कबंध

कबंध
कबंध रामायण कालीन एक बहुत ही शक्तिशाली राक्षस था। हालाँकि आम मान्यता है कि रामायण काल के सारे राक्षस रावण के अधीन थे किन्तु वाल्मीकि रामायण में कबंध के बारे में ऐसा कुछ नहीं लिखा गया है। तो आप उसे अपने विवेक के अनुसार रावण के अधीन अथवा एक स्वाधीन राक्षस मान सकते हैं। कबंध की कथा हमें वाल्मीकि रामायण के अरण्य कांड के ६९वें सर्ग में मिलता है, जो सर्ग ७३ में जाकर समाप्त होती है।

रामायण के अरण्यकाण्ड में जब श्रीराम और लक्ष्मण माता सीता के हरण के पश्चात उन्हें खोज रहे थे, उसी समय एक वन में उन दोनों को एक भयानक स्वर सुनाई दिया। उसे सुनकर दोनों भाई हाथ में तलवार लेकर उस स्वर की ओर बढे तो उन्हें एक भयानक राक्षस दिखा। उस राक्षस का ना मस्तक था और ना ही गला। उसका केवल धड़ ही शेष बचा था। इसी कारण उसका नाम कबंध पड़ गया था, अर्थात जिसका केवल धढ़ ही शेष हो।

उस राक्षस के शरीर में तीखे रोयें थे और वो पर्वत के समान ऊँचा था। उसकी छाती में एक बड़ी आंख थी जो ज्वाला के समान दिखाई देती थी। उसका आकर एक कोस का था और उसकी दो विशाल भुजाएं थी जो एक-एक योजन लम्बी थी। उन्ही भुजाओं से वो वन के पशु-पक्षियों को पकड़ लेता था और उन्हें अपना आहार बना लेता था। जब दोनों कबंध के सामने आये, उसने अपनी लम्बी भुजाओं से श्रीराम और लक्ष्मण को पकड़ लिया।

इससे श्रीराम तो व्यथित नहीं हुए किन्तु लक्ष्मण पहले ही माता सीता के हरण से दुखी थे और अब इस प्रकार का संकट आया देख कर वे बड़े दुखी हो गए। उन्होंने निराशा भरे स्वर में श्रीराम से कहा कि "भैया, देखिये मैं इस राक्षस के बंधन में पड़ कर विवश हो गया हूँ। आप मुझे इस राक्षस को भेंट कर अपने बाहुबल से इसके बंधन से मुक्त हो जाइये। मुझे विश्वास है कि आप शीघ्र ही भाभी को प्राप्त कर लेंगे। जब आप वापस लौट कर सिंहासन प्राप्त करेंगे तो मेरा सदा स्मरण करते रहिएगा।"

तब श्रीराम ने लक्ष्मण को ढाढ़स बंधाते हुए कहा - "हे वीर! तुम इस प्रकार निराश ना हो। तुम्हारे जैसे महावीर इस प्रकार विषाद नहीं किया करते।" श्रीराम द्वारा ऐसी बात सुन कर लक्ष्मण ने उत्साहित होते हुए कहा कि "भैया, इस राक्षस का बल इसकी भुजाओं में दीखता है। इससे पहले ये हमें अपना आहार बना ले, हम दोनों को अपनी तलवारों से इसकी भुजाओं को काट डालना चाहिए।"

उन् दोनों को इस प्रकार बोलता देख कर कबंध ने दोनों को खाना चाहा पर उससे पहले ही दोनों भाइयों ने कबंध के दोनों हाथों को काट डाला। श्रीराम ने कबंध की दाहिनी और लक्ष्मण ने उसकी बाईं भुजा काट डाली। भुजाएं कट जाने पर कबंध भूमि पर गिर पड़ा और फिर उसने दोनों से उनका परिचय पूछा। तब लक्ष्मण ने श्रीराम और स्वयं का परिचय कबंध को दिया। ये जानकर कर कि स्वयं श्रीराम वहां आये हैं, कबंध ने प्रसन्न होते हुए कहा कि मेरी दोनों भुजाएं मेरे लिए बंधन थी, अच्छा हुआ आपने इन्हे काट दिया।

ये सुनकर श्रीराम ने आश्चर्य से कबंध का परिचय पूछा। तब उसने अपनी कथा बताई। उसने बताया कि पूर्वकाल में उसका रूप बहुत तेजस्वी था। किन्तु फिर भी जैसे राक्षस ऋषियों को डराया करते थे, उसी प्रकार वो भी उन्हें डराया करता था। एक बार उसने "स्थूलशिरा" नाम के एक ऋषि को कुपित कर दिया जिन्होंने क्रोध से कहा कि चूँकि उसके कार्य राक्षसों वाले हैं इसीलिए वो राक्षस ही बन जाये। उनके श्राप से वो तत्काल राक्षस बन गया। तब भयभीत होकर उसने स्थूलशिरा से क्षमा याचना की। तब उन्होंने कहा कि भविष्य में जब कोई उसकी दोनों भुजाएं काट देगा तब वो इस श्राप से मुक्त हो जाएगा।

फिर कबंध ने आगे बताया कि राक्षस बनने के बाद उसने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की और उनसे दीर्घजीवी होने का वरदान प्राप्त कर लिया। उसी वरदान के अभिमान में उसने देवराज इंद्र पर आक्रमण किया। उस युद्ध में इंद्र ने उस पर १०० धारों वाले महान वज्र से प्रहार किया। उसके भीषण प्रहार से उसका मस्तक और निचला हिस्सा उसके शरीर में ही घुस गया। बाद में कबंध की प्रार्थना पर, और चूँकि उसे ब्रह्मा जी से दीर्घजीवी होने का वरदान प्राप्त था, इसीलिए इंद्र ने उसका वध नहीं किया।

तब उसने इंद्र से कहा कि "हे देव! आपने अपने वज्र की मार से मेरी जांघें, मस्तक मुख सभी तोड़ डाले हैं। अब मैं आहार कैसे करूँगा और उसके बिना दीर्घकाल तक कैसे जीवित रहूँगा?" तब इंद्र ने उसकी भुजाओं को एक-एक योजन लम्बा कर दिया और उसके पेट में ही एक मुख बना दिया। उन्ही भुजाओं और मुख द्वारा कबंध अन्य प्राणियों का शिकार कर जीवित रहने लगा। इन्द्र ने उसे ये भी बताया कि जब भविष्य में श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ आएंगे तभी उसका उद्धार होगा।

तब कबंध ने श्रीराम से कहा कि "आप निश्चित ही श्रीराम ही हैं क्यूंकि मैं और किसी के हाथों से नहीं मारा जा सकता था। मैं स्वयं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था ताकि इस शरीर को त्याग सकूँ। हे प्रभु! जब आप दोनों अपने हाथों से मेरा दाह संस्का कर देंगे तो उस समय मैं अपनी बौद्धिक क्षमता द्वारा आपकी सहायता करूँगा।"

तब श्रीराम ने उससे कहा - "कबंध! मेरी भार्या को रावण हर ले गया है। उसी की खोज में मैं अपने भाई के साथ यहाँ-वहां घूम रहा हूँ। मैंने रावण का केवल नाम सुना है, कभी उसे देखा नहीं। वह कहाँ रहता है, उसका कैसा प्रभाव है इन सब बातों से हम अनभिज्ञ हैं। तुम हमारी सहायता करो फिर हम दोनों एक बड़े गड्ढे में तुम्हारे शरीर को रख कर उसे जला देंगे।"

तब कबंध ने कहा - "हे श्रीराम! इस समय मुझे दिव्य ज्ञान नहीं है इसीलिए मैं आपकी पत्नी के विषय में कुछ भी नहीं जानता। जब मेरे इस शरीर का दाह हो जाएगा और मैं अपने पूर्व रूप को प्राप्त कर लूंगा, तभी आपको किसी ऐसे व्यक्ति का नाम बता सकता हूँ जो आपकी पत्नी के बारे में बता सकेगा। जब तक मेरे इस शरीर का दाह नहीं हो जाता मुझ में यह जानने की शक्ति नहीं आ सकती कि मैं आपको बता सकूँ कि वो महापराक्रमी राक्षस कौन है जिसने आपकी पत्नी का अपहरण किया है।"

कबंध के ऐसा कहने पर श्रीराम और लक्ष्मण ने उसके शरीर को एक गड्ढे में डाल कर उसमें आग लगा दी। तब कबंध तुरंत ही अपने दिव्य रूप में आ गया और एक तेजस्वी विमान पर बैठ गया। उस समय वो अपने तेज से दसो दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था। उसे इस रूप में देख कर श्रीराम और लक्ष्मण को बड़ी प्रसन्नता हुई।

तब कबंध ने कहा - "हे प्रभु! आप उस पुरुष को अपना मित्र बनाइये जो आपकी ही भांति दुर्दशा में पड़ा हो। ऐसा किये बिना आपकी सफलता संभव नहीं है। मैं आपको ऐसे ही एक पुरुष का परिचय दे रहा हूँ, उसका नाम सुग्रीव है। वो जाति के वानर हैं। उन्हें उनके भाई वाली ने कुपित होकर राज्य से बाहर निकाल दिया है। वे उस समय ४ मनस्वी वानरों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करते हैं। इस संसार में राक्षसों के जितने स्थान हैं वो उन सब को जानते हैं। इसीलिए आप शीघ्र ही सुग्रीव के पास जाइये और उन्हें अपना मित्र बनाइये। इस संसार में ऐसा कोई स्थान या वस्तु नहीं है जिनका उन्हें ज्ञान नहीं। वे अवश्य ही आपको पत्नी को खोज निकालेंगे।"

फिर श्रीराम के पूछने पर कबंध ने श्रीराम को ऋष्यमूक पर्वत का मार्ग बताया। उसने ही उन दोनों को महर्षि मातंग के आश्रम में जा कर शबरी से मिलने को कहा। उन्हें सारी बात बताने के बाद कबंध अपने लोक वापस चला गया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।