ये तो हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी को अपनी शक्ति को भूल जाने के श्राप था। इसी कारण जब वानर सेना समुद्र के किनारे खड़ी हो उस पर जाने की योजना बना रही थी तो विभिन्न वानरों ने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार समुद्र पार करने की बात की। उनमें से किसने कितनी दूर जाने की बात की, इसके बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
अंततः ऋक्षराज जांबवंत ने हनुमान जी को उत्साहित किया और उन्हें समुद्र पार करने को कहा। जांबवंत जी के उत्साहित करने पर हनुमान जी को अपनी पूरी शक्ति का ज्ञान हुआ और उस समय उन्होंने समुद्र पार करने का जो भीषण उद्योग किया उसका बड़ा सुन्दर वर्णन वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के ६७वें सर्ग में हमें मिलता है।
जब हनुमान जी समुद्र लंघन को तैयार हुए तो उन्होंने अपना विराट स्वरुप धरा। उनका वो रूप देख कर सारे वानर अति उत्साहित होकर जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उस समय हनुमान जी ने सभी वानरों को उस प्रकार देखा जैसे भगवान वामन ने अपने विराट स्वरुप में समस्त सृष्टि को देखा था। उन सभी का उत्साह देख कर हनुमान जी ने अपने शरीर को और भी बढ़ाना आरम्भ किया और अपनी पूंछ को जोर-जोर से पटकने लगे। उस समय उनका मुख साक्षात् अग्नि की भांति दिख रहा था।
फिर महाबली हनुमान सभी वानरों के बीच में खड़े हो गए और उन्होंने कहा - "आकाश में विचरने वाले वायुदेव बड़े बलवान हैं और उनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं हैं। अग्निदेव के सखा वायुदेव अपने वेग से बड़े-बड़े पर्वत शिखरों को भी तोड़ डालते हैं। अद्वितीय वेग से चलने वाले उन वायुदेवता का मैं औरस पुत्र हूँ और छलांग मारने में उन्ही के समान हूँ।"
"कई सहत्र योजन तक फैले हुए महामेरु पर्वत, जो आकाश के बहुत बड़े भाग को ढंके हुए हैं, उनकी मैं बिना विश्राम किये सहस्त्रों बार परिक्रमा कर सकता हूँ। अपनी इन भुजाओं के वेग से मैं समुद्र को भी रोक कर उसके जल से पर्वत, नदी और जलाशयों सहित इस पूरे संसार को जलमग्न कर सकता हूँ। वरुण देव का निवास स्थान ये महासागर भी मेरे वेग से विक्षुब्ध हो जाएगा और इसके भीतर रहने वाले प्राणी ऊपर आ जाएंगे।"
"जिन गरुड़ की समस्त पक्षी सेवा करते हैं, यदि वे भी आकाश में उड़ते हों तो मैं हजारों बार उनकी भी परिक्रमा कर सकता हूँ। उदयाचल से चलकर मैं अपने सूर्यदेव को अस्त होने से पहले ही छू सकता हूँ और वहां से पृथ्वी पर वापस आकर यहाँ पैर रखे बिना ही पुनः भयंकर वेग से उनके पास जा सकता हूँ। मैं आकाशचारी समस्त ग्रह-नक्षत्र आदि को लाँघ कर आगे बढ़ जाने का उत्साह रखता हूँ।"
"मैं चाहूँ तो समुद्रों को सोख लूंगा, पृथ्वी को विदीर्ण कर दूंगा और कूद-कूद कर पर्वतों को चूर-चूर कर डालूंगा, क्यूंकि मैं दूर तक छलांग मारने वाला वानर हूँ। अपने महान वेग से इस महासागर को लांघता हुआ मैं अवश्य ही इसके पार पहुँच जाऊंगा। आज मेरे वेग से वृक्ष और लताएं भी मेरे साथ आकाश में उड़ते जाएंगे। आज समस्त प्राणी मुझे भयंकर वेग से आकाश में ऊपर जाते और नीचे उतारते हुए देखेंगे।"
"तुम लोग देखोगे कि मैं महगिरि मेरु के समान विशाल शरीर धारण करके स्वर्ग को ढकता और आकाश को निगलता हुआ सा आगे बढूंगा। मैं मेघों को छिन्न-भिन्न कर दूंगा, पर्वतों को हिला दूंगा और समुद्र को भी सुखा दूंगा। इस समुद्र को लांघने की शक्ति केवल गरुड़, वायुदेव या मुझमे ही है। पक्षीराज गरुड़ और वायु देवता के अतिरिक्त मैं किसी और को नहीं देखता जो मेरे वेग की तुलना कर सके।"
"मेघ से उत्पन्न विद्युत की भांति मैं पलक झपकते ही आकाश में उड़ जाऊंगा। इस समुद्र को लांघते हुए मेरा वही रूप प्रकट होगा जो तीनों लोकों को नापते हुए वामनरूपधारी भगवान विष्णु का हुआ था। मुझे निश्चय ही जान पड़ता है कि मैं विदेहकुमारी का दर्शन करूँगा अतः तुम सब अब प्रसन्न हो जाओ।"
"वेग में मैं वायुदेव और गरुड़ के समान हूँ और मेरा ऐसा विश्वास है कि इस समय मैं १०० योजन तो क्या, १०००० योजन तक भी जा सकता हूँ। औरों की क्या बात है, वज्रधारी इंद्र और स्वयंभू ब्रह्माजी के हाथ से भी मैं बलपूर्वक अमृत छीनकर यहाँ ला सकता हूँ। पूरी लंका को भी भूमि से उखाड़ कर अपने हाथों में उठाये मैं चल सकता हूँ, ऐसा मेरा विश्वास है।"
उनकी बातें सुनकर सभी वानर चकित हो उन्हें देखने लगे और जामवंत जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा - "केसरी के पुत्र! तुमने हमारा महान शोक नष्ट कर दिया है। तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिए हम सभी तुम्हारे लिए स्वस्तिवाचन का अनुष्ठान करेंगे। अब तुम इस महासागर के पार जाओ। जब तक तुम लौट कर आओगे, हम लोग तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे। अब हम लोगों का जीवन तुम्हारे ही अधीन है।"
तब हनुमान जी ने पुनः कहा - "जब मैं यहाँ से छलांग मरूंगा, उस समय संसार में कोई मेरे वेग को धारण नहीं कर सकेगा। केवल इस महान महेंद्र पर्वत को ही स्थिर मानता हूँ इसीलिए इसी के शिखरों पर पैर रख कर मैं यहाँ से छलांग मरूंगा। केवल ये महेंद्र पर्वत ही हैं जो मेरे वेग को धारण कर सकते हैं।" ये कह कर हनुमान जी उस महान महेंद्र पर्वत पर चढ़ गए।
महान शिखरों से युक्त उस पर्वत पर हनुमान जी इधर-उधर घूमने लगे। इससे उसके शिखर इधर-उधर बिखर गए। उनके भार से उस पर्वत से नए झरने फूट पड़े। वहां रहने वाले जीव-जंतु भय से थर्रा उठे। बड़े-बड़े वृक्ष अपनी जडों से उखड गए। उस पर्वत पर रहने वाले गन्धर्व और विद्याधर आदि असंख्य पक्षियों के साथ आकाश में उड़ गए। सर्प बिल में छिप गए और पर्वत से बड़ी-बड़ी शिलायें टूट कर गिरने लगी। भय से घबराये ऋषि-मुनि भी उस पर्वत को छोड़ने लगे।
फिर हनुमान जी ने मन ही मन लंका का स्मरण किया। उन्होंने सूर्य, इंद्र, पवन और ब्रह्मा को हाथ जोड़ कर नमन किया। उन्होंने अपने शरीर को बहुत बढ़ा कर अपनी दोनों भुजाओं और चरणों से उस पर्वत को दबाया। इससे महेंद्र पर्वत सूखे पत्ते की भांति कांप उठा और उसकी विशाल शिलायें गिरने लगी। उस पर्वत पर रहने वाले महाभयंकर नाग क्रोध में आकर उन शिलाओं को डसने लगे जिससे वो शिलायें जलने लगीं।
सभी विद्याधर, गन्धर्व और उनकी पत्नियां और अन्य सिद्ध लोग आकाश में स्थित होकर हनुमानजी का ये अद्भुत कर्म देखने लगे। तब हनुमान जी ने अपने शरीर के रोयें झाड़े और महान गर्जना की। उन्होंने पहले अपनी पूछ को आकाश में फेंका और फिर अपनी भुजाओं को पर्वत पर जमाते हुए अपने विशाल शरीर को सिकोड़ लिया।
उन्होंने आकाश की ओर देखते हुए अपने प्राणों को ह्रदय में रोका और वानरों से कहा कि "जिस वेग से श्रीराम का बाण चलता है, मैं भी रावण द्वारा पालित लंकापुरी को चलता हूँ। यदि मैं जनकनन्दिनी सीता को लंका में ना ढूंढ पाया तो इसी वेग से मैं स्वर्गलोक जाऊंगा और वहां उनकी खोज करूँगा। आज या तो मैं माता सीता के दर्शन करूँगा नहीं तो रावण सहित लंका को ही उखाड़ कर ले आऊंगा।"
ऐसा कहकर हनुमान जी ने स्वयं को गरुड़ समझते हुए ही महान वेग से ऊपर की ओर छलांग मारी। उनका वेग ऐसा था कि महेंद्र पर्वत पृथ्वी में धंस गया और पर्वत के सारे वृक्ष अपनी जड़ों सहित उखड कर उनके साथ आकाश की ओर उड़ने लगे। उनमें से जो वृक्ष भारी थे वे थोड़ी देर में समुद्र में गिर कर डूब गए। बांकी वृक्ष भी जैसे जैसे हनुमान जी के वेग से मुक्त होते जाते, समुद्र में गिरते जाते थे। महापराक्रमी हनुमान आकाश में उड़ती हुई किसी उल्का की भांति दिखाई देते थे। उस समय उनके उस विशाल शरीर की छाया दस योजन चौड़ी और तीस योजन लम्बी थी।
इस प्रकार रामायण में दिए गए इस वर्णन से हम सबको महाबली हनुमान की अपार शक्ति का थोड़ा सा अंदाजा मिलता है। हालाँकि जिन्हे स्वयं श्रीराम ने अतुलित बलधाम कहा हो उनके बल की भला क्या सीमा हो सकती है। जय श्रीराम।
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