विश्वकर्मा

कदाचित ही संसार में कोई ऐसा होगा जो देव विश्वकर्मा के नाम से परिचित नहीं होगा। यदि रचना की बात की जाये तो परमपिता ब्रह्मा के बाद यदि कोई नाम है तो वो विश्वकर्मा ही हैं। अन्य देवताओं से उलट, विश्वकर्मा जी का वर्णन लगभग हर पुराणों में हमें कहीं ना कहीं मिलता है। यहाँ तक कि वैदिक ग्रंथों, विशेषकर ऋग्वेद में उनका विस्तृत वर्णन किया गया है।

ऋग्वेद के १०वें मंडल में उन्हें पृथ्वी, जल, प्राणी अदि का निर्माता कहा गया है। तो जो स्थान पौराणिक ग्रंथों में भगवान ब्रह्मा का है, एक तरह से वैसा ही स्थान उन्हें दिया गया है। वाजसनेय संहिता में उन्हें सर्वद्रष्टा प्रजापति कहा गया है वहीँ शतपथ ब्राह्मण के अनुसार उन्हें विधाता प्रजापति कहा गया है। महाभारत और पुराणों में, जैसा कि हम जानते हैं, विश्वकर्मा को देवशिल्पी और स्वयंभू मनु के मन्वन्तर का शिल्प प्रजापति कहा गया है।

कई स्थानों पर ऐसी भी मान्यता है कि जैसे इंद्र और सप्तर्षि एक पद है और विभिन्न चतुर्युगों और मन्वन्तरों में उस पद पर अलग-अलग व्यक्ति आसीन होते हैं, उसी प्रकार विश्वकर्मा भी एक पद है जिनका वर्णन अनेकों मन्वन्तरों के सन्दर्भ में मिलता है। उनके विषय में जो सबसे प्रारंभिक वर्णन हमें मिलता है वो वैदिक काल में अष्टवसुओं में से एक प्रभास से जुडी है। ये वही प्रभास थे जिन्हे श्राप मिला और वे भीष्म के रूप में पृथ्वी पर जन्में।

प्रभास का विवाह वरस्त्री नामक कन्या से हुई जो देवगुरु बृहस्पति की बहन थी। वरस्त्री ने अनेकों योग साधनायें की और इसी कारण वे योगसिद्धा के नाम से विख्यात हुई। इन्ही दोनों के पुत्र हुए त्वष्टा जो आगे चल कर विश्वकर्मा कहलाये। समय आने पर त्वष्टा का विवाह रचना नाम की कन्या से किया गया जो महान विष्णु भक्त प्रह्लाद की पुत्री थी। कहते हैं कि वे अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते थे। इन दोनों के एक पुत्र थे जिनका नाम था विश्वरूप

जहाँ तक उनके "विश्वकर्मा" नाम की उत्पत्ति का प्रश्न है तो वो परमपिता ब्रह्मा से जुड़ा है। यजुर्वेद में लिखा गया है कि "विश्वम कर्म यस्य सः, सा विश्वकर्मा"। अर्थात सभी कर्म और क्रिया जिसके द्वारा सृजित की गयी हो, उसे विश्वकर्मा कहते हैं। तो ये शब्द एक प्रकार से भगवान ब्रह्मा के लिए ही हैं क्यूंकि वे इस ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ रचियता हैं। कदाचित इसके बाद ही सबसे उत्कृष्ट रचनाकार या शिल्पी को विश्वकर्मा का पद प्राप्त होना आरम्भ हुआ।

विश्वकर्मा को सर्वोच्च कोटि का शिल्पी माना जाता है। कहा जाता है कि ये ज्ञान उन्हें स्वयं परमपिता ब्रह्मा से प्राप्त हुआ और उन्ही की इच्छा से उन्होंने कई नवीन उपकरणों का निर्माण किया। यही नहीं, उन्हें सौर ऊर्जा और उसका विज्ञान का पूर्ण ज्ञान था। इसी का प्रयोग करते हुए उन्होंने भगवान विष्णु के लिए सुदर्शन चक्र, महादेव के लिए त्रिशूल और देवराज इंद्र के लिए विजय नामक रथ का निर्माण किया। उन्होंने "विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र" नामक ग्रन्थ की रचना भी की।

आदिकाल में इन्होने ही भगवान ब्रह्मा के सर्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया था। विश्वकर्मा ने ही इंद्र के लिए इंद्रलोक और सुतल नामक पाताल बनाया। उन्होंने ही प्राचीन राक्षसों के लिए लंका नगरी, हस्तिनापुर और श्रीकृष्ण के लिए द्वारिका नगरी का निर्माण किया। कुबेर का अद्वितीय पुष्पक विमान भी उन्होंने ही बनाया था। इन्होने ही भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह का मंडप, कुबेर की अलकापुरी, शिवलोक, ब्रह्मलोक, इंद्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, सुदामापुरी और अनेकों अन्य पुरियों का निर्माण किया।

देवताओं के अस्त्रों का निर्माण भी उन्होंने ही किया था। साथ ही इन्होने ब्रह्मदेव के एक अस्त्र - कण्डिका का भी निर्माण किया। इंद्र के वज्र, अग्नि का परशु, धर्मराज का दंड और यम का पाश इन्होने ही बनाया था। कहा जाता है कि विश्वकर्मा ने १२००० शिल्प शास्त्रों का निर्माण किया था। जिस मयासुर ने पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ और मयाभावन का निर्माण किया था, वो विश्वकर्मा का ही शिष्य था। कई स्थानों पर इन्हे विश्वकर्मा का पुत्र भी कहा गया है। जिस वानर नल ने भगवान श्रीराम के लिए १०० योजन लम्बे पुल का निर्माण किया था, वे भी विश्वकर्मा का ही पुत्र थे।

विश्वकर्मा और रचना के पुत्र विश्वरूप का एक नाम त्रिशिरा भी था। वे भी अपने पिता की भांति ही योग्य और विद्वान थे। उनका विवाह सूर्य पुत्री विष्टि से हुआ जिनसे उन्हें सुतप नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। कुछ ग्रंथों के अनुसार एक बार जब बृहस्पति ने देवगुरु का पद छोड़ा तो इन्द्रादि देवताओं ने विश्वरूप को ही उस पद पर बिठाया। हालाँकि जब देवासुर संग्राम हुआ तो अपनी माता के दैत्यकुल के होने के कारण विश्वरूप का मन असुरों की ओर अधिक झुकने लगा। जब इंद्र को इस बात का पता चला तो उन्होंने क्रोध में विश्वरूप की हत्या कर दी।

विश्वकर्मा अपने पुत्र की हत्या से अत्यंत दुखी हुए। उन्होंने एक और पुत्र के लिए घोर तप किया और उससे उन्हें वृत्र नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। चूँकि विश्वकर्मा ने उसे क्रोध के भाव से प्राप्त किया था इसीलिए वृत्र भी बहुत क्रोधी निकला और उसने समस्त संसार में त्राहि-त्राहि मचा दी। अपने इस कार्य से वो वृत्रासुर के नाम से विख्यात हुआ। वेदों में वृत्रासुर को त्वष्टा का पुत्र कहा गया है, जो विश्वकर्मा ही हैं। अपने पुत्र के कृत्य को देख कर विश्वकर्मा बड़े दुखी हुए किन्तु वृत्र अब उनके नियंत्रण से बाहर चला गया था।

उधर देवताओं को उनके गुरु ने बताया कि केवल महर्षि दधीचि की अस्थियों से बने अस्त्र से ही वृत्र का वध किया जा सकता है। संसार के कल्याण के लिए महर्षि दधीचि ने अपने शरीर का त्याग कर दिया। अब उनकी अस्थियां तो थी किन्तु देवता ये जानते थे कि उनसे अस्त्र बनाना केवल और केवल विश्वकर्मा के लिए ही संभव है। इंद्र बड़े धर्म संकट में पड़ गए। पहले ही वे उनके एक पुत्र का वध कर चुके थे इसीलिए अब विश्वकर्मा से उनके ही दूसरे पुत्र के वध हेतु अस्त्र बनाने को कैसे कहा जाये?

तब देवगुरु बृहस्पति के नेतृत्व में सभी देवता महर्षि दधीचि की अस्थियों को लेकर विश्वकर्मा के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वृत्रासुर के वध हेतु इन अस्थियों से वो अस्त्र का निर्माण करें। आप समझ सकते हैं कि एक पिता के लिए इससे दुष्कर कार्य क्या हो सकता है किन्तु फिर भी विश्वकर्मा ने संसार के हितों को ही महत्त्व दिया। वे भी जानते थे कि यदि उनका पुत्र जीवित रहा तो ऐसे ही अत्याचार करता रहेगा।

लोक कल्याण के लिए उन्होंने उन अस्थियों से सबसे पहले एक अमोघ वज्र का निर्माण किया जिसे देवराज इंद्र ने धारण किया। फिर बची हुई अस्थियों से उन्होंने अन्य देवताओं के लिए भी अनेक दिव्यास्त्र बनाये। विश्वकर्मा द्वारा बनाये गए वज्र से ही देवराज इंद्र ने उनके ही पुत्र का वध किया। इस प्रकार समाज और संसार के कल्याण के लिए विश्वकर्मा ने सबसे बड़ा त्याग किया।

देवताओं के अस्त्रों के निर्माण के विषय में पद्म पुराण में एक कथा मिलती है कि एक समय भगवान सूर्यनारायण का तेज इतना अधिक था कि उनका दर्शन करना असंभव था। तब ब्रह्मदेव देवताओं को लेकर उनके पास गए और उनसे अपना तेज कम करने को कहा। तब सूर्यदेव ने कहा कि केवल विश्वकर्मा ही उनके तेज को काट-छांट कर कम कर सकते हैं। तब ब्रह्मदेव की आज्ञा से विश्वकर्मा ने सूर्य की किरणों को छांट कर उनके दर्शन सुलभ करवाए। उन्ही छांटी हुई किरणों के तेज से विश्वकर्मा ने देवताओं के लिए विभिन्न आयुधों का निर्माण किया।

स्कन्द पुराण के नागर खंड में विश्वकर्मा के वंश का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार विश्वकर्मा के पांच पुत्र थे -
  1. मनु: ये ब्रह्मपुत्र मनु नहीं हैं। इन्हे लोहे की कला का अधिष्ठाता माना जाता है। इनका विवाह महर्षि अंगिरा की पुत्री कांचना के साथ हुआ। इन्ही के वंश में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख और ब्रह्म ऋषियों का जन्म हुआ।
  2. मय: इन्हे लकड़ी की कला का अधिष्ठाता माना जाता है। इनका विवाह महर्षि पराशर की कन्या सौम्या से हुआ। इन्होने ही इंद्रजाल की रचना की थी।
  3. त्वष्टा: इन्हे ताम्र अर्थात ताम्बे की कला का अधिपति माना जाता है। इनका विवाह ऋषि कौशिक की कन्या जयंती के साथ हुआ।
  4. शिल्पी: इन्हे पत्थर की कला का जनक माना जाता है। इनका विवाह महर्षि भृगु की कन्या करुणा के साथ हुआ।
  5. देवज्ञ: इन्हे स्वर्ण कलाओं का अधिष्ठाता माना जाता है। इनका विवाह महर्षि जैमिनी की कन्या चन्द्रिका के साथ हुआ।
इनके अतिरिक्त विश्वकर्मा की पांच कन्याएं भी बताई गयी हैं - रिद्धि, सिद्धि, ऊर्जस्वती, संज्ञा एवं पद्मा। इनमें से रिद्धि और सिद्धि का विवाह श्रीगणेश के साथ, ऊर्जस्वती का विवाह मनुपुत्र प्रियव्रत के साथ, संज्ञा का विवाह सूर्यदेव के साथ और पद्मा का विवाह शुक्राचार्य के साथ हुआ।

एक अन्य कथा के अनुसार विश्वकर्मा के जन्म की एक अलग कथा मिलती है। इसके अनुसार भगवान नारायण की नाभि से परमपिता ब्रह्मा प्रकट हुए। ब्रह्मा के पुत्र धर्म हुए। धर्म का विवाह वस्तु नामक कन्या से हुआ जिनसे उन्हें वास्तुदेव नाम के पुत्र हुए। वास्तुदेव का विवाह अंगिरसी नाम की कन्या से हुआ जिससे विश्वकर्मा का जन्म हुआ।

पौराणिक काल में विश्वकर्मा के कुल और वंश के वर्णन में थोड़ा अंतर मिलता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अब तक कुल पांच विश्वकर्मा हो चुके हैं, जिन्हे विश्वकर्मा का अवतार भी बताया जाता है:
  1. विराट विश्वकर्मा: ये सृष्टि के रचियता, अर्थात, ब्रह्माजी के ही एक रूप हैं।
  2. भुवन विश्वकर्मा: ये महर्षि अंगिरा के वंश में उत्पन्न हुए थे। ब्रह्मा के मानस पुत्रों और सप्तर्षियों में से एक महर्षि अंगिरा हुए। उनके पांच पुत्र हुए - बृहस्पति, वामदेव, रहुगण, उत्त्थय एवं आपथ। आपथ के चार पुत्र हुए - एकत, द्वित, त्रित और भुवन। इन्ही भुवन के पुत्र विश्वकर्मा हुए।
  3. वसुपुत्र विश्वकर्मा: ये प्रभास और वरस्त्री के पुत्र वही विश्वकर्मा हैं जिनका वर्णन हमने पहले किया।
  4. भृगुवंशी विश्वकर्मा: ये महर्षि भृगु के प्रपौत्र थे। महर्षि भृगु की दो पत्नियां थी - पौलोमी और दिव्या। दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य और शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टाधर हुए। इन्ही त्वष्टाधर के पुत्र हुए त्वष्टा जो विश्वकर्मा कहलाये।
  5. सुधन्वा विश्वकर्मा: ये महर्षि अथर्व के पौत्र थे। महर्षि अथर्व की तीसरी पत्नी से घिष्णु नामक पुत्र हुए और इन्ही के पुत्र हुए सुधन्वा। ये बहुत बड़े शिल्पी थे और मैदिनी कोष में इन्हे ही विश्वकर्मा माना गया है।
इन्ही भगवान विश्वकर्मा के सम्मान में प्रतिवर्ष विश्वकर्मा पूजा मनाई जाती है जो किसी भी कारीगर, अभियंता या तकनीकी क्षेत्र के व्यक्ति का सर्वोच्च पर्व माना जाता है। इस वर्ष ये पर्व १७ सितम्बर को मनाया जाएगा।

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