शास्त्रों में कितने प्रकार के विवाह बताये गए हैं?

शास्त्रों में कितने प्रकार के विवाह बताये गए हैं?

हिन्दू धर्म में विवाह को १६ संस्कारों में से एक माना गया है। आम और पर लोगों को एक ही प्रकार के विवाह के विषय में पता होता है। कुछ लोग, जिन्होंने अपने धर्म ग्रंथों का थोड़ा अध्ययन किया है, उन्हें गन्धर्व विवाह के बारे में भी थोड़ी जानकारी होती है। किन्तु आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि हमारे शास्त्रों में एक दो नहीं बल्कि आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन दिया गया है। महाभारत में भी दुष्यंत और शकुंतला प्रसंग में हमें इन विवाहों के विषय में पता चलता है।
  1. ब्राह्म विवाह: अपनी कन्या को वस्त्र एवं आभूषणों से अलंकृत कर उसे सजातीय योग्य पुरुष को प्रदान करना ब्राह्म विवाह कहलाता है। इस विवाह में कन्या और वर दोनों एक ही वर्ण के होते हैं। अर्थात इसमें ब्राह्मण कन्या का विवाह ब्राह्मण युवक के साथ, क्षत्रिय कन्या का विवाह क्षत्रिय युवक के साथ, वैश्य कन्या का विवाह वैश्य युवक के साथ और शूद्र कन्या का विवाह शूद्र युवक के साथ ही किया जाता है। साथ ही इसमें कन्या और वर की सहमति आवश्यक होती है। इस प्रकार के विवाह को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। आज कल के पूर्वनियोजित विवाह (Arange Marriage) इसी विवाह के उदाहरण हैं।
  2. दैव विवाह: यदि को व्यक्ति किसी विद्वान पंडित को अपने घर पर यज्ञादि करने के लिए आमंत्रित करता है और फिर यज्ञ समाप्ति के बाद उस ऋत्विज को अपनी कन्या का दान करता है तो उसे दैव विवाह कहते हैं। इसमें अपनी कन्या का दान करने से पहले उसकी सहमति लेना आवश्यक होता है। ऐसा माना जाता है कि दैव विवाह से उत्पन्न होने वाली संतान अपने से पहले की १४ पीढ़ियों और आने वाली १४ पीढ़ियों को तारने वाली होती है।
  3. आर्ष विवाह: इसका एक नाम ऋषि विवाह भी है क्यूंकि इस विवाह को ऋषियों से जुड़ा हुआ माना जाता है। इस विवाह में कन्या के पिता वर से एक गाय और एक बैल शुल्क के रूप में लेते हैं और उसके बदले उसे अपनी पुत्री का दान करते हैं। फिर वैवाहिक संस्कार पूर्ण करने के बाद कन्या को वर के साथ विदा किया जाता है। ये विवाह प्रथा सतयुग में बहुत प्रचलित थी, ऐसा माना जाता है।
  4. प्राजापत्य विवाह: वर से ये वचन लेकर कि विवाह के पश्चात दोनों वर-वधु सदैव धर्माचरण करेंगे, उसे अपनी कन्या का दान देना प्राजापत्य विवाह कहलाता है। इस विवाह में कन्या को कोई विशेष उपहार या आभूषण देने की प्रथा नहीं है। इसमें बहुत बड़े आयोजन की भी आवश्यकता नहीं होती। एक साधारण व्यक्ति भी वैदिक विधि से इस विवाह को करवा सकता है। इस विवाह में यदि कन्या की आयु कम होती है तो उसके पिता अपनी कन्या को वर के पिता के हाथों में सौंपते हैं। वर का पिता उस कन्या का पालन-पोषण अपनी ही कन्या के रूप में करता है और जब वो वयस्क हो जाती है तब उसे अपने पुत्र को सौंप देता है।
  5. आसुर विवाह: किसी व्यक्ति से बहुत सारा धन लेकर उसे अपनी कन्या देना आसुर विवाह कहलता है। हालाँकि हिन्दू धर्म में इस प्रकार का विवाह वर्जित माना जाता है किन्तु आज भी कुछ राज्यों में निर्धन परिवार की कन्याओं का विवाह इस प्रकार किया जाता है। इसमें कन्या की सहमति नहीं ली जाती जिससे उसे भविष्य में कष्ट मिलने की सम्भावना अधिक होती है।
  6. गांधर्व विवाह: जब वर और वधु अपनी स्वेच्छा से केवल ईश्वर को साक्षी मान कर विवाह कर लेते हैं तो उसे गांधर्व विवाह कहा जता है। आज कल होने वाला प्रेम विवाह (Love Marriage) इसी प्रकार का विवाह माना जाता है। कुछ स्थानों पर इसे आदर्श विवाह माना जाता है क्यूंकि वर और वधु, दोनों की इसमें सहमति होती है। हालाँकि अपने परिवार, विशेषकर माता पिता की सहमति ना लेने के कारण इस विवाह पर कुछ लोग प्रश्न भी उठाते हैं। गांधर्व विवाह समाज के बंधनों और रीति रिवाजों से स्वतंत्र माना जाता था। इसमें किसी अनुष्ठान या पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती थी। हालाँकि इसे किसी पवित्र स्थान जैसे मंदिर में करना उचित माना गया है लेकिन फिर भी इसमें किसी स्थान विशेष की भी कोई अनिवार्यता नहीं होती और इसे कहीं पर भी और किसी भी समय वर-वधु की सहमति के साथ किया जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब किसी कन्या का पिता समर्थ होते हुए भी उस समय और परिस्थिति के अनुसार अपनी कन्या का गांधर्व विवाह कर देता था। जैसे मय दानव ने अपनी पुत्री मंदोदरी का विवाह रावण के साथ गान्धर्व विधि से ही किया था। इसके अतिरिक्त दुष्यंत और शकुंतला और ऐसे कई उदाहरण हमें अपने धर्म ग्रंथों में मिलते हैं जिन्होंने धर्म पूर्वक गांधर्व विवाह किया था।
  7. राक्षस विवाह: युद्ध कर सारे परिवार का वध कर किसी कन्या को बलात उसके रोते हुए भाई-बंधुओं से छीन लेना ही राक्षस विवाह कहलाता है। इसमें कन्या या उसके माता पिता की सहमति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार का विवाह सीधे-सीधे कन्या हरण का ही एक उदाहरण है। असुरों में इस प्रकार के विवाह का प्रचलन था जिसका कई वर्णन हमें अपने ग्रंथों में मिलता है। उदाहरण के लिए रावण ने माता सीता और उनके अतिरिक्त कई और स्त्रियों के साथ इस प्रकार का विवाह करने का प्रयास किया था। इसे हिन्दू धर्म और आर्य संस्कृति में पूर्ण रूप से वर्जित माना गया है।
  8. पैशाच विवाह: जब घर के लोग असावधान हों या सोये हुए हों, उस स्थिति में कन्या को चुरा लेना पैशाच विवाह कहलता है। यदि कोई कन्या असावधान और सोई हुई हो, उस स्थिति में उसके साथ दुष्कर्म करना और बाद में उससे विवाह कर लेना भी पैशाच विवाह कहलाता है। ये राक्षस विवाह का ही एक और अधम रूप है। मनुस्मृति में इसे पूर्ण रूप से अधार्मिक, अन्यायपूर्ण और त्याज्य बताया गया है। हालाँकि असुरों में ऐसे विवाह का कुछ उदाहरण मिलता है।
इन आठ विवाहों में से पहले चार, अर्थात ब्राह्म, देव, आर्ष एवं प्राजापत्य विवाह ब्राह्मणों के लिए श्रेष्ठ बताये गए हैं। ब्राह्मणों को शेष चार विधि से विवाह नहीं करना चाहिए। 

प्रथम विवाह से लेकर छठे विवाह, अर्थात ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर और गांधर्व विवाह क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के लिए ठीक बताये गए हैं।

अंतिम दो विवाह, अर्थात राक्षस और पैशाच विवाह मनुष्यों के लिए त्याज्य बताया गया है। केवल दैत्य, राक्षस, दानवों में इसका प्रचलन देखा गया है। कसी भी मनुष्य को चाहे वो किसी भी वर्ण का हो, किसी भी स्थिति में इन दो विवाह को नहीं करना चाहिए। 

आज के आधुनिक युग में भी प्रथम छह विवाहों में से भी मुख्यतः ब्राह्म और गन्धर्व विवाह का ही अधिक प्रचलन है।

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