वानरराज वाली रामायण के एक मुख्य पात्र हैं। आज हमें इंटरनेट पर यहाँ-वहाँ वाली के बारे में कई आश्चर्यजनक बातें पता चलती है किन्तु आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि उनमें से अधिकतर चीजों का मूल रामायण से कोई लेना देना नहीं है। पहली बात तो ये कि वानरराज वाली के बारे में कोई भी विस्तृत वर्णन हमें रामायण में मिलता ही नहीं। रामायण में उनका बड़ा संक्षिप्त वर्णन दिया गया है।
वाली के बारे में सबसे पहला वर्णन वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के चौथे सर्ग में आता है जहाँ हनुमान जी श्रीराम और लक्ष्मण से मिलते हैं और उन्हें बताते हैं कि किस प्रकार वाली ने अपने भाई सुग्रीव को राज्य से निकाल दिया है। इसके अतिरिक्त वाली के बारे में जितनी भी जानकारी हैं वो हमें केवल किष्किंधा कांड में ही मिलता है। इसके अतिरिक्त रामायण के प्रक्षिप्त उत्तर कांड में भी हमें वाली के विषय में थोड़ा वर्णन मिलता है।
जब श्रीराम और सुग्रीव में मित्रता होती है तब सुग्रीव उन्हें बताते हैं कि वाली ने उन्हें घर से निकाल दिया है और उसी के भय से वो ऋष्यमूक पर्वत पर रहते हैं। तब श्रीराम सुग्रीव की सहायता के लिए वाली के वध की प्रतिज्ञा कर लेते हैं। तब सुग्रीव उन्हें बताते हैं कि वाली ने ना केवल उन्हें युवराज पद से नीचे उतारकर उन्हें राज्य से बाहर कर दिया, बल्कि उसने सुग्रीव की पत्नी को भी उनसे छीन लिया और उनके सारे समर्थकों को कैद में डाल दिया।
सुग्रीव ने श्रीराम को बताया कि वाली उन्हें ढूंढने के लिए अपने कई सैनिक यहाँ भेजता रहता है और वे अब तक वाली के द्वारा भेजे गए कई वानरों का वध कर चुके हैं। तब श्रीराम उनसे पूछते हैं कि उन दोनों भाइयों के बीच के वैर का कारण क्या है? इस पर सुग्रीव उन्हें अपने और वाली के बारे में बताते हैं।
सुग्रीव ने बताया कि "हे श्रीराम! वाली मेरे बड़े भाई हैं और उनमें शत्रुओं का संहार करने की शक्ति है। मेरे पिता ऋक्षरजा वाली को बहुत मानते थे और मैं भी उनका बहुत आदर करता था। हमारे पिता की मृत्यु के बाद सभी मंत्रियों ने मिलकर वाली को वानरों का राजा बनाया। वे इस विशाल साम्राज्य पर शासन करने लगे और मैं विनीत भाव से उनकी सेवा करने लगा।"
"उन दिनों मायावी नाम का एक विकट दानव था जो मय दानव का पुत्र और दुदुम्भी नाम के दानव का बड़ा भाई था। एक दिन आधी रात में मायावी किष्किन्धापुरी में आया और वाली को युद्ध के लिए ललकारने लगा। उसकी ललकार सुनकर वाली उसी समय उससे लड़ने चल पड़े किन्तु मैंने और अंतःपुर की स्त्रियों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया। किन्तु वाली ने किसी की ना सुनी और मायावी से लड़ने बाहर निकल गया। स्नेहवश मैं भी उसके पीछे-पीछे गया।"
"जब मायावी ने वाली और सुग्रीव को एक साथ देखा तो भय के मारे वहां से भाग चला। इस पर हम दोनों भाई ने उसका पीछा किया। वो असुर आगे जाकर एक बड़े बिल में छिप गया। तब वहां पहुँच कर वाली ने मुझसे कहा कि मैं इस बिल में प्रवेश कर इस दानव को मार गिराता हूँ। तब तक तुम यही द्वार पर सावधानी से खड़े रहो। मैंने उनके साथ चलने की प्रार्थना की किन्तु वाली ने अकेले ही उस बिल में प्रवेश किया।"
"फिर मैं सावधानी से उस द्वार की रक्षा करने लगा और वाली को उस बिल में गए हुए १ वर्ष से अधिक समय बीत गया। कुछ समय बाद उस बिल से सहसा रक्त की धारा बहने लगी। उसी के साथ अनेकों असुरों की गर्जना मेरे कानों में पड़ी। ये सब देख कर मुझे लगा कि मेरे भाई मारे गए हैं। तब मैंने उस गुफा के द्वार पर पर्वत के समान एक शिला रख दी और अपने भाई को जलांजलि देकर मैं शोक से व्याकुल हो किष्किन्धापुरी लौट आया। वहां वाली के मारे जाने का समाचार सुनकर मंत्रियों ने मेरा राज्याभिषेक कर दिया।"
"हे रघुनन्दन! मैं न्यायपूर्वक राज्य का सञ्चालन कर रहा था कि उसी समय मायावी को मार कर वाली घर लौट आये। मुझे राजसिंहासन पर बैठा देख कर उनके क्रोध की सीमा ना रही। मैंने उनके चरणों पर सर नवाया तो उन्होंने मुझे प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वाद नहीं दिया। तब मैंने अपना राजमुकुट उनके चरणों में रख दिया किन्तु इससे भी वाली मुझसे प्रसन्न ना हुए।"
"मैंने उन्हें सब सच बताया कि किस प्रकार मैं १ वर्ष तक उस गुफा के द्वार पर खड़ा रहा और उससे बहते हुए रक्त को देख कर वापस लौट आया। फिर यहाँ मंत्रियों ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा राज्याभिषेक कर दिया। पर वाली ने मुझे धिक्कारते हुए सभी मंत्रियों से कहा कि जब मैं मायावी को खोजते हुए उस गुफा में घुसा तब उसे ढूंढने में ही १ वर्ष बीत गया। फिर एक दिन मुझे वो असुर अपने भाई-बंधुओं के साथ दिखा और मैंने तत्काल उसका उन सबके साथ वध कर दिया। उन्ही के सख्त से वो गुफा भर गयी।"
फिर वाली ने आगे कहा - "किन्तु जब मैं उसका वध कर वापस आया तब मुझे गुफा का द्वार बंद दिखा। मैंने बार-बार सुग्रीव को पुकारा किन्तु मुझे कोई उत्तर ना मिला। तब मैंने उस पत्थर को धकेल कर गुफा से बाहर निकलकर किसी प्रकार यहाँ पहुंचा हूँ। मेरे इस क्रूर भाई ने मुझे मृत्यु के मुख में धकेल कर इस राज्य को अपने अधीन कर लिया है।"
सुग्रीव ने आगे कहा "हे श्रीराम! वाली ने फिर मुझे घर से निकाल दिया। साथ ही उसने मेरी स्त्री को भी मुझसे छीन लिया। उस भय से मैं पूरी पृथ्वी पर मारा-मारा फिरता रहा और फिर इस ऋष्यमूक पर्वत पर चला आया क्यूंकि एक विशेष कारणवश वाली यहाँ नहीं आ सकता।" ये सुनकर श्रीराम ने सुग्रीव को सांत्वना दी और कहा कि वो शीघ्र ही वाली का वध कर देंगे।
इस पर सुग्रीव ने कहा कि - "हे श्रीराम! निश्चय ही आपके बाण अमोघ हैं किन्तु फिर भी वाली का जो पुरुषार्थ है उसे सुन लें और फिर जैसा उचित हो वैसा करें। वाली सूर्योदय के पहले ही पश्चिम समुद्र से पूर्व समुद्र तक और दक्षिण सागर से उत्तर सागर तक घूम आता है, फिर भी वो थकता नहीं है। वो इतना पराक्रमी है कि पर्वतों पर चढ़ कर बड़े-बड़े शिखरों को उठा लेता है और उन्हें ऊपर उठा कर फिर से अपनी भुजाओं से उसे थाम लेता है। वनों में विशाल वृक्षों को वाली बात ही बात में तोड़ डालता है।"
"पूर्वकाल में दुदुम्भी नामक एक असुर था जो भैंसे को रूप में रहता था। उसकी उचाई कैलाश पर्वत जैसी थी और उसके शरीर में १००० हाथियों का बल था। उसी बल के घमंड में वो सबसे पहले समुद्र से युद्ध करने के लिए गया किन्तु समुद्र ने उसे हिमालय के पास भेज दिया। जब उसने हिमालय के पास पहुंच कर उन्हें युद्ध के लिए ललकारा तब हिमालय ने भी उससे युद्ध करने से मना कर दिया और उसे वाली के पास जाने को कहा।"
"तब दुदुम्भी किष्किन्धापुरी पहुंचा और वाली को युद्ध के लिए ललकारने लगा। जब वाली वहां आया तब दुदुम्भी ने उससे कहा कि तुम इस किष्किन्धापुरी को अंतिम बार देख लो। अपने अंतःपुर में जाकर अपनी स्त्री और पुत्रों से मिल लो। मैं आज भर अपने क्रोध को रोकूंगा और कल तुमसे युद्ध कर तुम्हारा वध कर डालूंगा। इसीलिए आज की रात तुम अपने बंधु-बांधवों के साथ बिताओ।"
"उसकी ऐसी बात सुनकर वाली ने हँसते हुए अपने पिता इंद्र द्वारा दी गयी एक स्वर्णमाला को पहना और दुदुम्भी से युद्ध के लिए खड़ा हो गया। उसने दुदुम्भी के दोनों सींग पकड़कर उसे कई बार घुमाया और उसे भूमि पर दे मारा। फिर दोनों में घोर युद्ध होने लगा और वाली उस असुर पर भयानक प्रहार करने लगा। इससे उस दानव की शक्ति घटने लगी और वाली की शक्ति बढ़ने लगी। अंत में वाली ने दुदुम्भी को पृथ्वी पर पटक कर अपने शरीर से उसे दबा डाला जिससे वो असुर रक्त वमन करता हुआ मर गया।"
"इसके बाद वाली ने उसके विशाल शरीर को अपने हाथों पर उठा कर साधारण बल से ही १ योजन दूर फेंक दिया। उसी असुर के मृत शरीर से निकली रक्त की बूंदें मातंग मुनि के आश्रम में गिरी। इससे महर्षि मातंग बड़े क्रोधित हुए और उन्होंने ये श्राप दे दिया कि जिसने भी इस असुर का शव यहाँ फेंका है वो यदि मेरे आश्रम के एक योजन की भूमि पर पैर भी रखेगा तो अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। उस वानर के मित्र और सचिव भी तत्काल इस स्थान को त्याग दें। आज भर मैं उन्हें वापस जाने का समय देता हूँ। कल से यदि उसका कोई भी मित्र यहाँ दिखेगा तो वो सहस्त्र वर्ष तक पत्थर का हो जाएगा।"
"महर्षि मातंग का ऐसा श्राप सुनकर वहां आस-पास रहने वाले सभी वानर भय से किष्किंधा नगरी लौटे और वाली को उनके श्राप के विषय में बताया। तब वाली तत्काल महर्षि मातंग के पास गया और उनसे क्षमा याचना करने लगा किन्तु महर्षि ने उसे क्षमा नहीं किया। तब से वाली कभी भी इस पर्वत के आस-पास नहीं आता है और मैं शांति से यहाँ अपने मंत्रियों के साथ रहता हूँ।"
ये कहते हुए सुग्रीव श्रीराम को दुंदुभि की अस्थियों के ढेर के पास ले गए और उनसे कहा - "ये उसी दुदुम्भी की हड्डियों का ढेर है जो एक पर्वत की भांति दिखाई देता है जिसे वाली ने इतनी दूर फेंका था। साथ ही ये साल के ७ वृक्ष हैं जिनमें से एक-एक को वाली अपने बल से हिला कर पत्रहीन कर सकता है। ये वाली के बल का वर्णन मैंने आपसे किया, अब आप बताइये कि आप उसे समरांगण में कैसे मार सकेंगे।?"
सुग्रीव की ऐसी बात सुनकर लक्ष्मण को बड़ी हंसी आयी। उन्होंने सुग्रीव से पूछा कि आप बताइये कि कौन सा कार्य कर देने पर आपको ये विश्वास होगा कि श्रीराम वाली का वध कर सकते हैं। तब सुग्रीव ने कहा - "पूर्वकाल में वाली इन सभी वृक्षों को एक-एक कर कई बार बींध डाला है। यदि श्रीराम इन ७ में से किसी भी एक वृक्ष को अपने बाण से भेद देंगे तो मुझे इस बात का विश्वास हो जाएगा कि ये वाली का वध कर सकते हैं। लक्ष्मण! यदि श्रीराम इस महिषरूपधारी दुदुम्भी की हड्डियों को एक पैर से उठा कर केवल दो सौ धनुष की दुरी पर भी फेंक सके तो मुझे वाली के मारे जाने का विश्वास हो जाएगा।"
सुग्रीव ने आगे श्रीराम से कहा - "प्रभु! मैं आपकी तुलना वाली से नहीं करता और ना ही आपको डराने का प्रयास करता हूँ किन्तु वाली को जीतना किसी के लिए भी संभव नहीं है। उसने ऐसे-ऐसे कर्म किये है हैं जो देवताओं के लिए भी दुष्कर हैं। मैंने अपने भाई के अद्भुत कर्म तो देखे हैं किन्तु आपका पराक्रम प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा। इसी से मेरे ह्रदय में कातरता उत्पन्न हो गयी है।"
तब श्रीराम ने हँसते हुए खेल खेल में ही दुदुम्भी के शरीर की अस्थियों को अपने पैर के अंगूठे से टाँग लिया और उसे १० योजन दूर फेंक दिया। तब सुग्रीव ने कहा कि "जब मेरे भाई ने इसे फेंका था तब ये भारी था पर आज केवल अस्थियों एक होने के कारण ये हल्का है। इसीलिए मेरी शंका मिटी नहीं है। अतः आप इन सातों में से किसी एक वृक्ष का भेदन कर दें तो मुझे विश्वास हो जाएगा।"
तब श्रीराम ने अपने विकट धनुष को हाथ में लिया और एक अमोघ बाण उन वृक्षों की ओर छोड़ा। श्रीराम द्वारा छोड़ा गया वो बाण उन सातों सालवृक्षों को एक साथ ही बींधता हुआ पृथ्वी के सातों तलों को छेदता हुआ पाताल में चला गया। फिर तुरंत ही वो बाण पुनः पाताल से निकल कर श्रीराम के तरकस में आ गया। उनका ऐसा पराक्रम देख कर सुग्रीव को बड़ा विस्मय हुआ और उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई।
फिर श्रीराम ने सुग्रीव को वाली को युद्ध के लिए ललकारने को कहा। उनकी आज्ञा पाकर सुग्रीव किष्किन्धापुरी पहुंचे और वाली को युद्ध के लिए ललकारने लगे। सुग्रीव की चुनौती सुन कर वाली तत्काल बाहर आये और दोनों में घोर युद्ध आरम्भ हुआ। उधर श्रीराम ने देखा कि दोनों अश्विनीकुमारों की भांति एक से दीखते हैं इसीलिए किसपर बाण चलाएं, श्रीराम इसका निश्चय ना कर सके।
उधर वाली ने सुग्रीव को परास्त कर दिया और सुग्रीव अपने प्राण बचाने के लिए वन में चले गए। श्राप के डर से वाली ने उनका पीछा नहीं किया। जब श्रीराम सुग्रीव के पास पहुंचे तो उन्होंने श्रीराम से कहा कि आपने अच्छी मित्रता निभाई। तब श्रीराम ने अपने बाण ना चलाने का कारण बताया। फिर लक्ष्मण ने सुग्रीव को कमलपुष्प की एक माला पहनाई ताकि श्रीराम उसे पहचान सकें और फिर सुग्रीव पुनः वाली को ललकारते हुए किष्किन्धापुरी पहुंचे।
जब वाली ने पुनः सुग्रीव को आया देखा तो क्रोध से युद्ध के लिए चले पर उनकी पत्नी तारा ने उन्हें समझाया कि सुग्रीव का इस प्रकार तुरंत लौट आने के पीछे अवश्य कुछ रहस्य है। अंगद ने मुझे बताया है कि सुग्रीव को अयोध्या के राजकुमारों का सहयोग मिला है। तब वाली ने कहा कि यदि सुग्रीव को कोई सहायता मिली भी है तो भी तुम्हे चिंता नहीं करनी चाहिए। अब तुम जाओ, मैं सुग्रीव का सामना अवश्य करूंगा। मैं उसके घमंड को चूर-चूर कर दूंगा किन्तु उसके प्राण नहीं लूंगा।
फिर वाली बाहर निकले और सुग्रीव से घोर युद्ध करने लगे। जल्द ही सुग्रीव युद्ध में कमजोर पड़ने लगे और श्रीराम की सहायता के लिए इधर-उधर देखने लगे। तब श्रीराम ने उसी अमोध बाण को वाली पर चलाया जो उसके वक्षस्थल पर लगा और वाली भूमि पर गिर पड़ा। जब उसने श्रीराम को देखा तो उसने कहा कि किस कारण उन्होंने उसपर प्रहार किया क्यूंकि उनसे तो उसकी कोई शत्रुता नहीं है। यदि आप कहते तो मैं एक ही दिन में आपकी पत्नी को ढूंढ़ कर आपको सौंप देता। फिर क्या कारण है कि आपको सुग्रीव प्रिय हो गया और आपने मेरा वध कर दिया।
तब श्रीराम ने उसे उसके पापों के विषय में बताया जिससे वाली को बड़ी लज्जा आई। उसी समय तारा अंगद के साथ वहां आई और विलाप करने लगी। रामायण में तारा के विलाप का बड़ा विस्तृत और करुण वर्णन दिया गया है।तब वाली ने श्रीराम से कहा कि के मेरा पुत्र अंगद मुझे संसार में सबसे अधिक प्रिय है। अतः मैं इसे आपके संरक्षण में छोड़ता हूँ। फिर नील ने वाली के वक्ष से उस बाण को निकाला जिसके बाद वाली ने प्राण त्याग दिए। बाद में सुग्रीव वानरों के राजा और अंगद युवराज बने।
इसके अतिरिक्त वाली का वर्णन उत्तर कांड के ३४वें सर्ग में रावण की कथा में मिलता है। इस कथा के अनुसार रावण ने किष्किन्धापुरी पहुँच कर वाली को युद्ध के लिए ललकारा। तब सुग्रीव ने उसे बताया कि वाली इस समय दक्षिणी समुद्र गए हुए हैं। तब रावण तत्काल पुष्पक विमान पर बैठ कर दक्षिणी समुद्र पर पहुंचा और वहां उसने सूर्य को अर्घ देते हुए वाली को देखा।
तब रावण उन्हें पकड़ने के लिए उनकी ओर बढ़ा पर वाली ने रावण को अपनी कांख में दबा लिया और उसे लिए हुए ही शेष तीनों सागरों तक घूम आये। फिर रावण को उसी प्रकार अपनी कांख में दबाये वाली किष्किंधा वापस आये और वहां उन्होंने रावण को छोड़ा। तब रावण अपनी पराजय से बड़ा लज्जित हुआ और उसने वाली से मित्रता कर ली और एक माह तक किष्किंधा में रहने के बाद वो लंका लौट गया।
तो रामायण में इंद्रपुत्र वाली के विषय में इतना ही वर्णन दिया गया है। आज वाली के विषय में जो अन्य कथाएं हमें मिलती है वो सब या तो गलत है या फिर केवल दंतकथाएं हैं। विशेषकर ये कथा कि जो भी वाली से लड़ता था उसका आधा बल वाली के अंदर आ जाता था। ये बिलकुल गलत है और ऐसा कोई भी वर्णन कहीं भी वाल्मीकि रामायण में नहीं दिया गया है।
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