड़ दूँ और विधिहीन कर्म में लग जाऊँ तो कौन समझदार मनुष्य मुझे श्रेष्ठ समझ कर आदर देगा? सब मुझे दुराचारी और कलंकित ही समझेंगे। जो अपनी दी हुई प्रतिज्ञा तोड़ता है उसका कभी कल्याण नहीं होता। यदि मैं आपकी बात मान लूँ तो सबसे पहले मैं स्वेच्छाचारी कहलाऊंगा और फिर सारी प्रजा ही स्वेच्छाचारी हो जाएगी क्यूंकि राजा का जैसा आचरण होता है, प्रजा वैसी ही बन जाती है।"

श्रीराम आगे कहते हैं - "इस जगत में सत्य से बढ़कर कुछ नहीं। देवता और ऋषि भी सत्य का ही आदर करते हैं। जगत में सत्य ही ईश्वर है और उससे बढ़कर कुछ नहीं। झूट बोलने वाले मनुष्य से सभी उसी प्रकार डरते हैं जैसे सांप से। मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ और किसी भी स्थिति में अपने वचन से नहीं डिग सकता। क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसका निर्णय मैं कर चुका हूँ। मैं निश्चित रूप से कंद-मूल खा कर १४ वर्षों तक इस वन में निवास करूँगा।"

"आपकी बुद्धि विषम मार्ग में स्थित है। आपने वेद-विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नस्तिक और धर्म से कोसों दूर हैं। ऐसी विचारधारा के व्यक्ति को मेरे पिता ने अपना याजक बना लिया था, इसके लिए मैं उनकी भी निंदा करता हूँ। जैसे चोर दंडनीय होता है उसी प्रकार बुद्ध, तथागत और नास्तिक को भी समझना चाहिए। जो धर्म का पालन और सत्पुरुषों का साथ रखते हैं, ऐसे ऋषि ही संसार में पूजनीय होते हैं।"

ध्यान दें कि यहाँ पर "बुद्ध" और "तथागत" शब्द का कोई भी सम्बन्ध गौतम बुद्ध या बौद्ध धर्म से नहीं है। हालाँकि बौद्ध धर्म और तथागत नास्तिक विचारधारा ही है किन्तु फिर भी इस श्लोक में उपयोग किये गए शब्दों से उनका कोई लेना देना नहीं है क्यूंकि रामायण बुद्ध और बौद्ध से बहुत पहले की काल की रचना है। यहाँ पर बुद्ध और तथागत शब्द का अर्थ वेद और धर्म विरोधी है।

जब श्रीराम ने जाबालि से ऐसा कहा तो वे लज्जित होते हुए बोले - "रघुनन्दन! मैं ना तो नास्तिक हूँ और ना ही नास्तिकों की बात करता हूँ। परलोक आदि कुछ भी नहीं है ऐसा मेरा मत नहीं है। मैं अवसर देख कर आस्तिक या नास्तिक बन जाता हूँ। इस समय ऐसा अवसर आ गया था कि मैंने नास्तिकों जैसी बात कह दी। मैंने जो कुछ भी कहा उसका उद्देश्य केवल आपको वापस अयोध्या ले जाना था।"

तब बात बिगड़ती देख कर महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम से कहा - "पुत्र! महर्षि जाबालि भी ये जानते हैं कि इस लोक से परलोक में प्राणियों का आना जाना होता रहता है, अतः ये नास्तिक नहीं हैं। इस समय केवल तुम्हे लौटा ले जाने के लिए इन्होने ऐसी बात कर दी।" इसके बाद महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, इसके बारे में बताया जिससे श्रीराम का चित्त थोड़ा शांत हुआ। 

ऋषि जाबालि का तीसरा और संक्षेप वर्णन हमें श्रीराम के राज्याभिषेक के समय मिलता है। वाल्मिकी रामायण के युद्ध कांड के १२८ सर्ग के ६०वें और ६१वें श्लोक में आठ ऋषियों द्वारा श्रीराम के अभिषेक करने का वर्णन है जिनमें जाबालि भी एक थे। ये आठ ऋषि थे - वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप, कात्यायन, सुयज्ञ, गौतम और विजय।

हालाँकि इस बात का कोई वर्णन रामायण में नहीं है किन्तु फिर भी ये आम मान्यता है कि इस प्रकरण के बाद ऋषि जाबालि स्वयं अयोध्या नहीं लौटे और वन में ही रह गए। कदाचित केवल श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए वो पुनः अयोध्या आए हों, जैसा कि युद्ध कांड में वर्णित है।

रामायण में तो नहीं पर छान्दोग्य उपनिषद में हमें ऋषि जाबालि के जन्म की कथा मिलती है। इस कथा के अनुसार जाबालि का वास्तविक नाम "सत्यकाम" था। एक बार वो विद्या अध्ययन के लिए महर्षि गौतम के पास पहुंचा। तब अपना शिष्य बनाने पहले उन्होंने सत्यकाम का गोत्र पूछा। तब उसने कहा कि उसे अपना गोत्र नहीं पता। तब महर्षि गौतम ने उससे उसके पिता का नाम पूछा। इसपर सत्यकाम ने बताया कि उसे अपने पिता का नाम भी नहीं पता।

सत्यकाम ने बताया कि उसकी माता अनेकों घरों में परिचायिका के रूप में कार्य करती है और उसने कभी उसे अपने पिता का नाम या गोत्र नहीं बताया। महर्षि गौतम उस बालक की स्पष्टवादिता से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने उससे उसकी माता का नाम पूछा जिस पर उसने बताया कि उसकी माँ का नाम जाबाला है। तब महर्षि गौतम ने उसका नाम उसकी माता के नाम पर ही जाबालि रखा। उस दिन से उसे "सत्यकाम जाबालि" के नाम से भी जाना गया।

हालाँकि सत्यकाम को अपने पिता का नाम और गोत्र नहीं पता था फिर भी उसकी स्पष्टवादिता से प्रसन्न होकर महर्षि गौतम ने उसे ब्राह्मण ही माना और उसका गोत्र कश्यप बताया। आज भी जिसे अपना गोत्र नहीं पता होता उसका गोत्र कश्यप ही माना जाता है क्यूंकि महर्षि कश्यप और उनकी १७ पत्नियों से ही समस्त जाति की उत्पत्ति हुई मानी जाती है। इसके बारे में विस्तार से आप यहाँ देख सकते हैं।

एक दिन जाबालि ने महर्षि गौतम ने ब्रह्म के रहस्य को जानने की प्रार्थना की। तब महर्षि ने उसे ४०० अत्यंत दुर्बल गायें दी और कहा कि यदि तुम इनकी संख्या बढ़ा कर १००० गायें कर सके तो मैं तुम्हे ब्रह्म की शिक्षा दूंगा। तब जाबालि उन गायों को लेकर वन गया और मन से उनकी सेवा करने लगा। उसकी ऐसी निष्ठा देख कर वायु देवता ने एक ऋषभ का रूप लिया और गायों की संख्या को १००० कर दिया। उन्होंने जाबालि को प्रकाशवान पद का ज्ञान भी प्रदान किया।

जब जाबालि वापस आश्रम जा रहा था जो वायु देवता की प्रेरणा से मार्ग में उसे अग्नि ने अनंतवान, हंस ने ज्योतिष्मान और मद्गु ने आयतनवान पदों का ज्ञान दिया। इस प्रकार प्रकाशवान, अनंतवान, ज्योतिष्मान और आयतनवान, इन चार पदों का ज्ञान प्राप्त कर जाबालि चतुष्कल पदों का ज्ञाता बन गया। जो वो वापस पहुंचा तो महर्षि गौतम ने उसके चेहरे पर एक ब्रह्मज्ञानी का तेज देखा।

तब जाबालि ने उन्हें बताया कि गायों की संख्या १००० हो गयी है अतः वे उन्हें ब्रह्म का ज्ञान दें। इस पर महर्षि गौतम ने उससे कहा कि अब उसे इस ज्ञान की आवश्यकता नहीं है क्यूंकि उसके चेहरे पर ब्रह्म का तेज साफ़ झलक रहा है। उन्होंने उससे पूछा कि उसे ये ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? तब जाबालि ने सारी घटना बता दी।

किन्तु फिर भी उसने महर्षि गौतम से पुनः ब्रह्म के ज्ञान को प्रदान करने की प्रार्थना की क्यूंकि भले ही उसे वो ज्ञान देवताओं से प्राप्त हुआ था किन्तु फिर भी बिना गुरु के ज्ञान अधूरा माना जाता है। उसकी ऐसी विनम्रता देख कर महर्षि ने उसे पुनः ब्रह्म का ज्ञान दिया। आगे चल कर ऋषि जाबालि महाराज दशरथ के मंत्री के पद पर आसीन हुए।

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