क्या श्रीराम ने कभी माता शबरी के जूठे बेर खाये थे?

क्या श्रीराम ने कभी शबरी के जूठे बेर खाये थे?
रामायण के सन्दर्भ में शबरी और उनके जूठे बेरों के विषय में तो सब जानते हैं। सदियों से हम ये सुनते आ रहे हैं कि जब श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ माता सीता को ढूंढते हुए माता शबरी के आश्रम में पहुंचे तो उन्हें देख कर शबरी, जो वर्षों से उनकी प्रतीक्षा कर रही थी बड़ी प्रसन्न हुई। फिर उन्होंने दोनों भाइयों को खाने के लिए बेर दिए। बेर अच्छे हैं या नहीं इसीलिए उन्होंने उसे पहले उसे चखा। बाद में उसी बेर को श्रीराम और लक्ष्मण ने प्रेम से खाया।

ये कथा निःसंदेह भगवान का अपने भक्त के प्रति प्रेम को दर्शाती है। किन्तु क्या वास्तव में कभी श्रीराम ने माता शबरी के जूठे बेर खाये थे? यदि आप वाल्मीकि रामायण को पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। माता शबरी का बहुत थोड़ा वर्णन हमें रामायण में मिलता है और उसमें भी श्रीराम द्वारा उनके जूठे बेर खाने का कहीं कोई प्रसंग नहीं आता है।

वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड के सर्ग ७४ में माता शबरी का वर्णन है। इसके अनुसार जब श्रीराम और लक्ष्मण राक्षस कबंध के बताये हुए मार्ग पर चलते हुए महर्षि मतङ्ग के आश्रम पर पहुंचे तो उनकी भेंट वहां शबरी से हुई। उन दोनों भाइयों को आया देख कर शबरी ने उन्हें प्रणाम किया और फिर अर्ध्य, पद्य आचमन आदि से उनका सत्कार किया।

तब श्रीराम ने उनकी कुशल पूछी। तब शबरी श्रीराम से कहती हैं कि उनके दर्शनों से वो धन्य हो गयी। जिस समय श्रीराम चित्रकूट पधारे थे उसी समय उनके गुरु महर्षि मतङ्ग ने अपने देह का त्याग किया था। परम लोक जाने से पहले उन्होंने शबरी को ये बताया था कि भविष्य में श्रीराम अपने भाई के साथ इस आश्रम पर आएंगे। उनके दर्शनों के बाद ही शबरी उत्तम लोकों को प्राप्त करेगी।

ऐसी बात बता कर शबरी ने श्रीराम को पम्पातट पर उगने वाले कई प्रकार के जंगली कंद मूल दिए। जिसका वर्णन अरण्यकाण्ड के सर्ग ७४ के श्लोक १७ में है।

एवमुक्ता महाभागैस्तदाहं पुरुषर्षभ।
मया तु संचितं वन्यं विविधं पुरुषर्षभ।
तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसम्भवम्। 

अर्थात: पुरुषप्रवर! उन महाभाग महात्माओं ने मुझसे उस समय ऐसी बात कही थी। अतः पुरुषसिंह! मैंने आपके लिये पम्पातटपर उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के जंगली फल-मूलों का संचय किया है।

तब श्रीराम ने शबरी से महर्षि मतङ्ग के तेज को देखने का अनुरोध किया जो उनके देहावसान के बाद आज तक जल रहा था। इसपर शबरी ने उन दोनों को वो स्थान दिखाया। इसके बाद शबरी ने श्रीराम की आज्ञा लेकर अपने शरीर को अग्नि में समर्पित कर दिया और अपने लोक चली गयी।

तो वाल्मीकि रामायण में माता शबरी की बस इतनी ही कथा मिलती है। यहाँ हम देख सकते हैं कि इस प्रसंग में उनके जूठे बेरों का कोई वर्णन नहीं दिया गया। तो फिर आखिर माता शबरी के जूठे बेरों की कथा आयी कहाँ से? इस विषय में अधिकांश लोग ये समझते हैं कि माता शबरी के जूठे बेरों की कथा गोस्वामी तुलसीदास ने अपने महान ग्रन्थ रामचरितमानस में लिखी है। लेकिन ये भी गलत है, तुलसीदास जी ने भी ऐसा कोई वर्णन नहीं किया।

रामचरितमानस के अरण्य कांड के ३४वें दोहे में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं -

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥

अर्थात: उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया।

तो आप देख सकते हैं कि यहाँ पर भी माता शबरी के जूठे बेर का कोई सन्दर्भ हमें नहीं मिलता।

वैसे भी श्रीराम द्वारा किसी का जूठा खाना बड़ा अजीब सा लगता है। इसका कारण ये नहीं कि चूंकि शबरी एक भीलनी थी (ऐसी मान्यता है, इसका वर्णन भी रामायण में नहीं है) इसीलिए श्रीराम उनका जूठा नहीं खा सकते थे बल्कि शास्त्रों में किसी के भी, यहाँ तक कि अपने स्वजन बंधु-बांधवों के भी जूठे भोजन को त्याज्य बताया गया है। इसीलिए ये बात बिलकुल ठीक लगती है कि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं हुआ होगा।

अब रही ये बात कि श्रीराम द्वारा माता शबरी के जूठे बेर को खाने का प्रसंग किस ग्रन्थ में है तो इसके बारे में अलग-अलग मत हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इसका वर्णन पद्मपुराण में है। पद्मपुराण में श्रीराम के वनवास का संक्षेप वर्णन अवश्य है और माता शबरी का वर्णन भी वहां आता है किन्तु वहां पर भी उनके द्वारा जूठे बेर खिलाने का कोई सन्दर्भ हमें नहीं मिलता।

कदाचित इस प्रसंग में भक्ति रस की अधिकता के कारण लोक कथाओं में ये बात प्रचारित हो गयी हो और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही बात चली आ रही हो। यदि भक्ति भाव से देखा जाये तो ये एक बड़ा अच्छा प्रसंग लगता है किन्तु सत्य तो ये है कि किसी भी प्रामाणिक ग्रन्थ में इस बात का कोई वर्णन हमें नहीं मिलता। 

इस लेख का ध्येय किसी भी प्रकार से इस प्रकरण के पीछे के भक्ति भाव को नकारने का नहीं है, बल्कि केवल इस सत्य से अवगत करना है कि वास्तव में हमारे धर्मग्रंथों में क्या लिखा है। 

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