जब तक्षक ने धन देकर काश्यप ऋषि को लौटा दिया

जब तक्षक ने धन देकर काश्यप ऋषि को लौटा दिया
आपने महाराज परीक्षित वाले लेख में पढ़ा था कि किस प्रकार कलियुग के प्रभाव में आकर उन्होंने ऋषि शमीक के कंधे पर एक मरे हुए सर्प को डाल दिया। इससे क्रोधित होकर उनके पुत्र श्रृंगी ने महाराज परीक्षित को ये श्राप दिया कि आज से सातवें दिन नागराज तक्षक के डंसने से उनकी मृत्यु हो जाएगी। ये सुनकर महाराज परीक्षित बड़ा घबराये और अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर लिया, किन्तु फिर भी सबको ये विश्वास था कि तक्षक से उन्हें कोई नहीं बचा सकता।

लेकिन इस कथा में एक और कथा छिपी है जिसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं। इसका वर्णन हमें महाभारत के आदिपर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व के काश्यपागमानविषयक अध्याय में मिलता है। इसके अनुसार जब सातवां दिन आया जिस दिन तक्षक महाराज परीक्षित को काटने वाला था, उसी दिन काश्यप नाम के एक ब्राह्मण राजा से मिलने चल दिए। ध्यान दें कि ये काश्यप महर्षि मरीचि के पुत्र महर्षि कश्यप नहीं हैं। महर्षि कश्यप सतयुग के एक महान ऋषि थे जिनसे सारी जातियों का जन्म हुआ था और वही नागराज तक्षक के पिता भी थे। ये काश्यप ऋषि महाभारत कालीन एक ऋषि थे जो मंत्रशास्त्र के प्रकांड पंडित थे।

तो काश्यप ऋषि परीक्षित से मिलने इस आशा से चल पड़े कि जब वे उन्हें तक्षक से बचा लेंगे तो उन्हें बहुत भारी धन तो मिलेगा ही, साथ ही राजा को जिलाने का पुण्य भी प्राप्त होगा। उसी समय श्राप के प्रभाव से बंधा तक्षक भी परीक्षित को डंसने हस्तिनापुर ही जा रहा था। मार्ग में उसकी भेंट काश्यप से हुई। तब तक्षक ने उनसे पूछा कि वे इतनी हड़बड़ी में कहाँ जा रहे हैं? इस पर ऋषि ने उसे बताया कि आज नागराज तक्षक महाराज परीक्षित को डंसने वाला है। वे उन्हें ही बचाने जा रहे हैं।

तब नागराज तक्षक ने उन्हें अपना परिचय दिया और कहा कि "हे ऋषिश्रेष्ठ! मैं ही नागराज तक्षक हूँ और परीक्षित को मिले श्राप के कारण मैं उसे अवश्य डसूंगा। मेरा विष अमोघ है और एक बार जब मैं किसी को डंस लेता हूँ तो उसे कोई भी जीवित नहीं कर सकता।" तब काश्यप ऋषि ने तक्षक से कहा - "नागराज! कदाचित तुम्हे मेरी विद्या का ज्ञान नहीं है। तक्षक तो क्या, मैं यदि चाहूँ तो शेषनाग के काटने पर भी मैं उनके विष का निवारण कर सकता हूँ।"

उनकी ऐसी बातें सुनकर तक्षक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने वहीँ पास में खड़े एक वृक्ष को डंसा जिससे वो वृक्ष जल कर भस्म हो गया। तब तक्षक ने काश्यप से कहा - "अब आप इस वृक्ष को पुनः जीवित करके दिखलाइये। मैं भी तो जरा आपकी विद्या का चमत्कार देखूं।" तब काश्यप ऋषि ने हँसते हुए अपनी अद्भुत विद्या के बल पर देखते ही देखते तक्षक के विष से भस्म हुए उस वृक्ष को फिर से हरा-भरा कर दिया।

तब तक्षक ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और कहा - "हे ऋषिवर! आप धन्य है। आपके अतिरिक्त मेरे अमोघ विष का प्रभाव कोई समाप्त नहीं कर सकता। किन्तु आप मुझे बताइये कि आप किस प्रयोजन से वहां जा रहे हैं? आपको जिस भी चीज की आवश्यकता है उसे मैं अभी पूरा कर देता हूँ। अतः आप कृपा कर परीक्षित को बचाने वहां ना जाएँ।"

तब काश्यप ऋषि ने कहा कि "वैसे तो मैं वहां प्रचुर धन प्राप्त करने जा रहा हूँ किन्तु राजा की रक्षा करना भी मेरा उद्देश्य है।" इसपर तक्षक ने फिर कहा - "ऋषिवर! आपको तो पता ही है कि मैं अकारण ही परीक्षित को डंसने नहीं जा रहा। वो श्राप से दग्ध है और विधाता ने उसकी आयु इतनी ही लिखी है। यदि आप उसे बचाने गए और अपने कार्य में सफल हो गए तो ऋषि का श्राप झूठा हो जाएगा। और यदि श्राप के प्रभाव के कारण आप असफल हो गए तो आपका सारा यश विफल हो जाएगा।"

इसपर काश्यप ऋषि ने सोचा कि तक्षक ठीक ही कह रहा है। राजा परीक्षित श्राप से ग्रसित हैं और श्राप के कारण तक्षक का उन्हें काटना अनुचित भी नहीं है। साथ ही उनकी आयु भी पूर्ण हो चली है। ये सोच कर उन्होंने वापस लौटना स्वीकार कर लिया। तब तक्षक ने ऋषि काश्यप को उनकी आवश्यकता से कई गुणा अधिक धन देकर उन्हें विदा कर दिया। इसके आगे की कथा तो हम जानते ही हैं। जब सातवां दिन समाप्त होने ही वाला था उसी समय तक्षक ने महाराज परीक्षित को काटा जिससे उनकी मृत्यु हो गयी।

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