ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि भृगु के विषय में तो हम सब जानते ही हैं। उनकी पत्नी का नाम था पुलोमा जो अद्वितीय सौंदर्य की स्वामिनी थी। एक बार महर्षि भृगु स्नान के लिए आश्रम से बाहर गए हुए थे। उस समय पुलोमा गर्भवती थी। उसी समय एक राक्षस जिसका नाम भी संयोग से पुलोमा ही था, वो आश्रम पर आया। भृगु ऋषि की पत्नी को देखते ही वो सुध-बुध खो बैठा। उसने निश्चय किया कि वो पुलोमा का हरण कर लेगा।
उधर उसके निश्चय से अनभिज्ञ पुलोमा ने उसे अतिथि मान कर उसका स्वागत किया और उसे भोजन दिया। भोजन के बाद पुलोमा ने महर्षि भृगु की पत्नी को अपने साथ चलने को कहा। उसने कहा कि बचपन में ही उसने पत्नी के रूप में उसका वरण कर लिया था। उसे इस प्रकार बोलते देख कर पुलोमा बड़ी रुष्ट हुए और उसकी बात का विश्वास नहीं किया। ये देख कर पुलोमा राक्षस ने वही प्रज्वल्लित अग्नि से पूछा कि हे अग्निदेव, आप सदा सत्य कहते हैं, इसीलिए कृपया बताइये कि मैं जो कह रहा हूँ वो सत्य है कि नहीं?
तब अग्निदेव ने कहा - "पुलोमा! तुम सत्य तो कह रहे हो कि इसका वरण पहले तुम्ही ने किया था किन्तु तुमने शास्त्रोक्त विधि से इसका पाणिग्रहण नहीं किया। वो महर्षि भृगु ने किया है इसी कारण वही इसके पति हैं।" अग्निदेव को ऐसा बोलते देख कर पुलोमा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उनसे पूछा कि इस राक्षस ने कब मेरा वरण किया था। तब अग्निदेव ने उसे एक कथा बताई कि बचपन में एक बार जब वो रो रही थी तो उसके पिता ने परिहास में ही उसे डराने के लिए कहा था कि "हे राक्षस! तू इसे पकड़ ले।"
उसी कमरे में वो पुलोमा राक्षस भी छिपा हुआ था और उसके पिता को इस प्रकार बोलते देख कर उसने सोचा कि उसके पिता ने उसे ही अपनी पुत्री को पकड़ने को बोला है। इसी कारण उसने उसी समय पुलोमा का पत्नी के रूप में वरण कर लिया। मैं (अग्नि) उस समय वहां उपस्थित था इसीलिए मैं इसका साक्षी हूँ। हालाँकि बाद में धर्म पूर्वक इसके पिता ने इसे महर्षि भृगु को पत्नी के रूप में दिया, इसीलिए धर्मतः वही इसके पति हैं।
अग्निदेव की ऐसी बात सुनकर पुलोमा राक्षस ने क्रोध में आकर पुलोमा का हरण कर लिया और वहां से भाग चला। पुलोमा जोर-जोर से अपने पति को सहायता के लिए पुकारने लगी किन्तु महर्षि भृगु कहीं भी दिखाई नहीं दिए। अपनी माता को संकट में देख कर उनके गर्भ में पल रहा बालक अपने योगबल से बाहर निकल आया और अपने तेज से पुलोमा राक्षस को भस्म कर दिया। अपने माता के गर्भ से च्युत हो जाने के कारण ही उसका नाम "च्यवन" पड़ा।
तब अपने पुत्र को लेकर पुलोमा रोती हुई अपने स्वसुर परमपिता ब्रह्मा के पास गयी। उसे रोता देख कर ब्रह्माजी ने उसे सांत्वना दी किन्तु उससे भी पुलोमा का रोना नहीं रुका। उसके अश्रुओं से एक नदी की उत्पत्ति हो गयी जिसका नाम ब्रह्माजी ने वसुधरा रखा। फिर परमपिता ने पुलोमा को समझा-बुझा कर भृगु के पास भेज दिया। जब महर्षि भृगु ने सारी बातें सुनी तो उन्होंने क्रोधित होकर पूछा कि "किसने तुम्हारा परिचय उस राक्षस को दिया था।" तब पुलोमा ने उन्हें बताया कि अग्निदेव ने उस राक्षस को मेरा परिचय दिया था। इससे क्रोधित होकर महर्षि भृगु ने सात जिह्वा वाले अग्नि को सर्वभक्षी हो जाने का श्राप दे दिया।
अपने आप को श्राप मिलता देख कर अग्निदेव भी बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने महर्षि भृगु से कहा - "ब्राह्मण! आपने मुझे श्राप देने का दुस्साहस कैसे किया? मैंने जो भी कहा वो सत्य कहा, फिर उसमें मेरा दोष कैसे हो सकता है? सत्य से बड़ा इस संसार में और कुछ नहीं होता। यद्यपि मैं भी आपको श्राप देने की शक्ति रखता हूँ किन्तु फिर भी आपके ब्राह्मण और भगवान ब्रह्मा के पुत्र होने के कारण मैं आपको श्राप नहीं देता। किन्तु क्या आपको नहीं पता था कि मनुष्य जो भी यज्ञ अदि करता है उसमें देवताओं को अर्पित सारा हविष्य मेरे ही मुख से होकर देवताओं तक पहुंचता है? अब जब आपने मुझे सर्वभक्षी होने का श्राप दे दिया है तो फिर मैं कैसे उन पवित्र हविष्यों को ग्रहण कर सकता हूँ?"
ये कह कर अग्निदेव ने पृथ्वी से अपने आप को समेट लिया। उनके अदृश्य हो जाने के कारण यज्ञ, अग्निहोत्र आदि सारे संस्कार रुक गए। इससे घबराकर सारे ऋषि और देवता ब्रह्माजी के पास गए और उनसे सारी बातें कही। ये सुनकर ब्रह्माजी ने अग्निदेव को बुलाया और प्रेमपूर्वक उन्हें समझाते हुए कहा - "चराचर जगत को पवित्र करने वाले अग्नि! यदि तुम इस संसार से लोप हो जाओगे तो फिर सारा जगत रुक जाएगा। मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि भृगु के श्राप के कारण सर्वभक्षी होने के बाद भी केवल तुम्हारी अपानदेश की ज्वालायें ही सर्वभक्षी होगी। तुम सदैव पवित्र ही माने जाओगे।" ब्रह्माजी के इस प्रकार समझाने के बाद अग्निदेव संतुष्ट हुए और पुनः पृथ्वी पर प्रकट हुए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।