रामायण के सुन्दर कांड में हनुमान जी द्वारा लंका में प्रवेश करने का प्रसंग है। इसी प्रसंग में लंका पुरी का विस्तृत वर्णन दिया गया है। रामायण के अनुसार लंका पुरी वास्तव में एक राक्षसी ही थी जो स्वयं और लंकेश की रक्षा करती थी। आम बोल-चाल की भाषा में उसे लंकिनी के नाम से जाना जाता है। लंकिनी का वर्णन हमें वाल्मीकि रामायण के सुन्दर कांड के तीसरे सर्ग में मिलता है।
इसके अनुसार जब रात्रि में हनुमान जी लंका पहुँचते हैं तो उसकी भव्यता देख कर चकित रह जाते हैं। लंका का द्वार अमूल्य स्पटिकों से जड़ा था और अनेक गज उसके द्वार पर खड़े रहते थे। उस नगरी की रक्षा के लिए बड़े-बड़े सर्प आते जाते रहते थे। लंका के द्वार पर नीलम के चबूतरे बने हुए थे। उसके फर्श मणियों से और द्वार का ऊपरी भाग चांदी से निमित था। वहां की सीढ़ियां नीलम से बनी थी। भवन इतने ऊँचे थे जैसे आकाश को छू लेंगे।
उस लंका पुरी को देख कर हनुमान जी को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने सोंचा कि इस लंका पुरी को कोई भी बलपूर्वक विजित नहीं कर सकता। केवल कुमुद, अंगद, सुषेण, मैन्द, द्विविद, सुग्रीव, कुशपर्व, जांबवंत एवं मेरी पहुंच ही इस पुरी के भीतर हो सकती है। ये सोच कर हनुमान जी ने उस पुरी में प्रवेश करना चाहा लेकिन उसी समय उस नगरी की अधिष्टात्री देवी लंकिनी ने अपने स्ववाभिक रूप में प्रकट होकर उन्हें देखा।
लंकिनी का मुख बड़ा विकराल और डरावना था। उसने हनुमान जी से कहा - "हे वानर! तू कौन है और किस कार्य से यहाँ आया है? मेरे रहते हुए तू निश्चय ही इस पुरी में प्रवेश नहीं कर सकता। इसीलिए अपना परिचय दे।" तब हनुमान जी ने कहा - "हे क्रूर स्वाभाव वाली नारी, तू मुझसे जो पूछ रही है उसका ठीक-ठीक उत्तर मैं दे दूंगा किन्तु पहले ये बता कि तू कौन है? क्या कारण है कि तू मुझपर क्रोध कर मुझे इस प्रकार डांट रही है?"
तब लंकिनी ने कहा - "मैं राक्षसराज रावण की सेविका हूँ। मुझ पर आक्रमण करना किसी के लिए भी अत्यंत कठिन है। मैं इस नगरी की रक्षा करती हूँ। मेरी अवहेलना कर इस पुरी में प्रवेश कर किसी के लिए भी संभव नहीं है। वानर! मैं स्वयं लंका नगरी हूँ और उसी अधिकार से तेरे लिए कठोर वाणी का प्रयोग कर रही हूँ।"
तब हनुमान जी ने भी अपना विशाल रूप धरा और लंकिनी से कहा - "मैं इस समस्त लंका नगरी को देखने आया हूँ। इसे देखने का मेरे मन में बड़ी इच्छा है। इस लंका के वन, उपवन, भवन इत्यादि देखने के लिए ही मैं यहाँ आया हूँ। भद्रे! इस पुरी को देख कर मैंने जैसे यहाँ आया हूँ, उसी प्रकार लौट जाऊंगा।"
तब लंकिनी ने कहा - "नीच वानर! राक्षसेश्वर रावण के द्वारा मेरी रक्षा हो रही है। मुझे परास्त किये बिना तू इस पुरी को नहीं देख सकता।" ऐसा कहते हुए लंकिनी ने भयंकर गर्जना करते हुए हनुमान जी को पूरी शक्ति से एक थप्पड़ मारा। उस प्रहार को सहज ही सह कर हनुमान जी ने एक भीषण सिंहनाद किया और अपने बाएं हाथ के मुक्के से लंकिनी प्रहार किया। हालाँकि उसे एक स्त्री समझ कर हनुमान जी ने अधिक जोर से प्रहार नहीं किया था किन्तु उनके उस हलके प्रहार से ही लंकिनी के सारे अंग व्याकुल हो गए और वो पृथ्वी पर गिर पड़ी।
उसकी ऐसी दशा देख कर हनुमान जी को उसपर दया आ गयी और उन्होंने उसपर दूसरा प्रहार नहीं किया। तब लंकिनी ने हनुमान जी से कहा - "हे कपिश्रेष्ठ! प्रसन्न होइए और मेरी रक्षा कीजिये। शास्त्रों में स्त्री को अवध्य बताया गया है इसीलिए आप मेरे प्राण ना लीजिये। महाबली वीर! मैं स्वयं लंका पुरी ही हूँ और अपने अपने पराक्रम से मुझे परास्त कर दिया है।"
आगे लंकिनी कहती है - "मैं आपको अपनी कथा सुनाती हूँ। साक्षात् स्वयंभू परमपिता ब्रह्माजी ने मुझे जैसा वरदान दिया था वो मैं बताती हूँ। उन्होंने कहा था कि जब कोई वानर तुझे अपने पराक्रम से वश में कर ले, तब तुझे यह समझ लेना चाहिए कि अब राक्षसों पर भारी संकट आ पहुंचा है। आज आपको देख कर मुझे पता चल गया कि ब्रह्माजी की बात सत्य हो गयी। अब सीता के कारण दुरात्मा रावण और समस्त राक्षसों के विनाश का समय आ पहुंचा है।"
"कपिश्रेष्ठ! आप इस रावणपालित लंका पुरी में प्रवेश कीजिये और जो-जो कार्य आप करना चाहते हों, उन सब को पूर्ण कीजिये। रावण के दुष्कर्म के कारण ये पुरी अभिशाप से नष्ट होने वाली है। अतः आप इसमें प्रवेश कर स्वेच्छानुसार सर्वत्र सती साध्वी जनकनन्दिनी सीता की खोज कीजिये।" ऐसा कह कर लंकिनी उसी क्षण लंका को छोड़ कर चली गयी और फिर हनुमान जी ने लंका में प्रवेश कर माता सीता का पता लगाया।
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