महाराज दुष्यंत और शकुंतला की कथा तो हम सभी जानते ही हैं। हालाँकि यदि मैं कहूं कि इनकी वास्तविक कथा आज बहुत ही कम लोग जानते होंगे, तो आपको बड़ा आश्चर्य होगा। वो इसीलिए क्यूंकि ये हिन्दू धर्म की सबसे प्रसिद्ध कथाओं में से एक है। लेकिन मेरा विश्वास कीजिये कि आपमें से बहुत ही कम लोग होंगे जिन्हे वास्तव में इन दोनों की सही कथा के विषय में पता होगा। तो सबसे पहले जो कथा जनमानस में प्रसिद्ध है उसे संक्षेप में जान लेते हैं।
इस कथा के अनुसार शकुंतला महर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री थी। माता पिता द्वारा त्यागे जाने के बाद महर्षि कण्व ने उसका पालन-पोषण किया। उस समय आर्यावर्त के राजा थे महाराज दुष्यंत। एक दिन दुष्यंत शिकार खेलते हुए महर्षि कण्व के आश्रम में आये जहाँ उनकी भेंट शकुंतला से हुई। उस समय महर्षि कण्व आश्रम पर नहीं थे। शकुंतला का अद्वितीय रूप देख कर महाराज दुष्यंत ने उनसे विवाह का प्रस्ताव दिया। हालाँकि अपने पिता की आज्ञा लिए बिना शकुंतला ने विवाह से मना कर दिया किन्तु महाराज दुष्यंत के बार-बार अनुरोध करने पर और उनका पूरा परिचय पाकर शकुंतला ने हामी भर दी और दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया।
कुछ समय शकुंतला के साथ उस आश्रम पर रह कर महाराज दुष्यंत वापस लौट गए। उन्होंने शकुंतला को वचन दिया कि वे शीघ्र ही आकर उसे ले जाएंगे। साथ ही उन्होंने अपनी एक अंगूठी निशानी के रूप में दी। उनके जाने के बाद जब कण्व महर्षि लौटे तो उन्हें सच का पता चला। उन्होंने उस विवाह को अपनी सहमति दे दी। समय बीता और शकुंतला गर्भवती हो गयी। वो दिन रात महाराज दुष्यंत के विषय में ही सोचा करती थी। एक दिन महर्षि दुर्वासा वहां आये और शकुंतला को देख कर उसे आवाज दी। किन्तु शकुंतला उस समय महाराज दुष्यंत की याद में खोई हुई थी इसीलिए महर्षि दुर्वासा के बार बार पुकारने पर भी उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
तब क्रोधित होकर महर्षि दुर्वासा ने उसे श्राप दे दिया कि जिसकी याद में उसने उनकी अवहेलना की है, वही उसे भूल जाएगा। तब शकुंतला ने उनसे क्षमा याचना की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने कहा कि जब वो अपनी कोई निशानी देख लेगा तो उसे सब कुछ याद आ जाएगा। इसके बाद महर्षि कण्व ने ये सोच कर कि महाराज दुष्यंत अभी तक नहीं आये हैं, शकुंतला को अपने कुछ शिष्यों के साथ दुष्यंत के पास भेजा। शकुंतला ने महाराज दुष्यंत की वो अंगूठी पास में रख ली ताकि यदि वे महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण उसे भूल गए हों तो उस अंगूठी को देख कर उन्हें सब याद आ जाए।
लेकिन मार्ग में नदी में उसकी अंगूठी गिर गयी जिसे एक मछली ने निगल लिया। उधर जब शकुंतला महाराज दुष्यंत के पास पहुंची तो महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण उन्होंने उसे पहचाने से इंकार कर दिया। जब शकुंतला ने उन्हें अंगूठी दिखानी चाही तब उसे पता चला कि वो तो कहीं गिर गयी है। निराश होकर शकुंतला वापस महर्षि कण्व के आश्रम लौट आयी और वहां उसने एक बालक को जन्म दिया जिसका नाम भरत रखा गया।
उधर मछुवारों ने उस मछली को पकड़ लिया जिसने शकुंतला की अंगूठी निगली थी। उसे पकाकर महाराज को परोसा गया और तभी उसके पेट से वो अंगूठी निकली। उसे देखकर तत्काल महाराज दुष्यंत को सब याद आ गया और वे तुरंत महर्षि कण्व के आश्रम पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक बालक अपनी शक्ति से एक सिंह पर सवारी कर रहा है। वे समझ गए कि वो उन्ही का पुत्र है। फिर वे महर्षि कण्व से मिले और उनकी आज्ञा से शकुंतला और भरत को लेकर अपने राज्य लौट गए।
तो संक्षेप में ये वो कथा है जो हम सभी को पता है। किन्तु यदि आप वास्तविक कथा पढ़ेंगे तो उसमें महर्षि दुर्वासा का कहीं कोई वर्णन नहीं है। साथ ही उस कथा के अनुसार शकुंतला अपने गर्भावस्था में नहीं बल्कि भरत के जन्म के १२ वर्षों के पश्चात दुष्यंत से मिलने गयी थी। महाराज दुष्यंत और शकुंतला की मूल कथा हमें व्यास महाभारत के आदिपर्व में मिलता है। यहाँ वो सारी चीजें समान ही है कि कैसे महाराज दुष्यंत शकुंतला से मिले और दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया। किन्तु उसके बाद की कथा में भारी अंतर है।
महाभारत के अनुसार महाराज दुष्यंत शकुंतला को वापस आने का वचन देकर अपने राज्य लौट गए। इस कथा में किसी भी अंगूठी का वर्णन नहीं है। कुछ काल बाद शकुंतला गर्भवती हो गयी और तीन वर्षों तक अपने गर्भ को धारण करने के बाद उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। उस समय स्वयं देवराज इंद्र वहां आये और उन्होंने भविष्यवाणी की कि ये बालक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और १०० अश्ववमेघ यज्ञ करेगा। ६ वर्ष की आयु में ही वो बालक सिंह, व्याघ्र और हाथियों को अपने हाथों से खींचकर वृक्षों में बांध देता था इसीलिए महर्षि कण्व ने उसका नाम सर्वदमन रखा।
जब वो बालक १२ वर्ष का हुआ तब महर्षि कण्व ने उसे सभी वेद-वेदांगों का अध्ययन करवा दिया। उस समय तक भी जब महाराज दुष्यंत वापस नहीं आये तो महर्षि कण्व ने शकुंतला को अपने शिष्यों के साथ महाराज दुष्यंत के पास भेजा। इस प्रसंग में महर्षि दुर्वासा का कहीं कोई वर्णन नहीं है। तब सभी ऋषि शकुंतला और उसके पुत्र सर्वदमन को लेकर महाराज दुष्यंत की सभा में पहुंचे और वहां शकुंतला ने दुष्यंत को अपने वचन की याद दिलाई और कहा कि वे उसे और उसके पुत्र को स्वीकार करें। किन्तु महाराज दुष्यंत ने सब कुछ याद होते हुए भी शकुंतला और अपने पुत्र को स्वीकार करने से मना कर दिया।
तब शकुंतला ने आरम्भ से अपने जन्म, पालन और वे दोनों कैसे मिले, इसकी कथा महाराज को सुनाई और शास्त्रों का उदाहरण देते हुए महाराज दुष्यंत से स्वयं को और अपने पुत्र को स्वीकार करने को कहा किन्तु महाराज दुष्यंत नहीं माने। तब शकुंतला ने कहा कि यदि वो उसे अपनी पत्नी नहीं स्वीकारते तो वो कही और चली जाएगी लेकिन उन्हें अपने पुत्र को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। इसपर दुष्यंत ने अपने सर्वदमन को भी अपना पुत्र मानने से मना कर दिया और शकुंतला से कहा कि वो चाहे तो उन्ही के राज्य में रहे या कहीं और चली जाये किन्तु वे उन दोनों को नहीं जानते।
इससे दुखी होकर अंततः शकुंतला अपने पुत्र को लेकर वापस लौटने लगी। उसी समय देवताओं ने आकाशवाणी की कि शकुंतला ही महाराज की पत्नी है और ये बालक ही उनका पुत्र है। देवताओं की वाणी सुकर महाराज दुष्यंत बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने शकुंतला और सर्वदमन को समस्त प्रजा के सामने अपना लिया। फिर उन्होंने समस्त प्रजा को सम्बोधित करते हुए कहा कि जिस समय उन्होंने शकुंतला से विवाह किया था उस समय उसका कोई साक्षी नहीं था। ऐसी स्थिति में यदि वे दोनों को अपना लेते तो प्रजा में दुष्यंत, शकुंतला और उनके पुत्र के प्रति शंका रहती और उन्हें वैसा सम्मान नहीं मिलता जिसके वे अधिकारी थे। इसी कारण उन्होंने जान-बुझ कर सब कुछ जानते-बुझते भी उन्हें अपनाने से मना कर दिया ताकि देवताओं को आकाशवाणी करनी पड़े और समस्त प्रजा को सत्य का पता चले।
इसके बाद महाराज दुष्यंत ने शकुंतला को पटरानी और सर्वदमन को युवराज के पद पर आसीन किया। उसी आकाशवाणी में सर्वदमन का एक और नाम भरत प्रसिद्ध हुआ। फिर महाराज दुष्यंत ने दोनों को अपनी माता महारानी रथन्तरर्या से मिलवाया जो अपनी पुत्रवधु और पौत्र को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई। इसके बाद महाराज दुष्यंत ने १०० वर्षों तक शासन किया और फिर भरत राजा बनें। महाराज भरत ने अपने पराक्रम और एक दिव्य चक्र से पूरी पृथ्वी को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बनें। देवराज इंद्र के कहे अनुसार उन्होंने अपने जीवनकाल में १०० अश्वमेघ यज्ञ किये। बाद में उन्ही के नाम पर उनका कुल भारतवंशी कहलाया और हमारा देश उन्ही के नाम पर भारत कहलाता है।
अब प्रश्न ये है कि इस कथा में अंगूठी और महर्षि दुर्वासा का प्रसंग किस प्रकार जुड़ गया? दरअसल ये प्रसंग महाकवि कालिदास ने अपनी कालजयी रचना अभिज्ञान शाकुंतलम में जोड़ा। कदाचित इस कथा को थोड़ा और नाटकीय और रोचक बनाने के लिए उन्होंने इस प्रसंग को जोड़ा और उनका सोचना सही ही था। महर्षि दुर्वासा वाला प्रसंग इस कथा को अधिक रोचक तो बनता ही है। साथ ही महर्षि दुर्वासा के प्रसंग से इस कथा के सार में कोई अंतर नहीं आता किन्तु फिर भी यदि हम मूल कथा की बात करें तो उसमें ऐसा कोई प्रसंग हमें नहीं मिलता।
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