वेद, संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद क्या हैं?

वेदों के विषय में तो हम सभी जानते ही हैं। इसकी मूल संरचना के विषय में भी हम जानते हैं कि वेदों को मूलतः ४ भागों में विभक्त किया गया है - ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। किन्तु इसके अतिरिक्त भी हमें कई और चीजों के बारे में सुनने को मिलता है जैसे संहिता, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक ग्रन्थ, उपनिषद इत्यादि जिसे अधिकतर लोग ठीक से समझ नहीं पाते हैं। ये हिन्दू धर्म के सबसे जटिल चीजों में से एक हैं।

आज इस लेख में हम वेदों की संरचना को बहुत ही सरल भाषा में समझेंगे। साथ ही हम ये भी जानेंगे कि संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद वास्तव में हैं क्या? विश्वास कीजिये कि इस लेख को पढ़ने के बाद आपको इन विषयों के बारे में कोई शंका नहीं रहेगी।

तो सबसे पहली बात कि ये चारो चीजें, अर्थात संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद सीधे-सीधे वेदों से ही जुड़े हैं। हिन्दू धर्म ग्रंथों को मुख्यतः दो भागों में बांटा गया है - श्रुति और स्मृति। वेदों को श्रुति ग्रन्थ माना जाता है और वेदों के अतिरिक्त जितने भी अन्य ग्रन्थ हैं, उन्हें स्मृति कहा जाता है। चूँकि संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद वेदों से जुड़े हैं तो इन्हे भी श्रुति ही माना जाता है। श्रुति और स्मृति पर हमने एक विस्तृत लेख लिखा था जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

तो हम ये कह सकते हैं कि वेद कोई एक ग्रन्थ नहीं बल्कि बहुत सारे ग्रंथों का संकलन है। यदि एक वाक्य में समझें तो वेद और कुछ नहीं बल्कि इन चारों चीजों, अर्थात संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद के संकलन हैं। दूसरी तरह से कहा जाये तो ये चारों वेदों के ही भाग हैं। अब चूँकि इन चारों से मिल कर ही वेदों की मूल संरचना बनती है, हरेक वेद, अर्थात ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के अपने-अपने संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद होते हैं। चलिए हम वेदों के इन चारों भागों के विषय में संक्षेप में जान लेते हैं।
  1. संहिता: ये वेदों का मूल और सबसे प्राचीन भाग है। इसकी महत्ता इतनी अधिक है कि हिन्दू धर्म की कई शाखाओं में केवल संहिताओं को ही वेद समझा जाता है और ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों को वेदों का भाग नहीं माना जाता। वेदों में जो भी भाग मन्त्रों के रूप में है वही संहिता कहा जाता है। ये मन्त्र विभिन्न देवताओं को समर्पित हैं जिनमें इंद्र और अग्नि प्रमुख हैं। अलग-अलग वेदों की अलग-अलग संहिताएं हैं और इन चारों संहिताओं को मिलाकर लगभग ७२००० पद माने गए हैं।
    • ऋग्वेद: ऋग्वेद संहिता (गायत्री मन्त्र इसी संहिता का भाग है)।
    • सामवेद: सामवेद संहिता।
    • यजुर्वेद: यजुर्वेद संहिता।
    • अथर्ववेद: अथर्ववेद संहिता।
  2. ब्राहण: वेदों का ये भाग गद्य के रूप में है। इसमें भी विभिन्न देवताओं की स्तुति है किन्तु जो चीज इसे विशेष बनाती है वो है इनमें दिया गया विभिन्न कर्मकांडों का विस्तृत वर्णन। सभी ब्राह्मण ग्रन्थ चारों वेदों और संहिताओं से जुड़े हुए हैं और इनमें आरण्यक और उपनिषदों का सार भी है।
    • ऋग्वेद: ऐतरेय ब्राह्मण और कौशितकी ब्राह्मण।
    • सामवेद: पञ्चविश ब्राह्मण, षड्विश ब्राह्मण, मन्त्र ब्राह्मण, दैवत ब्राह्मण, संविधान ब्राह्मण, आर्षेय ब्राह्मण, छान्दोग्य ब्राह्मण, संहितोपनिषद ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण और जैमनीय ब्राह्मण।
    • यजुर्वेद: शथपथ और तैत्तरीय।
      • कृष्ण यर्जुवेद: तैत्तरीय ब्राह्मण
      • शुक्ल यजुर्वेद: शथपथ ब्राह्मण
    • अथर्ववेद: गोपथ ब्राह्मण।
  3. आरण्यक: वेदों का ये भाग भी गद्य के रूप में। इसमें विशेष रूप से ज्ञान और दर्शन की बात की गयी है। ये ऐसे ग्रन्थ हैं जिनकी रचना वनों में की गयी है और जिनका अध्ययन वन में ही करना चाहिए, ऐसा माना जाता है। इसमें अनेकों अवसरों पर उपयोग किये जाने वाले विधि विधानों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
    • ऋग्वेद: ऐतरेय आरण्यक और कौशतिकी आरण्यक।
    • सामवेद: तालवक्र आरण्यक।
    • यजुर्वेद: तैत्तरीय आरण्यक, मैत्रयानीय आरण्यक, कठ आरण्यक और बृहद आरण्यक।
    • अथर्ववेद: ऐसी मान्यता है कि अथर्ववेद से सम्बंधित सभी आरण्यक अब लुप्त हो चुके हैं।
  4. उपनिषद: वेदों के इस भाग में गुरु और शिष्य के संवाद है जो पूर्ण रूप से अध्यात्म पर आधारित है और ईश्वर की प्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति के साधनों के बारे में इसमें लिखा गया है। ये मुख्यतः दार्शनिक विचारधाराओं का संकलन है और आधुनिक काल में हम हिन्दू धर्म को जिस रूप में देखते हैं, उसका आधार भी उपनिषद ही हैं। हालाँकि कई विद्वान केवल १० मुख्य उपनिषदों को ही वेदों का भाग मानते हैं। ये हैं - ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य एवं बृहदाकारण्य। अन्य ९८ उपनिषदों को भी वेदों से जोड़ा जाता है।
    • ऋग्वेद: ऐतरेय उपनिषद।
    • सामवेद: केन उपनिषद और छान्दोग्य उपनिषद।
    • यजुर्वेद: कठ, तैत्तिरीय, ईश और बृहदारण्यक।
      • कृष्ण यजुर्वेद: कठ उपनिषद और तैत्तिरीय उपनिषद।
      • शुक्ल यजुर्वेद: ईश उपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद।
    • अथर्ववेद: मुण्डक उपनिषद, माण्डूक्य उपनिषद और प्रश्न उपनिषद।
    • इनके अतिरिक्त मुख्य उपनिषदों को मिलकर यदि सभी १०८ उपनिषदों की बात की जाये तो ऋग्वेद में १०, सामवेद में १६, यजुर्वेद में ५१ (कृष्ण यजुर्वेद में ३२ और शुक्ल यजुर्वेद में १९) और अथर्ववेद में ३१ उपनिषदों को वर्गीकृत किया गया है।
तो हम देख सकते हैं कि संहिता वेदों पर, ब्राह्मण संहिता पर, आरण्यक ब्राह्मण पर और उपनिषद आरण्यक पर आधारित है।

आम लोगों को ऐसा लगता है कि वेदों के इन चार विभागों का अध्ययन कोई भी कभी भी कर सकता था किन्तु ऐसा नहीं है। वास्तव में जीवन के अलग-अलग अवस्थाओं में अलग-अलग विभागों का अध्ययन किया जाता था। ये तो हम सभी जानते हैं कि हमारा जीवन चार आश्रमों में विभक्त है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास। तो वेदों के इन चार विभागों को अलग-अलग इन चार आश्रमों में पढ़ने का विधान था।
  1. ब्रह्मचर्य आश्रम (जन्म से लेकर २५ वर्ष की आयु तक): इस आश्रम में संहिता का अध्ययन किया जाता था। इसका एक कारण ये भी था कि बचपन में किसी भी नए और कठिन चीज को सीखना अपेक्षाकृत अधिक आसान होता है। और ये तो हम जानते ही हैं कि मन्त्रों को सीखना गद्य या पद्य से बहुत अधिक कठिन होता है। इसीलिए इसका अध्ययन ब्रह्मचर्य आश्रम में किया जाता था ताकि छात्र अधिक कुशाग्रबुद्धि के बन सकें। इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद गृहस्थ आश्रम में जब ये छात्र प्रवेश करते थे तो अपने द्वारा संचित ज्ञान को ये अपनी संतानों को भी सिखाते थे। इस प्रकार ये ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता रहता था।
  2. गृहस्थ आश्रम (२६ वर्ष से लेकर ५० वर्ष की आयु तक): इस आश्रम में ब्राह्मण का अध्ययन किया जाता था। जैसा कि हमें पता है कि ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्यतः कर्मकांडों को सम्मलित किया गया है। एक ब्रह्मचारी को कर्मकांडों की उतनी आवश्यकता नहीं होता किन्तु जब वो गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है तो उसे कई कर्मकांड और संस्कार करने पड़ते हैं। इसीलिए यह आश्रम ब्राह्मण ग्रंथों के अध्ययन के लिए उपयुक्त माना जाता था। चूँकि गृहस्थ आश्रम में मनुष्य को कई कर्तव्यों का वहां करना पड़ता है, इसीलिए उसके लिए कर्मकांडों को सीखना मन्त्रों को सीखने से कहीं सरल होता था।
  3. वानप्रस्थ आश्रम (५१ वर्ष की आयु से ७५ वर्ष की आयु तक): इस आश्रम में आरण्यक के अध्ययन का विधान था। जैसा कि नाम से ही पता चलता है, आरण्यक का अर्थ ऐसे ग्रंथों से है जिनका अध्ययन वनों में किया जाये। वानप्रस्थ ही एक ऐसा आश्रम है जब व्यक्ति गृहस्थ से निकल कर वन को प्रस्थान करता है। इस आयु तक व्यक्ति को पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो चुका होता है इसीलिए वो आरण्यक का अध्ययन करता था जिसमें मुख्यतः ज्ञान और दर्शन की जानकारी मिलती है।
  4. संन्यास आश्रम (७६ वर्ष की आयु से मृत्यु पर्यन्त): इस आश्रम में उपनिषदों के अध्ययन का विधान था। इस समय ना व्यक्ति पर किसी प्रकार की कोई जिम्मेदारी होती है ना उसे किसी विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है। इसीलिए ये आश्रम मुख्यतः भक्तिभाव से ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उपुक्त माना जाता है। इसीलिए इस समय उपनिषदों का अध्ययन किया जाता था क्यूंकि उसमें मुख्य रूप से अध्यात्म, ईश्वर और मोक्ष इत्यादि का ज्ञान मिलता है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. अति महत्वपूर्ण एवम रोचक जानकारी। इस लेख को पढ़ने के बाद बहुत सी शंकाओ का समाधान हो गया। आपके प्रयास स्तुत्य हैं। सादर अभिवादन

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